महाभारत की ये 10 रहस्यमय विचित्र कथाएं

वेदव्यास की महाभारत को बेशक मौलिक माना जाता है, लेकिन कहते हैं कि वह 3 चरणों में लिखी गई। पहले चरण में 8,800 श्लोक, दूसरे चरण में 24 हजार और तीसरे चरण में 1 लाख श्लोक लिखे गए। वेदव्यास की महाभारत के अलावा भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पुणे की संस्कृत महाभारत सबसे प्रामाणिक मानी जाती है।
अंग्रेजी में संपूर्ण महाभारत दो बार अनूदित की गई थी। पहला अनुवाद 1883-1896 के बीच किसारी मोहन गांगुली ने किया था और दूसरा मनमंथनाथ दत्त ने 1895 से 1905 के बीच। 100 साल बाद डॉ. देबरॉय तीसरी बार संपूर्ण महाभारत का अंग्रेजी में अनुवाद कर रहे हैं।
 
प्रत्येक के घर में महाभारत होना चाहिए। महाभारत को ‘पंचम वेद’ कहा गया है। यह ग्रंथ भारत देश के मन-प्राण में बसा हुआ है। यह भारत की राष्ट्रीय गाथा है। इस ग्रंथ में तत्कालीन भारत (आर्यावर्त) का समग्र इतिहास वर्णित है। अपने आदर्श स्त्री-पुरुषों के चरित्रों से भारत के जन-जीवन को यह प्रभावित करता रहा है। इसमें सैकड़ों पात्रों, स्थानों, घटनाओं तथा विचित्रताओं व विडंबनाओं का वर्णन है।
 
महाभारत में कई घटना, संबंध और ज्ञान-विज्ञान के रहस्य छिपे हुए हैं। महाभारत का हर पात्र जीवंत है, चाहे वह कौरव, पांडव, कर्ण और कृष्ण हो या धृष्टद्युम्न, शल्य, शिखंडी और कृपाचार्य हो। महाभारत सिर्फ योद्धाओं की गाथाओं तक सीमित नहीं है। महाभारत से जुड़े शाप, वचन और आशीर्वाद में भी रहस्य छिपे हैं।
 
दरअसल, महाभारत की कहानी युद्ध के बाद समाप्त नहीं होती है। असल में महाभारत की कहानी तो युद्ध के बाद शुरू होती है, जो आज भी जारी है। जानकार जानते हैं कि वर्तमान युग महाभारत की ही देन है। खैर, हम आपको बताएंगे महाभारत के पात्रों की ऐसी विचित्र कहानी जिनके बारे में आप शायद ही जानते होंगे। ये कहानियां हमने महाभारत से अलग दूसरे ग्रंथों से भी संग्रहीत की हैं। 
 
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पांडु की कथा : महाभारत के आदिपर्व के अनुसार एक दिन राजा पांडु आखेट के लिए निकलते हैं। जंगल में दूर से देखने पर उनको एक हिरण दिखाई देता है। वे उसे एक तीर से मार देते हैं। वह हिरण एक ऋषि निकलते हैं तो अपनी पत्नी के साथ मैथुनरत थे। वे ऋषि मरते वक्त पांडु को शाप देते हैं कि तुम भी मेरी तरह मरोगे, जब तुम मैथुनरत रहोगे। इस शाप के भय से पांडु अपना राज्य अपने भाई धृतराष्ट्र को सौंपकर अपनी पत्नियों कुंती और माद्री के साथ जंगल चले जाते हैं।
 
जंगल में वे संन्यासियों का जीवन जीने लगते हैं, लेकिन पांडु इस बात से दुखी रहते हैं कि उनकी कोई संतान नहीं है और वे कुंती को समझाने का प्रयत्न करते हैं कि उसे किसी ऋषि के साथ समागम करके संतान उत्पन्न करनी चाहिए। कुंती पर-पुरुष के साथ नहीं सोना चाहती तो पांडु उसे यह कथा सुनाते हैं।
 
प्राचीनकाल में स्त्रियां स्वतंत्र थीं और वे जिसके साथ चाहें उसके साथ समागम कर सकती थीं, जैसे पशु-पक्षी करते हैं। केवल ऋतुकाल में पत्नी केवल पति के साथ समागम कर सकती है अन्यथा वह स्वतंत्र है। यही धर्म था, जो नारियों का पक्ष करता था और सभी इसका पालन करते थे।
 
एक उद्दालक नाम के प्रसिद्ध मुनि थे जिनका श्वेतकेतु नाम का एक पुत्र था। एक बार जब श्वेतकेतु अपने माता-पिता के साथ बैठे थे, एक ब्राह्मण आया और श्वेतकेतु की मां का हाथ पकड़कर बोला, 'आओ चलें।' अपनी मां को इस तरह जाते हुए देख कर श्वेतकेतु बहुत क्रुद्ध हुए किंतु पिता ने उनको समझाया कि नियम के अनुसार स्त्रियां गायों की तरह स्वतंत्र हैं जिस किसी के भी साथ समागम करने के लिए। इन्हीं श्वेतकेतु के द्वारा फिर यह नियम बनाया गया कि स्त्रियों को पति के प्रति वफादार होना चाहिए और पर-पुरुष के साथ समागम करने का पाप भ्रूणहत्या की तरह होगा।
 
पांडु और भी कथाएं सुनाते हैं और कुंती को विश्वास दिला देते हैं कि पर-पुरुष के साथ संतान पैदा करने से उन्हें पाप नहीं लगेगा।
 
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एक रहस्यमयी व्यक्ति शिखंडी :‍ शिखंडी का नाम सभी ने सुना होगा। शिखंडी को उसके पिता द्रुपद ने पुरुष की तरह पाला था तो स्वाभाविक है कि उसका विवाह किसी स्त्री से ही किया जाना चाहिए। ऐसा ही हुआ लेकिन शिखंडी की पत्नी को इस वास्तविकता का पता चला तो वह शिखंडी को छोड़ अपने पिता के घर चली गई। क्रोधित पिता ने द्रुपद के विनाश की चेतावनी दे दी।
 
हताश शिखंडी जंगल में जाकर आत्महत्या करने लगा तभी एक यक्ष ने वहां उपस्थित होकर उसकी स्थिति पर दया करते हुए रातभर के लिए अपना लिंग उसे दे दिया ताकि वह अपना पुरुषत्व सिद्ध कर सके। हालांकि यक्ष की इस हरकत से यक्षपति कुबेर नाराज हो गए और उन्होंने उस यक्ष को शाप दे दिया कि शिखंडी के जीते-जी उसे अपना लिंग वापस नहीं मिल पाएगा। यही शिखंडी महाभारत में भीष्म के घायल होने और अंततः उनकी मृत्यु का कारण बना। 
 
दरअसल, शिखंडी पिछले जन्म में अंबा नामक राजकुमारी था जिसका दो बहनों के साथ भीष्म ने अपहरण कर लिया था। भीष्म इन बहनों की शादी शारीरिक रूप से अक्षम अपने अनुज विचित्रवीर्य से करना चाहते थे। अंबा ने भीष्म को बताया कि उसका प्रेमी है और प्रार्थना की कि उसे मुक्त कर दें। भीष्म ने उसे मुक्त कर दिया लेकिन उसके प्रेमी ने उसे अपनाने से मना कर दिया और उसे वापस विचित्रवीर्य के पास लौटना पड़ा, लेकिन विचित्रवीर्य ने भी उसे अस्वीकार कर दिया। तब अंबा ने भीष्म के सामने विवाह का निवेदन रखा, लेकिन उन्होंने तो आजीवन ब्रह्मचारी रहने व्रत लिया हुआ था।
 
अंतत: अंबा ने परशुराम से न्याय की गुहार की। परशुराम ने भीष्म से युद्ध किया लेकिन परशुराम को निराशा ही हाथ लगी। तब निराश अंबा ने शिव की आराधना की और यह वरदान मांगा कि इच्छामृत्यु का वर पाए भीष्म की मृत्यु का कारण वह बने। शिव ने कहा कि यह अगले जन्म में ही संभव हो सकेगा। अंबा तब मृत्यु को वरण कर लेती है।
 
यह अंबा ही शिखंडी के रूप में जन्म लेती है। इसी शिखंडी को कृष्ण ने अपने रथ पर आसीन किया और अर्जुन के साथ भीष्म के सामने ला खड़ा किया। भीष्म ने कृष्ण पर युद्ध धर्म के विरुद्ध आचरण करने का आरोप लगाते हुए एक स्त्री पर वार करने से मना कर अपना धनुष नीचे रख दिया।
 
कृष्ण ने भीष्म को उत्तर दिया कि आपने हमेशा ही अपने द्वारा निर्धारित मानदंडों पर निर्णय लिया है और धर्म की अवहेलना की है। आज भी उन्हीं मानदंडों पर वे शिखंडी को स्त्री बता रहे हैं जिसका पालन उसके पिता ने पुरुष की तरह किया है और उसके पास यक्ष का दिया हुआ पुरुष-लिंग भी है। भीष्म ने फिर भी युद्ध करने से मना कर दिया जिस पर कृष्ण ने शिखंडी और अर्जुन को ललकारा कि वे भीष्म पर वार करें ताकि भेदभाव पर आदृत उनकी मान्यताओं की जगह समावेश को महत्व देने वाले धर्म की स्थापना हो सके।
 
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शरशैया पर लेटे भीष्म : भीष्म को इच्छामृत्यु प्राप्त थी। जब बाणों से उनका शरीर छेद दिया गया तब भी उन्होंने देह का त्याग नहीं किया। महाभारत के अनुसार सूर्य जब तक उत्तरायन नहीं हुआ, तब तक वे इसी तरह शरशैया पर लेटे रहे। युद्ध समाप्ति के बाद भी उन्होंने कई दिनों तक शरीर नहीं छोड़ा था। प्रतिदिन उनसे बचे हुए योद्धा, कृष्ण और पांडव आदि प्रवचन सुनने आते थे।
 
एक दिन युद्धोपरांत भीष्म के मृत्युवरण से पूर्व पांडव उनका आशीर्वाद लेने गए। बातचीत में युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह, पुरुष और स्त्री में किसे अधिक यौन सुख प्राप्त होता है? संतान द्वारा माता और पिता कहे जाने से माता और पिता में किसे अधिक कर्णप्रिय लगता है? भीष्म ने उत्तर दिया- राजा भंगाश्वन के अतिरिक्त इन प्रश्नों का उत्तर कोई नहीं जानता। उनकी अनेक-अनेक पत्नियां और संतानें थीं। इंद्र के श्राप से वह स्त्री बन गया और उसने एक पुरुष से शादी कर संतानों को भी जन्म दिया। इस प्रकार उसके ज्ञान में पति और पत्नी तथा माता और पिता का अनुभव है। वही तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर देने में सक्षम है। 
 
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क्या मारे गए थे अर्जुन : अर्जुन के 3 पुत्र थे। द्रौपदी से जन्मे अर्जुन के पुत्र का नाम श्रुतकर्मा था। द्रौपदी के अलावा अर्जुन की सुभद्रा, उलूपी और चित्रांगदा नामक तीन और पत्नियां थीं। सुभद्रा से अभिमन्यु, उलूपी से इरावन, चित्रांगदा से बभ्रुवाहन नामक पुत्रों का जन्म हुआ। चित्रांगदा का वभ्रुवाहन महाभारत के युद्ध में लड़ा था। कहते हैं कि अपने ही पुत्र द्वारा अर्जुन  मारे गए। यह कैसे हुआ इसके पीछे भी एक कथा है।
 
 
महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद एक दिन महर्षि वेदव्यास और श्रीकृष्ण के कहने पर पांडवों ने अश्वमेध यज्ञ करने का विचार किया। पांडवों ने शुभ मुहूर्त देखकर यज्ञ का शुभारंभ किया और अर्जुन को रक्षक बना कर घोड़ा छोड़ दिया। वह घोड़ा जहां भी जाता, अर्जुन उसके पीछे जाते। अनेक राजाओं ने पांडवों की अधीनता स्वीकार कर ली वहीं कुछ ने मैत्रीपूर्ण संबंधों के आधार पर पांडवों को कर देने की बात मान ली।
 
 
वह घोड़ा घुमते घुमते मणिपुर जा पहुंचा। मणिपुर नरेश बभ्रुवाहन ने जब सुना कि मेरे पिता आए हैं, तब वह गणमान्य नागरिकों के साथ बहुत सा धन साथ में लेकर बड़ी विनय के साथ उनके दर्शन के लिए नगर सीमा पर पहुंचा। मणिपुर नरेश को इस प्रकार आया देख अर्जुन ने धर्म का आश्रय लेकर उसका आदर नहीं किया। उस समय अर्जुन कुछ कुपित होकर बोले, बेटा! तेरा यह ढंग ठीक नहीं है। जान पड़ता है, तू क्षत्रिय धर्म से बहिष्‍कृत हो गया है। पुत्र! मैं महाराज युधिष्‍ठिर के यज्ञ संबंधी अश्व की रक्षा करता हुआ तेरे राज्‍य के भीतर आया हूं। फिर भी तू मुझसे युद्ध क्‍यों नहीं करता? क्षत्रियों का धर्म है युद्ध करना।
 
 
अर्जुन ने क्रोधित होकर कहा, तुझ दुर्बुद्धि को धिक्‍कार है, तू निश्‍चय ही क्षत्रिय धर्म से भ्रष्‍ट हो गया है, तभी तो एक स्‍त्री की भांति तू यहां युद्ध के लिऋ आए हुए मुझे शान्‍तिपूर्वक साथ लेने के लिए चेष्‍टा कर रहा है।..इस तरह अर्जुन ने अपने पुत्र को बहुत खरीखोटी सुनाई।
 
 
उस समय अर्जुन की पत्नी नागकन्‍या उलूपी भी उस वार्तालाप को सुन रही थी। तब मनोहर अंगों वाली नागकन्‍या उलूपी धर्म निपुण बभ्रुवाहन के पास आकर यह धर्मसम्‍मत बात बोली- बेटा तुम्‍हें विदित होना चाहिए कि मैं तुम्‍हारी विमाता नागकन्‍या उलूपी हूं। तुम मेरी आज्ञा का पालन करो। इससे तुम्‍हें महान धर्म की प्राप्‍ति होगी। तुम्‍हारे पिता कुरुकुल के श्रेष्‍ठ वीर और युद्ध के मद से उन्‍मत्त रहने वाले हैं। अत: इनके साथ अवश्‍य युद्ध करो। ऐसा करने से ये तुम पर प्रसन्‍न होंगे। इसमें संशय नहीं है। यह सुनकर वभ्रुवाहन ने अपने पिता अर्जुन से युद्ध करने का निश्‍चिय की। तब अर्जुन और बभ्रुवाहन के बीच घोर युद्ध हुआ। 
 
 
कहते हैं कि इस युद्ध में युद्ध में बभ्रुवाहन मूर्छित हो गए थे और अर्जुन मारे गए थे। अर्जुन के मारे जाने का समाचार सुनकर युद्ध भूमि में अर्जुन की पत्नी चित्रांगदा पहुंचकर विलाप करने लगी। वह उलूपी से कहने लगी तुम्हारी ही आज्ञा से मेरे पुत्र बभ्रुवाहन ने अपने पिता से युद्ध किया। चित्रांगदा ने रोते हुए उलूपी से कहा कि तुम धर्म की जानकार हो बहिन में तुमसे अर्जुन के प्राणों की भीख मांगती हूं। चित्रांगदा ने उलूपी को कठोर और विनम्र दोनों ही तरह के वचन कहे। अंत में उसने कहा तुम्ही ने बेरे बेटो को लड़कार उनकी जान ली है। मेरा बेटा भले ही मारा जाए लेकिन तुम अर्जुन को जीवित करो। अन्यथा मैं भी अपने प्राण त्याग दूंगी।
 
 
तभी मूर्छित बभ्रुवाहन को होश आ गया और उसने देखा की उसकी मां अर्जुन के पास बैठकर विलाप कर रही है और विमाता उलूपी भी पास ही खड़ी है। बभ्रुवाहन अपने पिता अर्जुन के समक्ष बैठकर विलाप करने लगा और प्राण लिया कि अब मैं भी इस रणभूमि पर आमरण अनशन कर अपनी देह त्याग दूंगा। 
 
 
पुत्र और मां के विलाप को देख-सुनकर उलूपी का हृदय भी पसीज गया और उसने संजीवन मणिका का स्मरण किया। नागों के जीवन की आधारभूत मणि उसके स्मरण करते ही वहां आ गई। तब उन्होंने बभ्रुवाहन से कहा बेटा उठो शोक मत करो। अर्जुन तुम्हारे द्वारा परास्त नहीं हुए हैं। ये मनुष्यमात्र के लिए अजेय हैं। लो, यह दिव्य मणि अपने स्पर्श से सदा मरे हुए सर्पों को जीवित किया करती है। इसे अपने पिता की छाती पर रख दो। इसके स्पर्श होते ही वे जीवित हो जाएंगे। बभ्रुवाहन ने ऐसा ही किया। अर्जुन देरतक सोने के बाद जागे हुए मनुष्य की भांति जीवित हो उठे। फिर उन्होंने अश्वमेघ का घोड़ा अर्जुन को लौटा दिया। और अपनी माताओं चित्रांगदा और उलूपी के साथ युधिष्ठिर के अश्वमेघ यज्ञ में शामिल हुए।
 
 
कैसे मिली अर्जुन को उलूपी?
अर्जुन की चौथी पत्नी का नाम जलपरी नागकन्या उलूपी था। उन्हीं ने अर्जुन को जल में हानिरहित रहने का वरदान दिया था। महाभारत युद्ध में अपने गुरु भीष्म पितामह को मारने के बाद ब्रह्मा-पुत्र से शापित होने के बाद उलूपी ने ही अर्जुन को शापमुक्त भी किया था और अपने सौतेले पुत्र बभ्रुवाहन के हाथों मारे जाने पर उलूपी ने ही अर्जुन को पुनर्जीवित भी कर दिया था। विष्णु पुराण के अनुसार अर्जुन से उलूपी ने इरावन नामक पुत्र को जन्म दिया। इसी इरावन को भारत के सभी हिजड़े अपना देवता मानते हैं। उलूपी अर्जुन के सदेह स्वगारोहण के समय तक उनके साथ थी।
 
 
माना जाता है कि द्रौपदी, जो पांचों पांडवों की पत्नी थीं, 1-1 साल के समय-अंतराल के लिए हर पांडव के साथ रहती थी। उस समय किसी दूसरे पांडव को द्रौपदी के आवास में घुसने की अनुमति नहीं थी। इस नियम को तोड़ने वाले को 1 साल तक देश से बाहर रहने का दंड था।
 
 
अर्जुन और द्रौपदी की 1 वर्ष की अवधि अभी-अभी समाप्त हुई थी और द्रौपदी-युधिष्ठिर के साथ का एक वर्ष का समय शुरू हुआ था। अर्जुन भूलवश द्रौपदी के आवास पर ही अपना तीर-धनुष भूल आए। पर किसी दुष्ट से ब्राह्मण के पशुओं की रक्षा के लिए लिए उन्हें उसी समय इसकी जरूरत पड़ी अत: क्षत्रिय धर्म का पालन करने के लिए तीर-धनुष लेने के लिए नियम तोड़ते हुए वह द्रौपदी के निवास में घुस गए। बाद में इसके दंडस्वरूप वे 1 साल के लिए राज्य से बाहर चले गए। इसी दौरान अर्जुन की मुलाकात उलूपी से हुई और वह अर्जुन पर मोहित हो गईं। दोनों ने विवाह किया और एक वर्ष तक साथ रहने के बाद अर्जुन पुन: अपने राज्य लौट आए।

 
 
अगले पन्ने पर पांचवीं विचित्र कथा...

विचित्र जन्मकथाएं : धृतराष्ट्र, पाण्डु, विदुर, द्रौपदी, धृष्टद्युम्न, कृपाचार्य, कृपि, द्रोणाचार्य के अलावा कौरवों, पांडवों और कर्ण की जन्मकथाएं भी विचित्र ही कही जाएंगी। एक ओर जहां कुंती ने देवताओं का आह्वान कर कर्ण सहित 4 पुत्रों को जन्म दिया वहीं माद्री ने भी अश्विन कुमारों का आह्वान कर नकुल और सहदेव को जन्म दिया। दूसरी ओर गांधारी के 99 पुत्रों की जन्मकथाएं भी रोचक हैं जिन्हें एक कुंभ में जन्म लेना पड़ा, जो बाद में कौरव कहलाए।
 
विचित्रवीर्य की 2 पत्नियां अम्बिका और अम्बालिका थीं। दोनों को कोई पुत्र नहीं हो रहा था तो सत्यवती के पुत्र वेदव्यास माता की आज्ञा मानकर बोले, 'माता! आप उन दोनों रानियों से कह दीजिए कि वे मेरे सामने से निर्वस्त्र होकर गुजरें जिससे कि उनको गर्भ धारण होगा।'
 
सबसे पहले बड़ी रानी अम्बिका और फिर छोटी रानी अम्बालिका गई, पर अम्बिका ने उनके तेज से डरकर अपने नेत्र बंद कर लिए जबकि अम्बालिका वेदव्यास को देखकर भय से पीली पड़ गई। वेदव्यास  लौटकर माता से बोले, 'माता अम्बिका को बड़ा तेजस्वी पुत्र होगा किंतु नेत्र बंद करने के दोष के कारण वह अंधा होगा जबकि अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पुत्र पैदा होगा।'
 
यह जानकर के माता सत्यवती ने बड़ी रानी अम्बिका को पुनः वेदव्यास के पास जाने का आदेश दिया। इस बार बड़ी रानी ने स्वयं न जाकर अपनी दासी को वेदव्यास के पास भेज दिया। दासी बिना किसी संकोच के वेदव्यास के सामने से गुजरी। इस बार वेदव्यास ने माता सत्यवती के पास आकर कहा, 'माते! इस दासी के गर्भ से वेद-वेदांत में पारंगत अत्यंत नीतिवान पुत्र उत्पन्न होगा।' इतना कहकर वेदव्यास तपस्या करने चले गए। अब आप सोचिए इन्हीं 2 पुत्रों में से एक धृतराष्ट्र के यहां जब कोई पुत्र नहीं हुआ तो वेदव्यास की कृपा से ही 99 पुत्र और 1 पुत्री का जन्म हुआ।
 
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क्यों जीवित हैं अश्वत्थामा? : महाभारत के युद्ध में अश्वत्‍थामा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया था जिसके चलते लाखों लोग मारे गए थे। अश्वत्थामा के इस कृत्य से कृष्ण क्रोधित हो गए थे और उन्होंने अश्वत्थामा को शाप दिया था कि 'तू इतने वधों का पाप ढोता हुआ 3,000 वर्ष तक निर्जन स्थानों में भटकेगा। तेरे शरीर से सदैव रक्त की दुर्गंध नि:सृत होती रहेगी। तू अनेक रोगों से पीड़ित रहेगा।' व्यास ने श्रीकृष्ण के वचनों का अनुमोदन किया।
 
कहते हैं कि अश्वत्‍थामा इस शाप के बाद रेगिस्तानी इलाके में चला गया था और वहां रहने लगा था। कुछ लोग मानते हैं कि वह अरब चला गया था। उत्तरप्रदेश में प्रचलित मान्यता अनुसार अरब में उसने कृष्ण और पांडवों के धर्म को नष्ट करने की प्रतिज्ञा ली थी। हालांकि भारत में लोग दावा करते हैं कि अमुक जगहों पर अश्वत्थामा आता रहता है, लेकिन अब तक इसकी सचाई की पुष्टि नहीं हुई है। यदि हम यह मानें कि उनको मात्र 3,000 वर्षों तक जिंदा रहने का ही शाप था, तो फिर वे अब तक मर चुके होंगे, क्योंकि महाभारत युद्ध को हुए 3,000 वर्ष कभी के हो चुके हैं। लेकिन यदि उनको कलिकाल के अंत तक भटकने का शाप दिया गया था तो...
 
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गंगा और शांतनु- क्या उम्र रही होगी दोनों के बीच? : महाभारत आदिपर्व में उल्लेख है कि वैशंपायनजी जन्मेजय को कथाक्रम में बताते हैं कि इक्ष्वाकु वंश में महाभिष नामक राजा थे। उन्होंने अश्वमेध और राजसूय यज्ञ करके स्वर्ग प्राप्त किया। एक दिन सभी देवता आदि ब्रह्माजी की सेवा में उपस्थित हुए। वायु ने श्रीगंगाजी के वस्त्र को उनके शरीर से खिसका दिया। तब सबों ने आंखें नीची कर लीं, किंतु महाभिष उन्हें देखते रहे। तब ब्रह्माजी ने उनसे कहा कि तुम मृत्युलोक जाओ। जिस गंगा को तुम देखते रहे हो, वह तुम्हारा अप्रिय करेगी। इस प्रकार उनका जन्म प्रतीक के पुत्र शांतनु के रूप में हुआ।
 
प्रतापी राजा प्रतीप के बाद उनके पुत्र शांतनु हस्तिनापुर के राजा हुए। पुत्र की कामना से शांतनु के पिता महाराजा प्रतीप गंगा के किनारे तपस्या कर रहे थे। उनके तप, रूप और सौंदर्य पर मोहित होकर गंगा उनकी दाहिनी जंघा पर आकर बैठ गईं और कहने लगीं, 'राजन! मैं आपसे विवाह करना चाहती हूं। मैं जह्नु ऋषि की पुत्री गंगा हूं।'
 
इस पर राजा प्रतीप ने कहा, 'गंगे! तुम मेरी दाहिनी जंघा पर बैठी हो, जबकि पत्नी को तो वामांगी होना चाहिए, दाहिनी जंघा तो पुत्र का प्रतीक है अतः मैं तुम्हें अपने पुत्रवधू के रूप में स्वीकार कर सकता हूं।' यह सुनकर गंगा वहां से चली गईं।'
 
जब महाराज प्रतीप को पुत्र की प्राप्ति हुई तो उन्होंने उसका नाम शांतनु रखा और इसी शांतनु से गंगा का विवाह हुआ। गंगा से उन्हें 8 पुत्र मिले जिसमें से 7 को गंगा नदी में बहा दिया गया और 8वें पुत्र को पाला-पोसा। उनके 8वें पुत्र का नाम देवव्रत था। यह देवव्रत ही आगे चलकर भीष्म कहलाया।
 
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महान योद्धा बर्बरीक और घटोत्कच : बर्बरीक महान पांडव भीम के पुत्र घटोत्कच और नागकन्या अहिलवती के पुत्र थे। कहीं-कहीं पर मुर दैत्य की पुत्री 'कामकंटकटा' के उदर से भी इनके जन्म होने की बात कही गई है। बर्बरीक और घटोत्कच के बारे में कहा जाता है कि ये दोनों ही विशालकाय मानव थे। घटोत्कच ने कौरवों की सेना में कोहराम मचा दिया था। आखिरकार कर्ण ने उस अस्त्र का उपयोग किया जिसे वे अर्जुन पर चलाना चाहते थे और घटोत्कच मारा गया।
 
महाभारत का युद्ध जब तय हो गया तो बर्बरीक ने भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा व्यक्त की और मां को हारे हुए पक्ष का साथ देने का वचन दिया। बर्बरीक अपने नीले रंग के घोड़े पर सवार होकर 3 बाण और धनुष के साथ कुरुक्षेत्र की रणभूमि की ओर अग्रसर हुए।
 
बर्बरीक के लिए 3 बाण ही काफी थे जिसके बल पर वे कौरव और पांडवों की पूरी सेना को समाप्त कर सकते थे। यह जानकर भगवान कृष्ण ने ब्राह्मण के वेश में उनके सामने उपस्थित होकर उनसे दान में छलपूर्वक उनका शीश मांग लिया।
 
बर्बरीक ने कृष्ण से प्रार्थना की कि वे अंत तक युद्ध देखना चाहते हैं, तब कृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। फाल्गुन मास की द्वादशी को उन्होंने अपने शीश का दान दिया। भगवान ने उस शीश को अमृत से सींचकर सबसे ऊंची जगह पर रख दिया ताकि वे महाभारत युद्ध देख सकें। उनका सिर युद्धभूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर रख दिया गया, जहां से बर्बरीक संपूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे।
 
दूसरी ओर घटोत्कच ने कौरवों की सेना में कोहराम मचा दिया था। वह इतना विशालकाय था कि एक रथ को लात मारकर कई मीटर पीछे धकेल देता था। वह अपने पैरों से ही कुछ सैनिकों को कुचलकर मार देता था। कहते हैं इसी तरह के विशालकाय मानव एक समय ब्रह्माजी ने राक्षसों के उत्पात को शांत करने के लिए बनाए थे। बाद में वे ही मानव राक्षस प्रवृत्ति के बन बैठे, तब भगवान शंकर ने उन सभी को नष्ट कर दिया।
 
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इंद्र का छल : भगवान कृष्ण यह भली-भांति जानते थे कि जब तक कर्ण के पास उसका कवच और कुंडल हैं, तब तक उसे कोई नहीं मार सकता। ऐसे में अर्जुन की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं। उधर देवराज इन्द्र भी चिंतित थे, क्योंकि अर्जुन उनका पुत्र था। भगवान कृष्ण और देवराज इन्द्र दोनों जानते थे कि जब तक कर्ण के पास पैदायशी कवच और कुंडल हैं, वह युद्ध में अजेय रहेगा।
 
तब कृष्ण ने देवराज इन्द्र को एक उपाय बताया और फिर देवराज इन्द्र एक ब्राह्मण के वेश में पहुंच गए कर्ण के द्वार। देवराज भी सभी के साथ लाइन में खड़े हो गए। कर्ण सभी को कुछ न कुछ दान देते जा रहे थे। बाद में जब देवराज का नंबर आया तो दानी कर्ण ने पूछा- विप्रवर, आज्ञा कीजिए! किस वस्तु की अभिलाषा लेकर आए हैं? तब देवराज इंद्र ने छल से उनके कवच और कुंडल दान में ले लिए थे।
 
अगले पन्ने पर दसवीं विचित्र कथा...
 

क्या ऐसा हुआ था? तमिलनाडु के एक गांव में हर वर्ष अर्जुन पुत्र अरवण की मृत्यु का शोक मनाने के लिए किन्नर समाज के लोग एकत्रित होते हैं। किन्नरों के इस पर्व को 'अरवणी' कहा जाता है। कथा है कि अर्जुन और उनकी पत्नी उलूपी का पुत्र अरवण था जिसकी बलि चढ़ाकर ही पांडव महाभारत के युद्ध में विजयी हो सकते थे।
 
अरवण ने बलि से पहले शर्त रख दी कि उसकी शादी कर दी जाए लेकिन कोई स्त्री ऐसे व्यक्ति से शादी के लिए तैयार नहीं हो सकती थी जिसकी मृत्यु निश्चित थी। अंततः कृष्ण ने स्वयं मोहिनी रूप धारण कर उससे शादी की और सुहागरात मनाई। सुबह बलि के बाद मोहिनीरूपी कृष्ण ने विधवा के रूप में विलाप भी किया था। हे न विचित्र कथा! लेकिन इस कथा की सच्चाई के बारे में हम नहीं जानते।
 
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श्रीकृष्ण ने जीवित कर दिया था इन्हें : भगवान कृष्ण ने महाभारत युद्ध के दौरान अर्जुन को गीता का उपदेश दिया। अर्जुन इन्द्र के पुत्र थे लेकिन कहलाते थे पांडु पुत्र। उनकी माता का नाम कुंती था। कुंती पांडु की ज्येष्ठ पत्नी वासुदेव कृष्ण की बुआ थीं।
 
अर्जुन कुंती के तीसरे पुत्र थे, जो देवताओं के राजा इन्द्र से हुए। प्रत्येक काल में अलग-अलग इन्द्र हुए हैं। अर्जुन द्रोणाचार्य के प्रिय शिष्य और कृष्ण के प्रिय मित्र थे। स्वयंवर में द्रौपदी को जीतने वाले लक्ष्यभेदी के रूप में तो अर्जुन की ख्याति है ही, द्रौपदी भी अर्जुन की पत्नी थी।
 
अर्जुन के पुत्र : कुरु जनपद के राजा अर्जुन की 4 पत्नियां थीं- द्रौपदी, सुभद्रा, उलूपी और चित्रांगदा। द्रौपदी से श्रुतकर्मा और सुभद्रा से अभिमन्यु, उलूपी से इरावत, चित्रांगदा से वभ्रुवाहन नामक पुत्रों की प्राप्ति हुई।
 
अभिमन्यु का विवाह महाराज विराट की पुत्री उत्तरा से हुआ। महाभारत युद्ध में अभिमन्यु वीरगति को प्राप्त हुए। जब महाभारत का युद्ध चल रहा था, तब उत्तरा गर्भवती थी। उसके पेट में अभिमन्यु का पुत्र पल रहा था। द्रोण पुत्र अश्वत्थामा ने यह संकल्प लेकर ब्रह्मास्त्र छोड़ा था कि पांडवों का वंश नष्ट हो जाए।
 
द्रोण पुत्र अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र प्रहार से उत्तरा ने मृत शिशु को जन्म दिया था किंतु भगवान श्रीकृष्ण ने अभिमन्यु/उत्तरा पुत्र को ब्रह्मास्त्र के प्रयोग के बाद भी फिर से जीवित कर दिया। यही बालक आगे चलकर राजा परीक्षित नाम से प्रसिद्ध हुआ। परीक्षित के प्रतापी पुत्र हुए जन्मेजय।
 
ऐसे कई उदाहरण हैं जबकि भगवान कृष्ण ने लोगों को फिर से जीवित कर दिया। भीम पुत्र घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक की गर्दन कटी होने के बावजूद श्रीकृष्ण ने उसे महाभारत युद्ध की समाप्ति तक जीवित रखा।

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