बाबा रामापीर के 5 चमत्कार...

अनिरुद्ध जोशी

मंगलवार, 25 अक्टूबर 2016 (14:38 IST)
भारत में पीर, बाबा और संतों के बहुत सारे स्थान हैं लेकिन 'पीरों के पीर रामापीर, बाबाओं के बाबा रामदेव बाबा' को सभी भक्त बाबारी कहते हैं। उनसे बड़ा संत इस अखंड भारत की भूमी पर दूसरा कोई नहीं। हालांकि संतों के बीच किसी भी प्रकार का भेद नहीं, लेकिन जो संत किसी संप्रदाय विशेष की ही भावना रखता हो वह संत नहीं हो सकता। भले ही वह कितना ही सिद्ध या चमत्कारिक हो।
बाबा रामदेवजी को हिन्दू रामदेवजी और मुस्लिम उन्हें रामसा पीर कहते हैं। मध्यकाल में जब अरब, तुर्क और ईरान के मुस्लिम शासकों द्वारा भारत में हिन्दुओं पर अत्याचार कर उनका धर्मांतरण किया जा रहा था, तो उस काल में हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए सैकड़ों चमत्कारिक सिद्ध, संतों और सूफी साधुओं का जन्म हुआ। उन्हीं में से एक हैं रामापीर।
 
बाबा रामदेव (1352-1385) : बाबा रामदेव को द्वारिका‍धीश (श्रीकृष्ण) का अवतार माना जाता है। इन्हें पीरों का पीर 'रामसा पीर' कहा जाता है। सबसे ज्यादा चमत्कारिक और सिद्ध पुरुषों में इनकी गणना की जाती है। हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक बाबा रामदेव के समाधि स्थल रुणिचा में मेला लगता है, जहां भारत और पाकिस्तान से लाखों की तादाद में लोग आते हैं। कुछ विद्वान मानते हैं कि विक्रम संवत 1409 (1352 ईस्वी सन्) को उडूकासमीर (बाड़मेर) में बाबा का जन्म हुआ था और विक्रम संवत 1442 में उन्होंने रुणिचा में जीवित समाधि ले ली। पिता का नाम अजमालजी तंवर, माता का नाम मैणादे, पत्नी का नाम नेतलदे, गुरु का नाम बालीनाथ, घोड़े का नाम लाली रा असवार था।
 
बाबा रामदेव ने छुआछूत के खिलाफ कार्य कर दलित हिन्दुओं का पक्ष ही नहीं लिया बल्कि उन्होंने हिन्दू और मुस्लिमों के बीच एकता और भाईचारे को बढ़ाकर शांति से रहने की शिक्षा भी दी। बाबा रामदेव पोकरण के शासक भी रहे, लेकिन उन्होंने राजा बनकर नहीं अपितु जनसेवक बनकर गरीबों, दलितों, असाध्य रोगग्रस्त रोगियों व जरूरतमंदों की सेवा भी की। इस बीच उन्होंने विदेशी आक्रांताओं से लोहा भी लिया। बाबा ने अपने जीवनकाल में लोगों की रक्षा और सेवा करने के लिए उनको कई चमत्कार दिखाए। आज भी बाबा अपनी समाधि पर साक्षात विराजमान हैं। आज भी वे अपने भक्तों को चमत्कार दिखाकर उनके होने का अहसास कराते रहते हैं। बाबा द्वारा चमत्कार दिखाने को परचा देना कहते हैं। बाबा रामदेव ने इस तरह 24 परचे दिए हैं, यहां प्रस्तु हैं 5 परचे...
 
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भैरव राक्षस : भैरव नाम के एक राक्षस ने पोकरण में आतंक मचा रखा था। प्रसिद्ध इतिहासकार मुंहता नैनसी के 'मारवाड़ रा परगना री विगत' नामक ग्रंथ में इस घटना का उल्लेख मिलता है।
 
भैरव राक्षस का आतंक पोखरण क्षेत्र में 36 कोष तक फैला हुआ था। यह राक्षस मानव की सुगं सूंघकर उसका वध कर देता था। बाबा के गुरु बालीनाथजी के तप से यह राक्षस डरता था, किंतु फिर भी इसने इस क्षेत्र को जीवरहित कर दिया था। अंत में बाबा रामदेवजी बालीनाथजी के धूणे में गुदड़ी में छुपकर बैठ गए। जब भैरव राक्षस आया और उसने गुदड़ी खींची तब अवतारी रामदेवजी को देखकर वह अपनी पीठ दिखाकर भागने लगा और कैलाश टेकरी के पास गुफा में जा घुसा। वहीं रामदेवजी ने घोड़े पर बैठकर उसका वध कर दिया था।
 
हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि उसने हार मानकर आत्मसमर्पण कर दिया था। बाद में बाबा की आज्ञा अनुसार वह मारवाड़ छोड़कर चला गया था।
 
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मक्का के पीर : कहते हैं कि चमत्कार होने से लोग गांव-गांव से रुणिचा आने लगे। यह बात रुणिचा और आसपास के गांव के मौलवियों को नहीं भाई। उन्हें लगा की इस्लाम खतरे में है। उनको लगा कि मुसलमान बने हिन्दू कहीं फिर से मुसलमान नहीं बन जाएं तो उन्होंने बाबा को नीचा दिखाने के लिए कई उपक्रम किए। जब उन पीरों और मौलवियों के प्रयास असफल हुए तब उन्होंने यह बात मक्का के मौलवियों और पीरों से कही। उन्होंने कहा कि भारत में एक ऐसा पीर पैदा हो गया है, जो अंधों की आंखें ठीक कर देता है, लंगड़ों को चलना सिखा देता है और यहां तक वह मरों को जिंदा भी कर देता है।
मक्का के मौलवियों ने इस पर विचार किया और फिर उन्होंने अपने पूज्य चमत्कारिक 5 पीरों को जब बाबा की ख्याति और उनके अलौकिक चमत्कार के बारे में बताया तो वे पांचों पीर भी बाबा की शक्ति को परखने के लिए उत्सुक हो गए। कुछ दिनों में वे पीर मक्का से चलकर रुणिचा के रास्ते पर जा पहुंचे।
 
रास्ते में भी बाबा रामदेव से उनकी मुलाकात हुई। पांचों पीरों ने रामदेवजी से पूछा कि हे भाई! रुणिचा यहां से कितनी दूर है? तब रामदेवजी ने कहा कि यह जो गांव सामने दिखाई दे रहा है वही तो रुणिचा है। क्या मैं आपके रुणिचा आने का कारण पूछ सकता हूं? तब उन पांचों में से एक पीर बोला कि हमें यहां रामदेवजी से मिलना है और उसकी पीराई देखनी है। जब रामदेवजी बोले हे पीरजी! मैं ही रामदेव हूं और आपके सामने खड़ा हूं, कहिए मेरे योग्य क्या सेवा है? पांचों पीर बाबा की बात सुनकर कुछ देर उनकी ओर देखते रहे फिर हंसने लगे और सोचने लगे कि साधारण-सा दिखाई देना वाला व्यक्ति ये पीर है क्या?
 
रामदेवजी बाबा ने उनकी आवभगत की और '‍अतिथि देवो भव:' की भावना से उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया। बाबा के घर जब पांचों पीरों के भोजन हेतु जाजम बिछाई गई, तकिए लगाए गए, पंखे लगाए गए और सेवा-सत्कार के सभी सामान सजाए गए, तब भोजन पर बैठते ही एक पीर बोला कि अरे, हम तो अपने खाने के कटोरे मक्का ही भूल आए हैं। हम तो अपने कटोरों में ही खाना खाते हैं, दूसरे के कटोरों में नहीं, यह हमारा प्रण है। अब हम क्या कर सकते हैं? आप यदि मक्का से वे कटोरे मंगवा सकते हैं तो मंगवा दीजिए, वर्ना हम आपके यहां भोजन नहीं कर सकते।
 
तब बाबा रामदेव ने उन्हें विनयपूर्वक कहा कि उनका भी प्रण है कि घर आए अतिथि को बिना भोजन कराए नहीं जाने देते। यदि आप अपने कटोरों में ही खाना चाहते हैं तो ऐसा ही होगा। इसके साथ ही बाबा ने अलौकिक चमत्कार दिखाया और जिस पीर का जो कटोरा था उसके सम्मुख रखा गया। इस चमत्कार (परचा) से वे पीर सकते में रह गए। जब पीरों ने पांचों कटोरे मक्का वाले देखे तो उन्हें अचंभा हुआ और मन में सोचने लगे कि मक्का कितना दूर है। ये कटोरे तो हम मक्का में छोड़कर आए थे। ये कटोरे यहां कैसे आए? तब उन पीरों ने कहा कि आप तो पीरों के पीर हैं।
 
पांचों पीरों ने कहा ‍कि आज से आपको दुनिया रामापीर के नाम से पूजेगी। इस तरह से पीरों ने भोजन किया और श्रीरामदेवजी को 'पीर' की पदवी मिली और रामदेवजी, रामापीर कहलाए।
 
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रानी नेतल  : एक बार रानी नेतलदे ने रंगमहल में रामदेवजी से पूछा- 'हे प्रभु! आप तो सिद्धपुरुष हैं, बताइए मेरे गर्भ में क्या है- पुत्र या पुत्री?' इस पर रामदेवजी ने कहा कि तुम्हारे गर्भ में पुत्र है और उसका नाम 'सादा' रखना है।

रानी का संशय दूर करने के लिए रामदेवजी ने अपने पुत्र को आवाज दी। इस पर अपनी माता के गर्भ से ही वह पु‍त्र बोल उठा। इस तरह उस शिशु ने अपने पिता के वचनों को सिद्ध कर दिया। 'साद' अर्थात आवाज के अर्थ से उनका नाम 'सादा' रखा गया। रामदेवरा से 25 किमी दूर ही उनके नाम से 'सादा' गांव बसा हुआ है।
 
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मेवाड़ के सेठ दलाजी : कहते हैं कि मेवाड़ के एक गांव में दलाजी नाम का एक महाजन रहता था।। धन-संपत्ति तो उसके पास खूब थी, लेकिन उसकी कोई संतान नहीं थी। किसी साधु के कहने पर वह रामदेवजी की पूजा करने लगा। उसने अपनी मनौती बोली कि यदि मुझे पुत्र प्राप्ति हो जाएगी तो सामर्थ्यानुसार एक मंदिर बनवाऊंगा।
इस मनौती के 9 माह पश्चात उसकी पत्नी के गर्भ से पुत्र का जन्म हुआ। वह बालक जब 5 वर्ष का हो गया तो सेठ और सेठानी उसे साथ लेकर कुछ धन-संपत्ति लेकर रुणिचा के लिए रवाना हो गए। मार्ग में एक लुटेरा भी उनके साथ यह कहकर हो लिया कि वह भी रुणिचा दर्शन के लिए जा रहा है। थोड़ी देर चलते ही रात हो गई और अवसर पाकर लुटेरे ने अपना वास्तविक स्वरूप प्रकट कर दिया। उसने कटार दिखाकर सेठ से ऊंट को बैठाने के लिए कहा और उसने सेठ की समस्त धन-संपत्ति हड़प ली। जाते-जाते वह सेठ की गर्दन भी काट गया। रात्रि में उस निर्जन वन में अपने बच्चे को साथ लिए सेठानी विलाप करती हुई रामदेवजी को पुकारने लगी।
 
अबला की पुकार सुनकर रामदेवजी अपने नीले घोड़े पर सवार होकर तत्काल वहां आ पहुंचे। आते ही रामदेवजी ने उस अबला से अपने पति का कटा हुआ सर गर्दन से जोड़ने को कहा। सेठानी ने जब ऐसा किया तो सर जुड़ गया और तत्क्षण दलाजी जीवित हो गया। बाबा का यह चमत्कार देख दोनों सेठ-सेठानी बाबा के चरणों में गिर पड़े। बाबा उनको 'सदा सुखमय' जीवन का आशीर्वाद देकर अंतर्ध्यान हो गए। बस उसी स्थल पर दलाजी ने बाबा का एक भव्य मंदिर बनवाया। कहते हैं कि यह बाबा की माया थी।
 
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सिरोही निवासी अंधा साधु : कहा जाता है कि एक अंधा साधु सिरोही से कुछ अन्य लोगों के साथ रुणिचा में बाबा के दर्शन करने के लिए निकला। सभी पैदल चलकर रुणिचा आ रहे थे। रास्ते में थक जाने के कारण अंधे साधु के साथ सभी लोग एक गांव में पहुंचकर रात्रि विश्राम करने के लिए रुक गए। आधी रात को जागकर सभी लोग अंधे साधु को वहीं छोड़कर चले गए।
जब अंधा साधु जागा तो वहां पर कोई नहीं मिला और इधर-उधर भटकने के पश्चात वह एक खेजड़ी के पास बैठकर रोने लगा। उसे अपने अंधेपन पर इतना दुःख हुआ जितना और कभी नहीं हुआ था। रामदेवजी अपने भक्त के दुःख से द्रवीभूत हो उठे और वे तुरंत ही उसके पास पहुंचे। उन्होंने उसके सिर पर हाथ रखकर उसके नेत्र खोल दिए और उसे दर्शन दिए। उस दिन के बाद वह साधु वहीं रहने लगा। उस खेजड़ी के पास रामदेवजी के चरण (पघलिए) स्थापित करके उनकी पोजा किया करता था। कहा जाता है वहीं पर उस साधु ने समाधि ली थी।

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