द्वापर के बाद भगवान कृष्ण पुरी में निवास करने लगे और बन गए जग के नाथ अर्थात जगन्नाथ। पुरी का जगन्नाथ धाम चार धामों में से एक है। यहां भगवान जगन्नाथ बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ विराजते हैं। आओ जानते हैं बलभद्र और सुभद्रा के बारे में कुछ खास।
बलभद्र : बलभद्र को बलराम, दाऊ और बलदाऊ भी कहते हैं। बलवानों में श्रेष्ठ होने के कारण उन्हें बलभद्र भी कहा जाता है। कृष्ण को विष्णु तो बलराम को शेषनाग का अवतार माना जाता है। कहते हैं कि जब कंस ने देवकी-वसुदेव के छ: पुत्रों को मार डाला, तब देवकी के गर्भ में भगवान बलराम पधारे। योगमाया ने उन्हें आकर्षित करके नन्द बाबा के यहां निवास कर रही श्री रोहिणीजी के गर्भ में पहुंचा दिया। इसलिए उनका एक नाम संकर्षण पड़ा। श्रीकृष्ण और बलराम की माताएं अलग अलग हैं लेकिन पिता एक ही हैं।
बलराम जी का विवाह रेवती से हुआ था। इनके नाम से मथुरा में दाऊजी का प्रसिद्ध मंदिर है। जगन्नाथ की रथयात्रा में इनका भी एक रथ होता है। यह गदा धारण करते हैं। बलरामजी ने दुर्योधन और भीम दोनों को ही गदा सिखाई थी। उनके लिए कौरव और पांडव दोनों ही समान थे इसलिए उन्होंने युद्ध में भाग नहीं लिया था। मौसुल युद्ध में यदुवंश के संहार के बाद बलराम ने समुद्र तट पर आसन लगाकर देह त्याग दी थी।
सुभद्रा : योगमाया के अलावा सुभद्रा भी श्रीकृष्ण की बहन थीं। बलराम चाहते थे कि सुभद्रा का विवाह कौरव कुल में हो लेकिन बलराम के हठ के चलते कृष्ण ने सुभद्रा का अर्जुन के हाथों हरण करवा दिया था। बाद में द्वारका में सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह विधिपूर्वक संपन्न हुआ। विवाह के बाद वे एक वर्ष तक द्वारका में रहे और शेष समय पुष्कर क्षेत्र में व्यतीत किया। 12 वर्ष पूरे होने पर वे सुभद्रा के साथ इंदप्रस्थ लौट आए।
जगन्नाथ में तीनों की एक साथ मूर्ति कैसे बनी?
इस संबंध में एक जन प्रचलित कथा है कि एक बार श्रीकृष्ण अचानक नींद में राधे-राधे कहने लगे तो श्रीकृष्ण की आठों पत्नियां चौंक गई और सोचने लगे कि भगवान अभी तक राधा को नहीं भले हैं। सभी ने मिलकर माता रोहिणी से इस संबंध मैं विचार किया और उनसे राधा और कृष्ण की रासलीला के बारे में कथा सुनाने का आग्रह किया।
हठ करने के बाद माता रोहिणी ने कहा कि ठीक है सुनो लेकिन पहले सुभद्रा को द्वार पर पहरे पर बिठा तो ताकि कोई भीतर प्रवेश न कर पाए फिर वह चाहे बलराम हो या कृष्ण। सुभद्रा पहरा देने लगी और भीत माता रोहिणी आठों भार्या को कृष्ण और राधा की कथा सुनाने लगी।
उसी दौरान बलराम और श्रीकृष्ण द्वार पर पहुंच जाते हैं। द्वार पर ही खड़ी सुभद्रा भी यह कथा बड़े ध्यान से सुन रही थी। श्रीकृष्ण और बलराम के आने पर सुभद्रा ने उचित कारण बता कर दरवाजे पर ही उन्हें रोक लिया। महल के अंदर से श्रीकृष्ण और राधा की रासलीला की कथा श्रीकृष्ण और बलराम दोनों को ही सुनाई दे रही थी। तीनों ही उस कथा को भाव विह्वल होकर सुनने लगे। तीनों की ही ऐसी अवस्था हो गई कि पूरे ध्यान से देखने पर भी किसी के भी हाथ-पैर आदि स्पष्ट नहीं दिखाई देते थे। तभी वहां अकस्मात देवऋषि नारद आ धमके। उन्होंने दे तीनों को ऐसी अवस्था देखी तो वे देखते ही रह गए। तीनों पूर्ण चेतना में वापस लौटे। नारद जी ने भगवान कृष्ण से प्रार्थना की कि हे भगवान आप तीनों के जिस महाभाव में लीन मूर्तिस्थ रूप के मैंने दर्शन किए हैं, वह सामान्य जनों के दर्शन हेतु पृथ्वी पर सदैव सुशोभित रहे। प्रभु ने तथास्तु कह दिया। कहते हैं कि तभी से भगवान कृष्ण, बलराम और सुभद्र जी का वही स्वरूप आज भी जगन्नाथपुरी में विद्यमान है। उसे सर्व प्रथम स्वयं विश्वकर्मा जी ने बनाया था।