आत्‍मा एव इदं सर्वम्

।।ॐ।। अयम् आत्‍मा ब्रह्म ।।- बृहदारण्‍यक उपनि‍षद् 2-5-19
भावार्थ : यह आत्‍मा ही ब्रह्म है। ब्रह्म स्वरूप होने और ब्रह्म में से ही प्रस्फुटित होने के कारण आत्मा को भी ब्रह्म (ईश्वर) तुल्य माना गया है।
श्लोक : ।। 'नैनं छिदंति शस्त्राणी, नैनं दहति पावक। न चैनं क्लेदयां तापो, नैनं शोशयति मारूतः।।'-कृष्‍ण
भावार्थ : अर्थात आत्मा वो है जिसे किसी भी शस्त्र से भेदा नहीं जा सकता, जिसे कोई भी आग जला नहीं सकती, कोई भी दु:ख उसे तपा नहीं सकता और न ही कोई वायु उसे बहा सकती है।
 
आत्मा को रूह, सोल, जीव या जीवात्मा भी कहा जाता है। कुछ लोग आत्मा के लिए भूत, प्रेत या इसी तरह के अन्य शब्दों का इस्तेमाल करते हैं।
 
निराकार है आत्मा : 
हिन्दू सनातन धर्म के अनुसार संपूर्ण दृष्यमान और परिवर्तनशील जगत का आधार अभौतिक व अदृश्य आत्मा है, जो सनातन और अजर-अमर है। हिंदू धर्म अनुसार प्रत्येक पदार्थ में आत्मा का वास होता है। आत्मा स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए शरीर धारण करता है। शरीर में आत्मा है, इसका पता उसके मृत या जीवित होने से चलता है। आत्मा का ना जन्म है और ना ही मृत्यु। जन्म-मृत्यु तो शरीर का गुण है। आत्मा अजर और अमर है।
 
हिन्दू सनातन धर्म के अनुसार आत्मा निराकार है अर्थात दृश्य और आकारों से अलग। पदार्थ या परमाणु से भी अलग। आत्मा के होने को विज्ञान द्वारा प्रमाणित नहीं किया जा सका है। आत्मा को इंद्रियों या यंत्रों से नहीं जाना जा सका है। शायद यह आगे भी संभव न हो। आत्मा का ना प्रारंभ है और ना ही अंत।
 
आत्मा की स्थिति :
आत्मा तीन तरह की अवस्था में गिरकर स्वयं को असहाय महसूस करता है। पदार्थ से बद्ध आत्मा की तीन अवस्थाएँ हैं- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। उक्त अवस्थाएँ शरीर में रहकर ही महसूस होती है। इन्हीं में विचार और भाव के जंजाल चलते हैं, जिसके कारण सुख और दुख उत्पन्न होता है। सतत निर्विचार का अभ्यास कर जो जीवन पर्यंत होशपूर्वक जिता है उसे मोक्ष प्राप्त हो जाता है। जिन्हें मोक्ष प्राप्त हो जाता है वे तुर्यावस्था में रहते हैं। और जो यूँ ही मर जाते हैं वे दूसरे शरीर के धारण करने तक गहन सुषुप्ति की अवस्था में रहते हैं।
 
जन्म-मरण का चक्र :
श्लोक : ।।वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरो पराणि। शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।-गीता
भावार्थ : जीर्ण वस्त्र को जैसे तजकर नव परिधान ग्रहण करते हैं वैसे ही जर्जर तन को तजकर आत्मा नया शरीर धारण करता है।
 
आत्मा अपने विचार, भाव और कर्म अनुसार शरीर धारण करता है। अच्छे कर्म से अच्छे की और बुरे से बुरे की उत्पत्ति होती है। जन्म-मरण का सांसारिक चक्र लाखों योनियों में चलता रहता है जो तभी खत्म होता है जब व्यक्ति को मोक्ष मिलता है। उसके बाद आत्मा अपने वास्तविक शुद्ध स्वभाव को पा लेती है। इस शुद्ध स्वभाव को सत्-चित्-आनन्द तुल्य कहते हैं।
 
पुनश्च: जड़, प्राण, मन, विचार और अन्य सभी से परे है आत्मा, लेकिन उक्त सभी को वह कुछ समय के लिए धारण करता है फिर छोड़ देता है धारण करने और छोड़ने का चक्र तब तक चलता रहता है जब तक कि आत्मा मोक्ष ज्ञान प्राप्त न कर ले।
 
तुम्हें और मुझे ही आत्मा कहा जाता है। तुम्हारे और हमारे ही नाम रखे जाते हैं। जब हम शरीर छोड़ देते हैं तो कुछ लोग तुम्हें या मुझे भूतात्मा मान लेते हैं और कुछ लोग कहते हैं कि उक्त आत्मा का स्वर्गवास हो गया। 'मैं हूँ' यह बोध ही हमें आत्मवान बनाता है ऐसा वेद, गीता और पुराणों में लिखा है।
 
''न तो यह शरीर तुम्हारा है और न ही तुम इस शरीर के हो। यह शरीर पाँच तत्वों से बना है- अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश। एक दिन यह शरीर इन्हीं पाँच तत्वों में विलीन हो जाएगा।''- गीता
 
श्लोक : ।।आत्‍मा एव इदं सर्वम्।।- छान्‍दोग्‍य उपनि‍षद् 7-25-2
भावार्थ : यह आत्‍मा ही सब कुछ है। अर्थात समस्त वस्तु, विचार, भाव और सिद्धांतों से बढ़कर आत्मा है। आत्मा को जानने से ही परमात्मा जाना जा सकता है। यही सनातन धर्म का सत्य है।- - अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

वेबदुनिया पर पढ़ें