इन रूपवती अप्सराओं के कामुक कारनामों से बदल गया स्वर्ग और धरती का इतिहास

अनिरुद्ध जोशी
वेद और पुराणों में उल्लेख मिलता है अप्सरा सबसे सुंदर और जादुई शक्तियों से संपन्न होती थीं। यह गंधर्व लोक में रहती थीं। ये देवलोक में नृत्य और संगीत के माध्यम से देवताओं का मनोरंजन करती थीं। देवराज इन्द्र ने सिंहासन की रक्षा के लिए अनेक बार संत-तपस्वियों के कठोर तप को भंग करने के लिए अप्सराओं का इस्तेमाल किया है। अप्सराओं के ऐसे इस्तेमाल के चलते धरती पर अप्सरा से उत्पन्न लोगों का वंश चला। आओ जानते हैं कैसे अप्सराओं ने मनुष्य जाति का इतिहास बदल कर रख दिया।
 
 
रम्भा : प्रमुख 11 अप्सराओं में प्रधान अप्सरा रंभा के कई कारनामें हैं। रम्भा अपने रूप और सौन्दर्य के लिए तीनों लोकों में प्रसिद्ध थी। यही कारण था कि हर कोई उसे हासिल करना चाहता था। रामायण काल में यक्षराज कुबेर के पुत्र नलकुबेर की पत्नी के रूप में इसका उल्लेख मिलता है। रावण ने रम्भा के साथ बलात्कार करने का प्रयास किया था जिसके चलते रम्भा ने उसे शाप दिया था कि 'जा, जब भी तू तुझे न चाहने वाली स्त्री से संभोग करेगा, तब तुझे अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा।'
 
 
माना जाता है कि इसी शाप के भय से रावण ने सीताहरण के बाद सीता को छुआ तक नहीं था।..'महाभारत' में इसे तुरुंब नाम के गंधर्व की पत्नी बताया गया है। स्वर्ग में अर्जुन के स्वागत के लिए रम्भा ने नृत्य किया था। उस वक्त उर्वशी भी थीं जो अर्जुन पर मोहित हो गई थी।
 
 
एक बार विश्वामित्र की घोर तपस्या से विचलित होकर इंद्र ने रंभा को बुलवाकर विश्वामित्र का तप भंग करने के लिए भेजा लेकिन ऋषि इन्द्र का षड्यंत्र समझ गए और उन्होंने रंभा को हजार वर्षों तक शिला बनकर रहने का शाप दे डाला। सवाल यह उठता है कि अपराध को इंद्र ने किया था फिर सजा रंभा को क्यों मिली? हालांकि वाल्मीकि रामायण की एक कथा के अनुसार एक ब्राह्मण द्वारा यह ऋषि के शाप से मुक्त हुई थीं। लेकिन स्कन्द पुराण के अनुसार इसके उद्धारक 'श्वेतमुनि' बताए गए हैं, जिनके छोड़े बाण से यह शिलारूप में कंमितीर्थ में गिरकर मुक्त हुई थीं।
 
 
उर्वशी : एक बार इन्द्र की सभा में उर्वशी के नृत्य के समय राजा पुरुरवा उसके प्रति आकृष्ट हो गए थे जिसके चलते उसकी ताल बिगड़ गई थी। इस अपराध के कारण इन्द्र ने रुष्ट होकर दोनों को मर्त्यलोक में रहने का शाप दे दिया था। मर्त्यलोक में पुरुरवा और उर्वशी कुछ शर्तों के साथ पति-पत्नी बनकर रहने लगे। दोनों के कई पुत्र हुए। इनके पुत्रों में से एक आयु के पुत्र नहुष हुए। नहुष के ययाति, संयाति, अयाति, अयति और ध्रुव प्रमुख पुत्र थे। इन्हीं में से ययाति के यदु, तुर्वसु, द्रुहु, अनु और पुरु हुए। यदु से यादव और पुरु से पौरव हुए। पुरु के वंश में ही आगे चलकर कुरु हुए और कुरु से ही कौरव हुए। भीष्म पितामह कुरुवंशी ही थे।
 
 
यही उर्वशी एक बार इन्द्र की सभा में अर्जुन को देखकर आकर्षित हो गई थी और इसने इन्द्र से प्रणय-निवेदन किया था, लेकिन अर्जुन ने कहा- 'हे देवी! हमारे पूर्वज ने आपसे विवाह करके हमारे वंश का गौरव बढ़ाया था अतः पुरु वंश की जननी होने के नाते आप हमारी माता के तुल्य हैं...।' अर्जुन की ऐसी बातें सुनकर उर्वशी ने कहा- 'तुमने नपुंसकों जैसे वचन कहे हैं अतः मैं तुम्हें शाप देती हूं कि तुम 1 वर्ष तक पुंसत्वहीन रहोगे।'.. इस तरह उर्वशी के संबंध में सैकड़ों कथाएं पुराणों में मिलती हैं।
 
 
मेनका : मेनका ने अपने रूप और सौंदर्य से तपस्या में लीन विश्वामित्र का तप भंग कर दिया। विश्वामित्र सब कुछ छोड़कर मेनका के ही प्रेम में डूब गए। मेनका से विश्वामित्र ने विवाह कर लिया और मेनका से विश्वामित्र को एक सुन्दर कन्या प्राप्त हुई जिसका नाम शकुंतला रखा गया। शकुंतला छोटी ही थी, तभी एक दिन मेनका उसे और विश्वामित्र को छोड़कर फिर से इंद्रलोक चली गई। इसी पुत्री का आगे चलकर सम्राट दुष्यंत से प्रेम विवाह हुआ, जिनसे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। यही पुत्र राजा भरत थे।
 
 
मरुद्गणों की कृपा से ही भरत को भारद्वाज नामक पुत्र मिला। भारद्वाज महान ऋषि थे। चक्रवर्ती राजा भरत के चरित का उल्लेख महाभारत के आदिपर्व में भी है। इसी भरत के कुल में राजा कुरु हुआ और उनसे कौरव वंश की स्थापना हुई। कुरु के वंश में शान्तनु का जन्म हुआ। शान्तनु ने गंगा और सत्यवती से विवाह किया था। इसके मतलब यह कि उर्वशी के वंश को ही बाद में मेनका ने आगे बढ़ाया।
 
 
पुंजिकस्थला : एक ओर जहां उर्वशी और मेनका ने पुरुरवा के वंश को आगे बढ़ाया था वहीं पुंजिकस्थला ने वानर वंश को नया आयाम दिया था। माता अंजनी से हनुमान के जन्म की कथा तो सबने सुनी है लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं आता अंजनी इंद्र के दरबार में पुंजिकस्थला नामक एक अप्सरा थीं। पुजिंकास्थला ने तपस्या करते एक तेजस्वी ऋषि के साथ अभद्रता कर दी। गुस्से में आकर ऋषि ने पुंजिकस्थला को श्राप दे दिया कि जा तू वानर की तरह स्वभाव वाली वानरी बन जा, ऋषि के श्राप को सुनकर पुंजिकस्थला ऋषि से क्षमा याचना मांगने लगी, तब ऋषि ने दया दिखाई और कहा कि तुम्हारा वह रूप भी परम तेजस्वी होगा। तुमसे एक ऐसे पुत्र का जन्म होगा जिसकी कीर्ति और यश से तुम्हारा नाम युगों-युगों तक अमर हो जाएगा, इस तरह अंजनि को वीर पुत्र का आशीर्वाद मिला।
 
 
इस शाप के बाद जिकस्थला धरती पर चली गई और वहां एक शिकारन के रूप में रहने लगी। वहीं उनकी मुलाकात केसरी से हुई और दोनों में प्रेम हो गया। दोनों ने विवाह किया। केसरी और अंजना ने विवाह कर लिया पर संतान सुख से वंचित थे। तब मतंग ऋषि की आज्ञा से अंजना ने तप किया। तब वायु देवता ने अंजना की तपस्या से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया, कि तुम्हारे यहां सूर्य, अग्नि एवं सुवर्ण के समान तेजस्वी, वेद-वेदांगों का मर्मज्ञ, विश्वन्द्य महाबली पुत्र होगा। पवनदेव की कृपा से पुंजिकस्थला को एक पुत्र मिला जिसका नाम आंजनेय रखा गया जो आगे चलकर बजरंगबी और हनुमान के नाम से प्रसिद्ध हुए।
 
 
तिलोत्तमा : तिलोत्तमा स्वर्ग की परम सुंदर अप्सरा थीं। तिलोत्तमा की कई कथाएं पुराणों में मिलती है उन्हीं में से एक कथा यह है कि हिरण्यकशिपु के वंश में निकुंभ नामक एक असुर उत्पन्न हुआ था, जिसके सुन्द और उपसुन्द नामक दो पराक्रमी पुत्र थे। उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उनसे वर मांगने को कहा। दोनों असुरों ने ब्रह्माजी से अमरत्व का वर मांगा लेकिन ब्रह्माजी ने इसे देने से इनकार कर दिया।
 
 
ऐसे में दोनों भाइयों ने आपस में विचार विमर्श किया। दोनों ने सोचा कि वे हम दोनों में बहुत प्रेम है और हम आपस में कभी लड़ते नहीं है। उनको पूर्ण विश्वास था कि वे कभी भी एक दूसरे के खिलाफ कुछ भी नहीं करेंगे। इसीलिए यही सोचकर उन्होंने ब्रह्माजी से कहा कि उन्हें यह वरदान मिले कि एक-दूसरे को छोड़कर इस त्रिलोक में उन्हें कोई भी नहीं मार सके। ब्रह्मा ने कहा- तथास्तु।
 
 
बस फिर क्या था दोनों भाइयों सुन्द और उपसुन्द ने त्रिलोक्य में अत्याचारों करने शुरू कर दिए जिसके चलते सभी ओर हाहाकार मच गया। ऐसी विकट स्थिति जानकर ब्रह्मा ने दोनों भाइयों को आपस में लड़वाने के लिए तिलोत्तमा नाम की अप्सरा की सृष्टि की। ब्रह्मा से आज्ञा पाकर तिलोत्तमा ने सुन्न और उपसुन्द के निवास स्थान विन्ध्य पर्वत की ओर प्रस्थान किया। एक दिन तिलोत्तमा को दोनों भाइयों ने टहलते हुए और गाते हुए देखा और दोनों ही उसे देखकर सुधबुध खो बैठे। जब उन्होंने सुध संभाली तब सुन्द ने उपसुन्द से कहा कि यह अप्सरा आज से मेरी पत्नी हुई। यह सुनते ही उपसुन्द भड़क गया और उसने कहा नहीं तुम अकेले ही यह निर्णय कैसे ले सकते हो। पहले इसे मैंने देखा है अत: यह मेरी अर्धांगिनी बनेगी।
 
 
बस फिर क्या था। दोनों ही भाई जो बचपन से ही एक दूसरे के लिए जान देने के लिए तैयार रहते थे अब वे एक दूसरे की जान लेने के लिए लड़ने लगे। बहुत समय तक उनमें लड़ाई चली और अंतत: वे एक दूसरे के हाथों मारे गए।... उल्लेखनीय है कि दुर्वासा ऋषि के शाप से यही तिलोत्तमा बाण की पुत्री हुई थी। अष्टावक्र ने भी इसे शाप दिया था।
 
 
घृताची अप्सरा : घृताची प्रसिद्ध अप्सरा थीं। कहते हैं कि एक बार भरद्वाज ऋषि की अपस्या भंग करने के लिए इंद्र से इसे भेजा था। भारद्वाज गंगा स्नान कर अपने आश्रम की ओर लौट रहे थे। तभी उनकी नजर घृताची पर पड़ी जो नदी से स्नान कर बाहर निकल रही थी। भीगे वस्त्रों में उसके कामुक तन और भरे पूरे अंगों को देखकर भारद्वाज मुनी वहीं रुक गए। उन्होंने अपने नेत्रों को बंद कर खुद को निरंत्रण करने का प्रयास किया लेकिन ऐसा करने में वे असफल रहे। आंखें खोलकर वे उसके रूप और सौंदर्य को निहारने लगे। कामवासना से पीड़ित भारद्वाज का देखते ही देखते वीर्यपात हो गया था। तभी वीर्य को उन्होंने एक द्रोणि (मिट्टी का बर्तन) में रख दिया जिससे द्रोणाचार्य का जन्म हुआ था।
 
 
पौराणिक कथा अनुसार यह कश्यप ऋषि तथा प्राधा की पुत्री थीं। पौराणिक मान्यता के अनुसार घृताची ने कई पुरुषों के साथ समागम किया था। कहते हैं कि विश्वकर्मा से भी घृताची के पुत्र हुए थे। रुद्राश्व से घृताची को दस पुत्र और दस पुत्रियां उत्पन्न हुई थीं। कन्नौज के नरेश कुशनाभ ने इसके गर्भ से सौ कन्याएं उत्पन्न की थीं। महर्षि च्यवन के पुत्र प्रमिति ने घृताची के गर्भ से रूरू नामक पुत्र उत्पन्न किया था। घृताची की खूबसूरत काया को निहारने मात्र से वेदव्‍यास ऋषि कामाशक्‍त हो गए थे जिसके चलते शुकदेव उत्‍पन्‍न हुए।
 
 
इस तरह हमने देखा कि किस तरह अप्सराओं के मादक जाल में फंसकर ऋषियों ने अपना तप छोड़कर संसार में अपने वंश की वृद्धि की। इसी तरह से उपरोक्त अप्सराओं के और भी कई करनामें हैं। इसके अलावा निम्नलिखित अप्सराओं ने भी धरती पर आकर मनुष्य जाति को अपने जाल में फंसाकर कई पुत्र और पुत्रियों को जन्म दिया। कहते हैं कि मनुष्य की आधी आबादी इन्हीं की संतानें हैं।
 
 
अन्य अप्सराएं : कृतस्थली, प्रम्लोचा, अनुम्लोचा, वर्चा, पूर्वचित्ति, अम्बिका, अलम्वुषा, अनावद्या, अनुचना, अरुणा, असिता, बुदबुदा, चन्द्रज्योत्सना, देवी, घृताची, गुनमुख्या, गुनुवरा, हर्षा, इन्द्रलक्ष्मी, काम्या, कर्णिका, केशिनी, क्षेमा, लता, लक्ष्मना, मनोरमा, मारिची, मिश्रास्थला, मृगाक्षी, नाभिदर्शना, पूर्वचिट्टी, पुष्पदेहा, रक्षिता, ऋतुशला, साहजन्या, समीची, सौरभेदी, शारद्वती, शुचिका, सोमी, सुवाहु, सुगंधा, सुप्रिया, सुरजा, सुरसा, सुराता, उमलोचा, शशि, कांचन माला, कुंडला हारिणी, रत्नमाला, भू‍षणि आदि।

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