क्या है धर्मयुद्ध की हकीकत, क्यों बहाया जाता है धर्म के नाम पर खून, जानिए...

मानव समाज युद्ध करते हुए अब इस मोड़ पर आकर खड़ा हो गए है कि यदि अब इससे आगे जाता है तो निश्चित ही उसका अस्तित्व मिटने वाला है। निश्चि ही युद्ध से जीवन का विकास हुआ है लेकिन अब यही युद्ध जीवन का नाश करने वाला सिद्ध हो रहा है। परमाणु बमों के ढेर पर बैठा मानव खुद के ही नहीं इस धरती के वजूद को भी मिटाने के लिए तैयार है। यदि आप धर्म के नाम पर प्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप से यह लड़ाई जारी रखते हैं तो आप सभी को सामूहिक रूप से मरने के लिए तैयार रहना चाहिए। आप इसके लिए बौद्धिक लोगों की जमात की तरह इसे सांस्कृतिक युद्ध या बाजारवाद के लिए युद्ध कह सकते हैं। इसे आप पूंजीवाद और साम्यवाद की लड़ाई भी कह सकते हैं, लेकिन मूल में मजहब ही है। 
 
प्राचीनकाल से ही कहते आए हैं कि जर, जोरू और जमीन के लिए ही युद्ध होते आए हैं, और जब धर्म या संप्रदाय के लिए युद्ध होते हैं तो उसमें भी उक्त तीनों की ही लूट की जाती है।  विद्वानों अनुसार धर्मयुद्ध, क्रूसेड और जिहाद, इन तीनों तरह के शब्दों के अलग-अलग अर्थ निकाले जाते हैं। वर्तमान में इस तरह के शब्दों के मायने बदल गए हैं। अब इसे अंग्रेजी में 'होली वार' कहा जाता है अर्थात पवित्र युद्ध। क्या युद्ध भी पवित्र हो सकता है? सवाल यह उठता है कि क्या सचमुच ही अपने समाज, संम्प्रदाय और कथित धर्म के लिए लड़े जाने वाले युद्ध को धर्मयुद्ध कहें?
 
वर्तमान में तथाकथित धर्म के नाम पर निर्दोष लोगों का खून बहाया जा रहा है। दुनियाभर में धर्म की आड़ लेकर मासूमों की हत्या करने से लोग नहीं चूक रहे हैं। अपने धर्म का विस्तार करने या भूमि को हड़पने के लिए दुनियाभर में कथित धार्मिक योद्धा सक्रिय हैं। यह संपूर्ण धरती पर अपने ही धर्म का परचम लहराना चाहते हैं। जरूरी नहीं है कि यह सभी आतंकवादी ही हों। यह समाज के हर तबके में रह रूप में सक्रिय रहकर कार्य करते हैं। इनका मकसद दंगा, फसाद, युद्ध, बलवा, अपहरण, तस्करी, दान, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग आदि सभी तरह के कार्यों के माध्यम से धर्म का विस्तार करना होता है, लेकिन इससे सभी की नस्लें बर्बाद ही होगी। महाभारत के युद्ध का परिणाम कोई अच्छे से जान लेगा तो समझ में आएगा कि पांडव युद्ध जीतकर भी हार गए थे। श्रीकृष्ण के कुल का नाश हो गया था।
 
धर्म के लिए युद्ध को धर्मयुद्ध कहा जाता है। अब समझने वाली बात यह है कि धर्म क्या है? बस, यही समझने वाली बात है। हिन्दू, मुसलमान, सिख, बौद्ध या ईसाई कोई धर्म नहीं है बल्कि ये सम्प्रदाय या संगठन है। भगवान श्रीकृष्ण ने किसी संप्रदाय, समाज या संगठन के लिए युद्ध नहीं लड़ा था उन्होंने सत्य और न्याय के लिए युद्ध लड़ा था। संस्कृत शब्द धर्म को समझना जरूरी है तभी धर्म के लिए युद्ध को समझा जा सकता है।
 
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क्या है धर्मयुद्ध?
विश्व इतिहास में महाभारत के युद्ध को धर्मयुद्ध के नाम से जाना जाता है। महाभारत काल में जो युद्ध लड़ा गया था वह किसी धर्म, जाति, मजहब या संप्रदाय के लिए नहीं बल्कि सत्य और न्याय के लिए युद्ध किया गया था। हालांकि कुछ लोग मान सकते हैं कि यह युद्ध भूमि विवाद पर था। हालांकि इसके पीछे के सत्य को जानने के लिए आपको महाभारत का गहन अध्ययन करना होगा। आर्यभट्‍ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ई.पू. में हुआ। इस युद्ध के 35 वर्ष पश्चात भगवान कृष्ण ने देह छोड़ दी थी। तभी से कलियुग का आरम्भ माना जाता है।
दुर्योधन इत्यादि को समझाने का कई बार प्रयत्न किया गया था। एक बार महाराज द्रुपद के पुरोहित उसे समझाने गए। दूसरी बार देश के प्रमुख ऋषियों और भीष्म पितामह, धृतराष्ट्र और गांधारी ने भी समझाने का प्रयत्न किया और तीसरी बार भगवान श्रीकृष्ण स्वयं हस्तिनापुर गए थे। इस सबके उपरांत जब सत्य, न्याय और धर्म के पथ को उसने ठुकरा दिया तब फिर दुर्योधन और उसके सहयोगियों को शरीर से वंचित करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं बचा। कहा जाता है कि सत्य और न्याय की रक्षा के लिए युद्ध न करने वाला या युद्ध से डरने वाला पापियों का सहयोगी कहलाता है।
 
महाभारत में जिस धर्मयुद्ध की बात कही गई है वह किसी सम्प्रदाय विशेष के खिलाफ नहीं बल्कि अधर्म के खिलाफ युद्ध की बात कही गई है। अधर्म अर्थात सत्य, अहिंसा, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और न्याय के विरुद्ध जो खड़ा है उसके‍ खिलाफ युद्ध ही विकल्प है।
 
विभीषण के अलावा अन्य ऋषियों ने रावण को समझाया था कि पराई स्त्री को उसकी सहमति के बिना अपने घर में रख छोड़ना अधर्म है, तुम तो विद्वान हो, धर्म को अच्छी तरह जानते हो, लेकिन रावण नहीं माना। समूचे कुल के साथ रावण का नाश हुआ। पहले न्यायालय नहीं होते थे तो न्याय का पक्ष लेना वाला ही धर्मसम्मत आचरण वाला माना जाता था।
 
यदि आपके साथ अन्याय हो रहा है और कहीं पर भी न्याय नहीं मिल रहा है तो एकमात्र विकल्प युद्ध ही बच जाता है। उस समूची व्यवस्था के खिलाफ जो न्याय देने में देरी कर रही है या कि जो न्याय नहीं कर रही है। भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि जो देवताओं को पूजते हैं वे देवताओं को प्राप्त होते हैं और जो राक्षसों को पूजते हैं वे राक्षसों को प्राप्त होते हैं, लेकिन वही श्रेष्ठ मनुष्य है जो मुझ ब्रह्म को छोड़कर अन्य किसी की शरण में नहीं है।
 
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क्रूसेड : क्रूसेड अथवा क्रूस युद्ध। क्रूस युद्ध अर्थात ख्रिस्त धर्म की रक्षा के लिए युद्ध। ख्रिस्त धर्म अर्थात ईसाई या क्रिश्चियन धर्म के लिए युद्ध। अधिकतर लोग इसका इसी तरह अर्थ निकालते हैं लेकिन सच क्या है यह शोध का विषय हो सकता है।

ईसाइयों ने ईसाई धर्म की पवित्र भूमि फिलिस्तीन और उसकी राजधानी यरुशलम में स्थित ईसा की समाधि पर अधिकार करने के लिए 1095 और 1291 के बीच सात बार जो युद्ध किए उसे क्रूसेड कहा जाता है। इसे इतिहास में सलीबी युद्ध भी कहते हैं। यह युद्ध सात बार हुआ था इसलिए इसे सात क्रूश युद्ध भी कहते हैं।
 
उस काल में इस भूमि पर इस्लाम की सेना ने अपना आधिपत्य जमा रखा था, जबकि इस भूमि पर मूसा ने अपने राज्य की स्थापना की थी। इस तरह इस भूमि पर यहूदी भी अपना अधिकार चाहते थे। ईसाई, यहूदी और मुसलमान तीनों ही धर्म के लोग आज भी उस भूमि के लिए युद्ध जारी रखे हुए हैं।
 
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जिहाद : जिहाद या जेहाद अरबी में इसके दो अर्थ हैं- सेवा और संघर्ष। इसका मूल शब्द जहद है, जिसका अर्थ होता है 'संघर्ष'। जिहाद के अर्थ 'जद्दो जेहद करना।' से भी लगाया जाता है। अक्सर लोग इसका गलत अर्थ निकालते हैं। इस्लामिक विद्वान मानते हैं कि जिहाद का अर्थ धर्म के लिए पवित्र युद्ध करना नहीं होता। यह तो आतंरिक अनुशासन लाने और अन्याय के खिलाफ संघर्ष होता हैं।
 
जिहाद के दो प्रकार के माने गए हैं :- 1.जिहाद अल-अकबर (बड़ा जिहाद) और 1.जिहाद अल असगर (छोटा जिहाद)। पहला जिहाद खुद के ‍भीतर की बुलाइयों के खिलाफ संघर्ष करना है, तो दूसरा जिहाद सामाजिक बुराइयों और अन्याय के खिलाफ है।
 
वैसे तो पवित्र पुस्तक कुरान में जिहाद का जिक्र मिलता है। जिहाद तो मोहम्मद सल्ल. के समय से ही जारी है, किंतु 11वीं सदी की शुरुआत में क्रूसेडरों ने जब यरुशलम के लिए मोर्चाबंदी की तो पहली बार मुसलमानों को जिहाद के लिए इकट्ठा किया गया। यहीं से जिहाद के पवित्र मायने बदल गए। सीरिया को एकजुट कर मुसलमानों ने ईसाइयों को खदेड़कर इस्लामिक गणराज्य की स्थापना की। तभी से जिहाद शब्द व्यापक पैमाने पर प्रचलन में आया और इसका उद्येश्य बदल गया।
 
जिहाद की व्याख्या, अर्थ या विचार को विवादित ही माना जाता रहा है। अरबी भाषा के इस शब्द के अर्थ का आज अनर्थ हो चला है। किसी सम्प्रदाय विशेष के खिलाफ नहीं हजरत मोहम्मद साहब ने मानव बुराइयों और जालिमों के खिलाफ जिहाद किया था।
 
अगले पन्ने पर... यहूदी, ईसाई और मुसलमानों की जंग का सच

यहूदी, ईसाई और मुसलमानों की जंग का सच
 
यहूदी और मुस्लिम धर्म में 99 प्रतिशत समानता है फिर भी यहूदी और मुसलमान दोनों ही धर्म के लोग एक-दूसरे की जान के दुश्मन क्यों हैं? ईसाई धर्म की उत्पत्ति भी यहूदी धर्म से हुई है, लेकिन दुनिया अब ईसाई और मुसलमानों के बीच जारी जंग से तंग आ चुकी है। तीनों ही धर्म एक दूसरे के खिलाफ क्यों हैं, जबकि तीनों ही धर्म मूल रूप में एक समान ही है। आओ जानते हैं इस जंग के इतिहास का संक्षिप्त।
613 में हजरत मुहम्मद ने उपदेश देना शुरू किया था तब मक्का, मदिना सहित पूरे अरब में यहू‍दी धर्म, पेगन (मुशरिक) और ईसाई धर्म थे। लोगों ने इस उपदेश का विरोध किया। विरोध करने वालों में यहूदी सबसे आगे थे। यहूदी नहीं चाहते थे कि हमारे धर्म को बिगाड़ा जाए, जबकि ह. मुहम्मद धर्म को सुधार रहे थे। बस यही से फसाद और युद्ध की शुरुआत हुई।
 
सन् 622 में हजरत अपने अनुयायियों के साथ मक्का से मदीना के लिए कूच कर गए। इसे 'हिजरत' कहा जाता है। मदीना में हजरत ने लोगों को इक्ट्ठा करके एक इस्लामिक फौज तैयार की और फिर शुरू हुआ जंग का सफर। खंदक, खैबर, बदर और ‍फिर मक्का को फतह कर लिया गया। सन् 630 में पैगंबर साहब ने अपने अनुयायियों के साथ कुफ्फार-ए-मक्का के साथ जंग की, जिसमें अल्लाह ने गैब (चमत्कार) से अल्लाह औरउसके रसूल की मदद फरमाई। इस जंग में इस्लाम के मानने वालों की फतह हुई। इस जंग को जंग-ए-बदर कहते हैं।
 
632 ईसवी में हजरत मुहम्मद सल्ल. ने दुनिया से पर्दा कर लिया। उनकी वफात के बाद तक लगभग पूरा अरब इस्लाम के सूत्र में बंध चुका था। इसके बाद इस्लाम ने यहूदियों को अरब से बाहर खदेड़ दिया। वह इसराइल और मिस्र में सिमट कर रह गए। 
 
इस्लाम की प्रारंभिक जंग : हजरत मुहम्मद सल्ल. की वफात के मात्र सौ साल में इस्लाम समूचे अरब जगत का धर्म बन चुका था। 7वीं सदी की शुरुआत में इसने भारत, रशिया और अफ्रीका का रुख किया और मात्र 15 से 25 वर्ष की जंग के बाद आधे भारत, अफ्रीका और रूस पर कब्जा कर लिया।
 
पहला क्रूसेड : अगर 1096-99 में ईसाई फौज यरुशलम को तबाह कर ईसाई साम्राज्य की स्थापना नहीं करती तो शायद इसे प्रथम धर्मयुद्ध (क्रूसेड) नहीं कहा जाता। जबकि यरुशलम में मुसलमान और यहूदी अपने-अपने इलाकों में रहते थे। इस कत्लेआम ने मुसलमानों को सोचने पर मजबूर कर दिया।
 
जैंगी के नेतृत्व में मुसलमान दमिश्क में एकजुट हुए और पहली दफा अरबी भाषा के शब्द 'जिहाद' का इस्तेमाल किया गया। जबकि उस दौर में इसका अर्थ संघर्ष हुआ करता था। इस्लाम के लिए संघर्ष नहीं, लेकिन इस शब्द को इस्लाम के लिए संघर्ष बना दिया गया।
 
दूसरा क्रूसेड : 1144 में दूसरा धर्मयुद्ध फ्रांस के राजा लुई और जैंगी के गुलाम नूरुद्‍दीन के बीच हुआ। इसमें ईसाइयों को पराजय का सामना करना पड़ा। 1191 में तीसरे धर्मयुद्ध की कमान उस काल के पोप ने इंग्लैड के राजा रिचर्ड प्रथम को सौंप दी जबकि यरुशलम पर सलाउद्दीन ने कब्जा कर रखा था। इस युद्ध में भी ईसाइयों को बुरे दिन देखना पड़े। इन युद्धों ने जहां यहूदियों को दर-बदर कर दिया, वहीं ईसाइयों के लिए भी कोई जगह नहीं छोड़ी।
 
लेकिन इस जंग में एक बात की समानता हमेशा बनी रही कि यहूदियों को अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए अपने देश को छोड़कर लगातार दरबदर रहना पड़ा जबकि उनका साथ देने के लिए कोई दूसरा नहीं था। वह या तो मुस्लिम शासन के अंतर्गत रहते या ईसाइयों के शासन में रह रहे थे।
 
इसके बाद 11वीं शताब्दी के अंत में शुरू हुई यरुशलम सहित अन्य इलाकों पर कब्जे के लिए लड़ाई 200 साल तक चलती रही, ‍जबकि इसराइल और अरब के तमाम मुल्कों में ईसाई, यहूदी और मुसलमान अपने-अपने इलाकों और धार्मिक वर्चस्व के लिए जंग करते रहे। इस दौर में इस्लाम ने अपनी पूरी ताकत भारत में झोंक दी।
 
लगभग 600 साल के इस्लामिक शासन में इसराइल, ईरान, अफगानिस्तान, भारत, अफ्रीका आदि मुल्कों में इस्लाम स्थापित हो चुका था। लगातार जंग और दमन के चलते विश्व में इस्लाम एक बड़ी ताकत बन गया था। इस जंग में कई संस्कृतियों और दूसरे धर्म का अस्तित्व मिट चुका था।
 
17वीं सदी की शुरुआत में विश्व के उन बड़े मुल्कों से इस्लामिक शासन का अंत शुरू हुआ जहां इस्लाम थोपा जा रहा था। यह था अंग्रेजों का वह काल जब मुसलमानों से सत्ता छीनी जा रही थी। ऐसा सिर्फ भारत में ही नहीं हुआ। उसी दौरान अरब राष्ट्रों में पश्चिम के खिलाफ असंतोष पनपा और वह ईरान तथा सऊदी अरब के नेतृत्व में एक जुट होने लगे।
 
बहुत काल तक दुनिया चार भागों में बंटी रही, इस्लामिक शासन, चीनी शासन, ब्रिटेनी शासन और अन्य। फिर 19वीं सदी कई मुल्कों के लिए नए सवेरे की तरह शुरू हुई। कम्यूनिस्ट आंदोलन, आजादी के आंदोलन चले और सांस्कृतिक संघर्ष बढ़ा। इसके चलते ही 1939 द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ जिसके अंत ने दुनिया के कई मुल्कों को तोड़ दिया तो कई नए मुल्कों का जन्म हुआ।
 
द्वि‍तीय विश्व युद्ध में यहूदियों को अपनी खोई हुई भूमि इसराइल वापस मिली। यहां दुनिया भर से यहूदी‍ फिर से इकट्ठे होने लगे। इसके बाद उन्होंने मुसलमानों को वहां से खदेड़ना शुरू किया जिसके विरोध में फिलिस्तीन इलाके में यासेर अराफात का उदय हुआ। फिर से एक नई जंग की शुरुआत हुई। इसे नाम दिया गया फसाद और आतंक।
 
इस जंग का स्वरूप बदलता रहा और आज इसने मक्का, मदीना और यरुशलम से निकलकर व्यापक रूप धारण कर लिया है। इसके बाद शीतयुद्ध और उसके बाद सोवियत संघ के विघटन से इस्लाम की एक नई कहानी लिखी गई 'आतंक की दास्तां'। इस दौर में मुस्लिम युवाओं ने ओसामा के नेतृत्व में आतंक का पाठ पढ़ा।
 
यहूदी और मुस्लिम धर्म में 99 प्रतिशत समानता है। कहना चाहिए कि इस्लाम 99 प्रतिशत यहूदी धर्म है। इस्लाम दरअसल यहूदी और मुशरिक मान्यताओं का मिश्रण है। इनमें जो भी अच्छी बातें थी वह सब इस्लाम ने ग्रहण ‍की। इस्लाम की एक ईश्वर की परिकल्पना, खतना, बुतपरस्ती का विरोध, नमाज, हज, रोजा, जकात, सूदखोरी का विरोध, कयामत, कोशर (हराम-हलाल), पवित्र दिन (सब्बाब), उम्माह जैसी सभी बातें यहूदी धर्म से ली गई हैं। पवित्र भूमि, धार्मिक ग्रंथ, अंजील, हदीस और ताल्मुद की कल्पना एक ही है। इस्लाम में आदम, हव्वा, इब्राहीम, नूह, दावूद, इसाक, इस्माइल, इल्यास, सोलोमन आदि सभी ऐतिहासिक और मिथकीय पात्र यहूदी परंपरा के हैं।
 
यरुशलम के लिए जारी है जंग : यरुशलम में लगभग 1204 सिनेगॉग, 158 गिरजें, 73 मस्जिदें, बहुत सी प्राचीन कब्रें, 2 म्‍यूजियम और एक अभयारण्य है। दरअसल यह पवित्र शहर यहूदियों, मुसलमानों और ईसाइयों के लिए बहुत महत्व रखता है। यहीं पर तीनों धर्मों के पवित्र टेंपल हैं और तीनों ही धर्म के लोग इस पर अपना अधिकार चाहते हैं।
 
यरुशलम के मुस्लिम इलाके में स्थित 35 एकड़ क्षेत्रफल में फैले नोबेल अभयारण्य में ही अल अक्सा मस्जिद है जो मुसलमानों के लिए मदीना, काबा के बाद तीसरा पवित्र स्थान है, क्योंकि इसी स्थान से हजरत मुहम्मद स्वर्ग गए थे।

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