नववर्ष कौन सा सही- अंग्रेजी या भारतीय?

दुनियाभर में हजारों तरह के कैलेंडर प्रचलित हैं। संभवत: हर माह एक नया वर्ष प्रारंभ होता होगा। कोई चंद्र पर आधारित है, कोई सूर्य पर, तो कोई कैलेंडर दिन-रात पर आधारित है। अब सवाल यह उठता है कि ऐसा कौन सा कैलेंडर है, जो कि विज्ञानसम्मत है। यदि विज्ञानसम्मत है तो कैसे?
 
अंग्रेजी कैलेंडर-
अंग्रेजी कैलेंडर की शुरुआत रोम के प्राचीन कैलेंडर से हुई। प्राचीन रोमन कैलेंडर में प्रारंभ में 10 माह ही होते थे और वर्ष का शुभारंभ 1 मार्च से होता था। बहुत समय बाद 713 ईस्वी पूर्व के करीब इसमें जनवरी तथा फरवरी माह जोड़े गए। सर्वप्रथम 153 ईस्वी पूर्व में 1 जनवरी को वर्ष का शुभारंभ माना गया एवं 45 ईस्वी पूर्व में जब रोम के तानाशाह जूलियस सीजर द्वारा जूलियन कैलेंडर का शुभारंभ हुआ, तो यह सिलसिला बरकरार रखा गया। ऐसा करने के लिए जूलियस सीजर को पिछला साल यानी ईसा पूर्व 46 ई. को 445 दिनों का करना पड़ा था। 1 जनवरी को नववर्ष मनाने का चलन 1582 ईस्वी के ग्रेगोरियन कैलेंडर के आरंभ के बाद हुआ। दुनियाभर में प्रचलित ग्रेगोरियन कैलेंडर को पोप ग्रेगरी अष्टम ने 1582 में तैयार किया था। ग्रेगरी ने इसमें लीप ईयर का प्रावधान भी किया था।
 
आज विश्वभर में जो अंग्रेजी कैलेंडर प्रयोग में लाया जाता है, उसका आधार रोमन सम्राट जूलियस सीजर का ईसा पूर्व पहली शताब्दी में बनाया कैलेंडर ही है। इस नए कैलेंडर की शुरुआत जनवरी से मानी गई है। इसे ईसा के जन्म से 46 वर्ष पूर्व लागू किया गया था। चूंकि उस वक्त ईसाइयों के पास अपना कोई कैलेंडर नहीं था तो उन्होंने जूलियस सीजर के कैलेंडर को अपना लिया था।
 
रोमन सम्राट पोम्पीलस ने 10 माह के कैलेंडर को 12 माह में बदल दिया था। पूर्व में इस कैलेंडर में 12वां महीना फरवरी था। मतलब यह कि मार्च को पहला महीना माना जाता था। प्राचीनकाल में दुनियाभर में उस दौर में मार्च को ही वर्ष का पहला महीना माना जाता था। आज भी बही-खाते का नवीनीकरण और मंगल कार्य की शुरुआत मार्च में ही होती है। हालांकि रोमनों का यह कैलेंडर विज्ञानसम्मत न होकर सम्राटों द्वारा गढ़ा गया कैलेंडर था जिसमें सुधार होते रहे। यूनानी ज्योतिषी सोसिजिनीस ने जूलियस को सलाह दी थी।
 
जुलियस का जन्म जिस माह में हुआ उसका नाम जुलाई हो गया। आक्टेबियन जब रोम का सम्राट बना तो उसने उसके जन्म के माह का नाम बदलकर ऑगस्टस रख दिया। यही ऑगस्टस बाद में बिगड़कर अगस्त हो गया। उस काल में 7वें माह में 31 और 8वें माह में 30 दिन होते हैं। चूंकि 7वां माह जुलियस सीजर के नाम पर जुलाई था और उसके माह के दिन ऑगस्टस माह के दिन से ज्यादा थे तो यह बात ऑगस्टस राजा को पसंद नहीं आई। अत: उस समय के फरवरी के 29 दिनों में से 1 दिन काटकर अगस्त में जोड़ दिया गया। इससे स्पष्ट है कि अंग्रेजी कैलेंडर का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।
 
इस कैलेंडर में कई बार सुधार किए गए। पहली बार इसमें सुधार पोप ग्रेगरी 13वें के काल में 2 मार्च 1582 में उनके आदेश पर हुआ। चूंकि यह पोप ग्रेगरी ने सुधार कराया था इसलिए इसका नाम ग्रेगोरियन कैलेंडर रखा गया। फिर सन् 1752 में इसे पुन: संशोधित किया गया तब सितंबर 1752 में 2 तारीख के बाद सीधे 14 तारीख का प्रावधान कर संतुलित किया गया अर्थात सितंबर 1752 में मात्र 19 दिन ही थे। तब से ही इसके सुधरे रूप को अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिली।
 
इस कैलेंडर को शुरुआत में पुर्तगाल, जर्मनी, स्पेन तथा इटली में अपनाया गया। सन् 1700 में स्वीडन और डेनमार्क में लागू किया गया। 1752 में इंग्लैंड और संयुक्त राज्य अमेरिका, 1873 में जापान और 1911 में इसे चीन ने अपनाया। इसी बीच इंग्लैंड के सभी उपनिवेशों (गुलाम देशों) और अमेरिकी देशों में यही कैलेंडर अपनाया गया। भारत में इसका प्रचलन अंग्रेजी शासन के दौरान हुआ।
 
भारतीय कैलेंडर-
आज जिसे हम हिन्दू या भारतीय कैलेंडर कहते हैं, उसका प्रारंभ 57-58 ईसा पूर्व सम्राट विक्रमादित्य ने किया था। विक्रमादित्य से पहले भी चैत्र मास की प्रतिपदा को नववर्ष मनाया जाता रहा है, लेकिन तब संपूर्ण भारत में कोई एक मान्य कैलेंडर नहीं था। कैलेंडर के नाम पर पंचांग प्रचलन में था। संपूर्ण भारत में ज्योतिषीय गणना और पंचांग पर आधारित मंगल कार्य आदि संपन्न किए जाते थे। हालांकि इससे पूर्व भारत में कलियुग संवत् प्रचलन में था जिसकी शुरुआत 3102 ईसवी पूर्व में हुई थी। इस बीच कृष्ण और युधिष्‍ठिर के भी संवत् प्रचलन में थे। इससे भी पूर्व 6676 ईस्वी पूर्व से सप्तर्षि संवत् प्रचलन में था। सभी का आधार पंचांग और ज्योतिष की गणनाएं ही थीं।
 
हिन्दू पंचांग और ज्योतिष के ग्रंथों पर आधारित सम्राट विक्रमादित्य ने एक सर्वमान्य कैलेंडर को ज्योतिषियों और खगोलविदों की सलाह से प्रचलन में लाया। इस कैलेंडर को सभी ग्रह-नक्षत्रों के गति और भ्रमण को ध्यान में रखकर बनाया गया। जैसे चंद्र, नक्षत्र, सूर्य, शुक्र और बृहस्पति की गति के आधार पर ही नवसंवत्सर का निर्माण किया गया है। जिस तरह सूर्य उदय और अस्त होता है, उसी तरह सभी ग्रह और नक्षत्र भी उदय और अस्त होते हैं। इसमें बृहस्पति और शुक्र के उदय और अस्त का महत्व ज्यादा है। इसी के आधार पर मंगल कार्य नियुक्त होते हैं।
 
जब ऊपर यह लिखा गया कि सभी ग्रह और नक्षत्रों के आधार पर तो उसे अच्छे से जानना जरूरी है। सूर्य के आधार पर नववर्ष का प्रारंभ मकर संक्रांति के दिन से होता है। सूर्य एक राशि से जब दूसरी राशि में पहुंच जाता है तब 1 माह पूर्ण होता है। मेष से मीन तक की 12 राशियों में सूर्य भ्रमण करता है। यही 12 राशियां सौर वर्ष के 12 माह कहे गए हैं।
 
उसी तरह चंद्र के आधार पर नववर्ष का प्रारंभ चैत्र माह की प्रतिप‍दा से प्रारंभ होता है। ये चैत्र आदि माहों के नाम नक्षत्र के नामों पर रखे गए हैं। यह माह चंद्र का 1 माह उसकी कलाओं के घटने और बढ़ने से पूर्ण होता है। अर्थात अमावस्या से पूर्णिमा तक के उसके चक्र का 1 माह पूर्ण होता है।
 
चंद्रमास या माह 30 तिथियों का होता है। तिथियां चंद्र के भ्रमण और गति के अनुसार तय होती हैं। इसे क्षय और वृद्धि कहते हैं। 1 तिथि का भोगकाल सामान्यत: 60 घटी का होता है। किसी तिथि का क्षय या वृद्धि होना सूर्योदय पर निर्भर करता है। कोई तिथि सूर्योदय से पूर्व आरंभ हो जाती है और अगले सूर्योदय के बाद तक रहती है तो उस तिथि की वृद्धि हो जाती है अर्थात वह वृद्धि तिथि कहलाती है। लेकिन यदि कोई तिथि सूर्योदय के बाद आरंभ हो और अगले सूर्योदय से पूर्व ही समाप्त हो जाती है तो उस तिथि का क्षय हो जाता है अर्थात वह क्षय तिथि कहलाती है इसीलिए कभी-कभी आपने देखा होगा कि एक ही दिन में अष्टमी और नवमी दोनों ही मनाई जाती है। हालांकि अष्टमी तो अष्टमी तिथि और नवमी तो नवमी तिथि को ही मनाई जाती है, तो तिथि और दिन के फर्क को समझना जरूरी है।
 
दिन तो सूर्य की गति और भ्रमण पर आधारित है। जैसे सूर्य के उदय से अगले दिन सूर्य के उदय तक का 1 पूर्ण दिन होता है। इसी में 1 रात्रि भी शामिल है इसीलिए सूर्य और चंद्रमास के बीच लगभग 10 दिनों का अंतर जब आ जाता है तब इस अंतर को ही अधिकमास या मलमास कहते हैं। यह समझना थोड़ा कठिन जरूर है लेकिन यह पूर्णत: वैज्ञानिक है। चंद्र के अनुसार तिथि और सूर्य के अनुसार दिन निर्धारित होता है।
 
इसी तरह नक्षत्र माह होता है। जिस तरह सूर्य मेष से लेकर मीन तक भ्रमण करता है, उसी तरह चन्द्रमा अश्‍विनी से लेकर रेवती तक के नक्षत्र में विचरण करता है। यह काल नक्षत्र मास कहलाता है। यह लगभग 27 दिनों का होता है इसीलिए 27 दिनों का 1 नक्षत्र मास कहलाता है।
 
उक्त तीनों को मिलाकर ही कैलेंडर का निर्माण किया गया जिससे यह जाना जाता है कि कब किस तिथि में कौन-सी राशि में कौन-सा नक्षत्र या ग्रह भ्रमण कर रहा है? इसी आधार पर मौसम और मंगल कार्य निर्धारित होते हैं। यह बिलकुल ही सटीक पद्धति है। हजारों वर्ष पहले और आज भी यह बताया जा सकता है कि सन् 2040 में कब सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण होगा और कब कौन-सा नक्षत्र किस राशि में भ्रमण कर रहा होगा। यह गणना अंग्रेजी कैलेंडर सहित दुनिया का कोई सा भी संवत् या कैलेंडर नहीं कर सकता, लेकिन यह गणना नासा की एफेमेरिज या हिन्दू ज्योतिष एवं पंचांग जरूर कर सकता है।
 
इस कैलेंडर का नववर्ष चैत्र माह की प्रथम तिथि से प्रारंभ होता है। इस प्रथम तिथि को प्रतिपदा कहते हैं। यह चैत्र माह अंग्रेजी कैलेंडर के हिसाब से मार्च और अप्रैल के बीच प्रारंभ होता है। चैत्र माह भारतीय कैलेंडर का प्रथम माह है जबकि अंतिम है फाल्गुन। अमावस्या के पश्चात चंद्रमा जब मेष राशि और अश्विनी नक्षत्र में प्रकट होकर प्रतिदिन 1-1 कला बढ़ता हुआ 15वें दिन चित्रा नक्षत्र में पूर्णता को प्राप्त करता है, तब वह मास 'चित्रा' नक्षत्र के कारण 'चैत्र' कहलाता है। भारतीय कैलेंडर के वार, तिथि, माह या वर्ष आदि किसी सम्राट, महान व्यक्ति आदि के नामों पर नहीं रखे गए हैं। यह ग्रह-नक्षत्रों के भ्रमण और भगण?????? के नाम पर ही रखे गए हैं।
 
मार्च माह से ही दुनियाभर में पुराने कामकाज को समेटकर नए कामकाज की रूपरेखा तय की जाती है। इस धारणा का प्रचलन विश्व के प्रत्येक देश में आज भी जारी है। 21 मार्च को पृथ्वी सूर्य का 1 चक्कर पूरा कर लेती है, उस वक्त दिन और रात बराबर होते हैं। 12 माह का 1 वर्ष और 7 दिन का 1 सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत् से ही शुरू हुआ। महीने का हिसाब सूर्य व चंद्रमा की गति पर रखा जाता है। विक्रम कैलेंडर की इस धारणा को यूनानियों के माध्यम से अरब और अंग्रेजों ने अपनाया। भारत में प्राचीनकाल से ही चैत्र माह में सब कुछ नया करने का प्रचलन रहा है। चैत्र माह से नवरात्रि का प्रारंभ होता है। इस नवरात्रि में घर का रंग-रोगन करके व्यापारी लोग अपने बही-खाते बदलते हैं।
 
मार्च और अप्रैल के बीच का कालखंड ऐसा है जबकि सूर्य राशि परिवर्तन करके मेष अर्थात फिर से प्रथम राशि में जाता है और दूसरी ओर चंद्र भी सभी नक्षत्रों में भ्रमण करके पुन: चित्रा नक्षत्र में पूर्णता को प्राप्त करता है। इसीलिए यह चैत्रमास ही सर्वमान्य रूप से प्रथम माह होता है, जबकि पुन: सूर्य मेष राशि में भ्रमण करने लगता है। इस दौरान मेष राशि में पहला नक्षत्र भरणी भ्रमण कर रहा होता है। हालांकि सौर मास का प्रारंभ सूर्य के उत्तरायन होने से होता है जबकि सूर्य मकर राशि में आता है। इसीलिए चंद्रमास से नवरात्रि और सौर्य मास से मकर संक्राति का महत्व है।
 
विक्रम संवत् के आधार पर भारत के हर राज्य में थोड़े-बहुत फेरबदल के बाद यह कैलेंडर प्रचलन में आया लेकिन यह कैलेंडर संपूर्ण भारत सहित ईरान और इंडोनेशिया तक प्रचलित था। कहते हैं कि रोम ने भी इसी कैलेंडर को देखकर ही अपने यहां का कैलेंडर ईजाद दिया था। इसे ही देखकर प्राचीन अरब जगत के लोगों ने अपना संवत् चलाया था जिसे बाद में हजरत मोहम्मद के काल में बदला गया।
 
भारत में जब विक्रम संवत् के आधार पर नववर्ष प्रारंभ होता है, तो उसे हर राज्य में एक अलग नाम से जाना जाता है, जैसे महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा, आंध्र में उगादिनाम, जम्मू-कश्मीर में नवरेह, पंजाब में वैशाखी, सिन्ध में चैटीचंड, केरल में विशु, असम में रोंगली बिहू आदि, जबकि ईरान में नौरोज के समय नववर्ष इसी दिन प्रारंभ होता है। हर राज्य में इसका नाम भले ही अलग हो लेकिन सभी यह जानते हैं कि इसका नाम नवसंवत्सर ही है।
 
इसे संवत्सर क्यों कहते हैं?
शनिवार, 6 अप्रैल 2019 से चैत्र माह की प्रतिपदा से भारत का नववर्ष प्रारंभ हो रहा है। इस दिन से विक्रम संवत् 2075 की समाप्ति और 2076 का प्रारंभ होगा। इसी दिन से नवरात्रि पर्व भी प्रारंभ होगा। अब सवाल यह उठता है कि नववर्ष को क्यों संवत्सर कहा जाता है?
 
दरअसल, जिस तरह प्रत्येक माह के नाम नियुक्त हैं, जैसे चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन, उसी तरह प्रत्येक आने वाले वर्ष का एक नाम होता है। 12 माह के 1 काल को संवत्सर कहते हैं और हर संवत्सर का एक नाम होता है। इस तरह 60 संवत्सर होते हैं। 60 संवत्सरों में 20-20-20 के 3 हिस्से हैं जिनको ब्रह्माविंशति (1-20), विष्णुविंशति (21-40) और शिवविंशति (41-60) कहते हैं। वर्तमान में विक्रम संवत् 2076 से 'परिधावी' नाम का संवत्सर प्रारंभ होगा। इसके पहले विरोधकृत संवत्सर चल रहा था।

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