रामापीर : चमत्कारिक संत बाबा रामदेव के 5 परचे...

पाबू हडू रामदे ए मांगाळिया मेहा।
पांचू पीर पधारजौ ए गोगाजी जेहा।।

'पीरों के पीर रामापीर, बाबाओं के बाबा रामदेव बाबा' को सभी भक्त बाबारी कहते हैं। जहां भारत ने परमाणु विस्फोट किया था, वे वहां के शासक थे। हिन्दू उन्हें रामदेवजी और मुस्लिम उन्हें रामसा पीर कहते हैं। मध्यकाल में जब अरब, तुर्क और ईरान के मुस्लिम शासकों द्वारा भारत में हिन्दुओं पर अत्याचार कर उनका धर्मांतरण किया जा रहा था, तो उस काल में हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए सैकड़ों चमत्कारिक सिद्ध, संतों और सूफी साधुओं का जन्म हुआ। उन्हीं में से एक हैं रामापीर।


 

बाबा रामदेव (1352-1385) : बाबा रामदेव को द्वारिका‍धीश (श्रीकृष्ण) का अवतार माना जाता है। इन्हें पीरों का पीर 'रामसा पीर' कहा जाता है। सबसे ज्यादा चमत्कारिक और सिद्ध पुरुषों में इनकी गणना की जाती है। हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक बाबा रामदेव के समाधि स्थल रुणिचा में मेला लगता है, जहां भारत और पाकिस्तान से लाखों की तादाद में लोग आते हैं।

कुछ विद्वान मानते हैं कि विक्रम संवत 1409 (1352 ईस्वी सन्) को उडूकासमीर (बाड़मेर) में बाबा का जन्म हुआ था और विक्रम संवत 1442 में उन्होंने रुणिचा में जीवित समाधि ले ली। पिता का नाम अजमालजी तंवर, माता का नाम मैणादे, पत्नी का नाम नेतलदे, गुरु का नाम बालीनाथ, घोड़े का नाम लाली रा असवार था।

जन्म कथा : एक बार अनंगपाल तीर्थयात्रा को निकलते समय पृथ्वीराज चौहान को राजकाज सौंप गए। तीर्थयात्रा से लौटने के बाद पृथ्वीराज चौहान ने उन्हें राज्य पुनः सौंपने से इंकार कर दिया। अनंगपाल और उनके समर्थक दुखी हो जैसलमेर की शिव तहसील में बस गए। इन्हीं अनंगपाल के वंशजों में अजमल और मेणादे थे। नि:संतान अजमल दंपत्ति श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक थे। एक बार कुछ किसान खेत में बीज बोने जा रहे थे कि उन्हें अजमलजी रास्ते में मिल गए। किसानों ने नि:संतान अजमल को शकुन खराब होने की बात कहकर ताना दिया। दुखी अजमलजी ने भगवान श्रीकृष्ण के दरबार में अपनी व्यथा प्रस्तुत की। भगवान श्रीकृष्ण ने इस पर उन्हें आश्वस्त किया कि वे स्वयं उनके घर अवतार लेंगे। बाबा रामदेव के रूप में जन्मे श्रीकृष्ण पालने में खेलते अवतरित हुए और अपने चमत्कारों से लोगों की आस्था का केंद्र बनते गए।

दलितों के मसीहा : बाबा रामदेव ने छुआछूत के खिलाफ कार्य कर दलित हिन्दुओं का पक्ष ही नहीं लिया बल्कि उन्होंने हिन्दू और मुस्लिमों के बीच एकता और भाईचारे को बढ़ाकर शांति से रहने की शिक्षा भी दी। बाबा रामदेव पोकरण के शासक भी रहे, लेकिन उन्होंने राजा बनकर नहीं अपितु जनसेवक बनकर गरीबों, दलितों, असाध्य रोगग्रस्त रोगियों व जरूरतमंदों की सेवा भी की। इस बीच उन्होंने विदेशी आक्रांताओं से लोहा भी लिया।

डाली बाई : बाबा रामदेव जन्म से क्षत्रिय थे लेकिन उन्होंने डाली बाई नामक एक दलित कन्या को अपने घर बहन-बेटी की तरह रखकर पालन-पोषण कर समाज को यह संदेश दिया कि कोई छोटा या बड़ा नहीं होता। रामदेव बाबा को डाली बाई एक पेड़ के नीचे मिली थी। यह पेड़ मंदिर से 3 किमी दूर हाईवे के पास बताया गया है।

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क्या है परचा : बाबा ने अपने जीवनकाल में लोगों की रक्षा और सेवा करने के लिए उनको कई चमत्कार दिखाए। आज भी बाबा अपनी समाधि पर साक्षात विराजमान हैं। आज भी वे अपने भक्तों को चमत्कार दिखाकर उनके होने का अहसास कराते रहते हैं। बाबा द्वारा चमत्कार दिखाने को परचा देना कहते हैं। बाबा रामदेव ने इस तरह 24 परचे दिए हैं, यहां प्रस्तु हैं 5 परचे...

रामासापीर बाबा का पहला परचा...

भैरव राक्षस : भैरव नाम के एक राक्षस ने पोकरण में आतंक मचा रखा था। प्रसिद्ध इतिहासकार मुंहता नैनसी के 'मारवाड़ रा परगना री विगत' नामक ग्रंथ में इस घटना का उल्लेख मिलता है।

भैरव राक्षस का आतंक पोखरण क्षेत्र में 36 कोष तक फैला हुआ था। यह राक्षस मानव की सुगं सूंघकर उसका वध कर देता था। बाबा के गुरु बालीनाथजी के तप से यह राक्षस डरता था, किंतु फिर भी इसने इस क्षेत्र को जीवरहित कर दिया था। अंत में बाबा रामदेवजी बालीनाथजी के धूणे में गुदड़ी में छुपकर बैठ गए। जब भैरव राक्षस आया और उसने गुदड़ी खींची तब अवतारी रामदेवजी को देखकर वह अपनी पीठ दिखाकर भागने लगा और कैलाश टेकरी के पास गुफा में जा घुसा। वहीं रामदेवजी ने घोड़े पर बैठकर उसका वध कर दिया था।

हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि उसने हार मानकर आत्मसमर्पण कर दिया था। बाद में बाबा की आज्ञा अनुसार वह मारवाड़ छोड़कर चला गया था।

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मक्का के पीर : कहते हैं कि चमत्कार होने से लोग गांव-गांव से रुणिचा आने लगे। यह बात रुणिचा और आसपास के गांव के मौलवियों को नहीं भाई। उन्हें लगा की इस्लाम खतरे में है। उनको लगा कि मुसलमान बने हिन्दू कहीं फिर से मुसलमान नहीं बन जाएं तो उन्होंने बाबा को नीचा दिखाने के लिए कई उपक्रम किए। जब उन पीरों और मौलवियों के प्रयास असफल हुए तब उन्होंने यह बात मक्का के मौलवियों और पीरों से कही। उन्होंने कहा कि भारत में एक ऐसा पीर पैदा हो गया है, जो अंधों की आंखें ठीक कर देता है, लंगड़ों को चलना सिखा देता है और यहां तक वह मरों को जिंदा भी कर देता है।

मक्का के मौलवियों ने इस पर विचार किया और फिर उन्होंने अपने पूज्य चमत्कारिक 5 पीरों को जब बाबा की ख्याति और उनके अलौकिक चमत्कार के बारे में बताया तो वे पांचों पीर भी बाबा की शक्ति को परखने के लिए उत्सुक हो गए। कुछ दिनों में वे पीर मक्का से चलकर रुणिचा के रास्ते पर जा पहुंचे।

रास्ते में भी बाबा रामदेव से उनकी मुलाकात हुई। पांचों पीरों ने रामदेवजी से पूछा कि हे भाई! रुणिचा यहां से कितनी दूर है? तब रामदेवजी ने कहा कि यह जो गांव सामने दिखाई दे रहा है वही तो रुणिचा है। क्या मैं आपके रुणिचा आने का कारण पूछ सकता हूं? तब उन पांचों में से एक पीर बोला कि हमें यहां रामदेवजी से मिलना है और उसकी पीराई देखनी है। जब रामदेवजी बोले हे पीरजी! मैं ही रामदेव हूं और आपके सामने खड़ा हूं, कहिए मेरे योग्य क्या सेवा है? पांचों पीर बाबा की बात सुनकर कुछ देर उनकी ओर देखते रहे फिर हंसने लगे और सोचने लगे कि साधारण-सा दिखाई देना वाला व्यक्ति ये पीर है क्या?

रामदेवजी बाबा ने उनकी आवभगत की और '‍अतिथि देवो भव:' की भावना से उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया। बाबा के घर जब पांचों पीरों के भोजन हेतु जाजम बिछाई गई, तकिए लगाए गए, पंखे लगाए गए और सेवा-सत्कार के सभी सामान सजाए गए, तब भोजन पर बैठते ही एक पीर बोला कि अरे, हम तो अपने खाने के कटोरे मक्का ही भूल आए हैं। हम तो अपने कटोरों में ही खाना खाते हैं, दूसरे के कटोरों में नहीं, यह हमारा प्रण है। अब हम क्या कर सकते हैं? आप यदि मक्का से वे कटोरे मंगवा सकते हैं तो मंगवा दीजिए, वर्ना हम आपके यहां भोजन नहीं कर सकते।

तब बाबा रामदेव ने उन्हें विनयपूर्वक कहा कि उनका भी प्रण है कि घर आए अतिथि को बिना भोजन कराए नहीं जाने देते। यदि आप अपने कटोरों में ही खाना चाहते हैं तो ऐसा ही होगा। इसके साथ ही बाबा ने अलौकिक चमत्कार दिखाया और जिस पीर का जो कटोरा था उसके सम्मुख रखा गया। इस चमत्कार (परचा) से वे पीर सकते में रह गए। जब पीरों ने पांचों कटोरे मक्का वाले देखे तो उन्हें अचंभा हुआ और मन में सोचने लगे कि मक्का कितना दूर है। ये कटोरे तो हम मक्का में छोड़कर आए थे। ये कटोरे यहां कैसे आए? तब उन पीरों ने कहा कि आप तो पीरों के पीर हैं।

पांचों पीरों ने कहा ‍कि आज से आपको दुनिया रामापीर के नाम से पूजेगी। इस तरह से पीरों ने भोजन किया और श्रीरामदेवजी को 'पीर' की पदवी मिली और रामदेवजी, रामापीर कहलाए।

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रानी नेतल को परचा : एक बार रानी नेतलदे ने रंगमहल में रामदेवजी से पूछा- 'हे प्रभु! आप तो सिद्धपुरुष हैं, बताइए मेरे गर्भ में क्या है- पुत्र या पुत्री?' इस पर रामदेवजी ने कहा कि तुम्हारे गर्भ में पुत्र है और उसका नाम 'सादा' रखना है। रानी का संशय दूर करने के लिए रामदेवजी ने अपने पुत्र को आवाज दी। इस पर अपनी माता के गर्भ से ही वह पु‍त्र बोल उठा। इस तरह उस शिशु ने अपने पिता के वचनों को सिद्ध कर दिया। 'साद' अर्थात आवाज के अर्थ से उनका नाम 'सादा' रखा गया। रामदेवरा से 25 किमी दूर ही उनके नाम से 'सादा' गांव बसा हुआ है।

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मेवाड़ के सेठ दलाजी को परचा : कहते हैं कि मेवाड़ के एक गांव में दलाजी नाम का एक महाजन रहता था।। धन-संपत्ति तो उसके पास खूब थी, लेकिन उसकी कोई संतान नहीं थी। किसी साधु के कहने पर वह रामदेवजी की पूजा करने लगा। उसने अपनी मनौती बोली कि यदि मुझे पुत्र प्राप्ति हो जाएगी तो सामर्थ्यानुसार एक मंदिर बनवाऊंगा।

इस मनौती के 9 माह पश्चात उसकी पत्नी के गर्भ से पुत्र का जन्म हुआ। वह बालक जब 5 वर्ष का हो गया तो सेठ और सेठानी उसे साथ लेकर कुछ धन-संपत्ति लेकर रुणिचा के लिए रवाना हो गए। मार्ग में एक लुटेरा भी उनके साथ यह कहकर हो लिया कि वह भी रुणिचा दर्शन के लिए जा रहा है। थोड़ी देर चलते ही रात हो गई और अवसर पाकर लुटेरे ने अपना वास्तविक स्वरूप प्रकट कर दिया। उसने कटार दिखाकर सेठ से ऊंट को बैठाने के लिए कहा और उसने सेठ की समस्त धन-संपत्ति हड़प ली। जाते-जाते वह सेठ की गर्दन भी काट गया। रात्रि में उस निर्जन वन में अपने बच्चे को साथ लिए सेठानी विलाप करती हुई रामदेवजी को पुकारने लगी।

अबला की पुकार सुनकर रामदेवजी अपने नीले घोड़े पर सवार होकर तत्काल वहां आ पहुंचे। आते ही रामदेवजी ने उस अबला से अपने पति का कटा हुआ सर गर्दन से जोड़ने को कहा। सेठानी ने जब ऐसा किया तो सर जुड़ गया और तत्क्षण दलाजी जीवित हो गया। बाबा का यह चमत्कार देख दोनों सेठ-सेठानी बाबा के चरणों में गिर पड़े। बाबा उनको 'सदा सुखमय' जीवन का आशीर्वाद देकर अंतर्ध्यान हो गए। बस उसी स्थल पर दलाजी ने बाबा का एक भव्य मंदिर बनवाया। कहते हैं कि यह बाबा की माया थी।

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सिरोही निवासी एक अंधे साधु को परचा : कहा जाता है कि एक अंधा साधु सिरोही से कुछ अन्य लोगों के साथ रुणिचा में बाबा के दर्शन करने के लिए निकला। सभी पैदल चलकर रुणिचा आ रहे थे। रास्ते में थक जाने के कारण अंधे साधु के साथ सभी लोग एक गांव में पहुंचकर रात्रि विश्राम करने के लिए रुक गए। आधी रात को जागकर सभी लोग अंधे साधु को वहीं छोड़कर चले गए।

जब अंधा साधु जागा तो वहां पर कोई नहीं मिला और इधर-उधर भटकने के पश्चात वह एक खेजड़ी के पास बैठकर रोने लगा। उसे अपने अंधेपन पर इतना दुःख हुआ जितना और कभी नहीं हुआ था। रामदेवजी अपने भक्त के दुःख से द्रवीभूत हो उठे और वे तुरंत ही उसके पास पहुंचे। उन्होंने उसके सिर पर हाथ रखकर उसके नेत्र खोल दिए और उसे दर्शन दिए। उस दिन के बाद वह साधु वहीं रहने लगा। उस खेजड़ी के पास रामदेवजी के चरण (पघलिए) स्थापित करके उनकी पोजा किया करता था। कहा जाता है वहीं पर उस साधु ने समाधि ली थी।

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पंच पीपल : बाबा रामदेवजी के समाधि स्थल रामदेवरा से 12 किलोमीटर स्थित एक पांच पीपलों से युक्त पेड़ है। बाबा रामदेवजी के 24 परचों में से एक इस परचे का जुड़ाव प्रसिद्धस्‍थल पंच पिपली से भी है। इसी संबंध में माना जाता है कि रामदेवजी की परीक्षा के लिए मक्‍का-मदीना से पांच पीर रामदेवरा आए और रामदेवजी के अतिथि बने। जब भोजन का समय आया तो उन्‍होंने अपने स्‍वयं के कटोरे के अलावा भोजन न ग्रहण कर पाने का प्रण दोहराया तो बाबा ने अपनी दाईं भुजा को इतना लंबा बढ़ाया कि वहीं बैठे-बैठे मक्‍का-मदीना से उनके कटोरे वहीं मंगवा दिए, पीरों ने उसी समय उन्‍हें अपना गुरु (पीर) माना और वहीं से रामदेवजी का नाम रामसा पीर पड़ा और बाबा को 'पीरो के पीर रामसापीर' की उपाधि भी प्रदान की थी।

रामदेवरा से पूर्व की ओर एकां गांव के पास एक छोटी-सी नाडी के पाल पर घटित इस वाकिये के दौरान पीरों ने भी परचे स्‍वरूप 5 पीपली लगाई थी, जो आज भी वहां पर विद्यमान है। यह रामदेवरा से 12 किलोमीटर दूर एकां गांव में स्थित है। यहां पर बाबा रामदेव का एक छोटा-सा मंदिर एवं सरोवर भी है।

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राम सरोवर : पश्चिम राजस्‍थान में पेयजल संकट को देखते हुए रामदेवजी ने विक्रम संवत् 1439 में एक तालाब खुदवाया जिसे आज उनके नाम से 'रामसरोवर' कहा जाता है। बाबा रामदेव मंदिर के पीछे की तरफ रामसरोवर तालाब है। यह लगभग 150 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है एवं 25 फुट गहरा है। बारिश से पूरा भरने पर यह सरोवर बहुत ही रमणीय स्थल बन जाता है।

इसके पश्चिम छोर पर अद्भुत आश्रम व पाल के उत्तरी सिरे पर बाबा रामदेवजी की जीवित समाधि है। पाल के इसी हिस्‍से में भक्‍त शिरोमणि डाली बाई की भी जीवित समाधि है।

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परचा बावड़ी : परचा बावड़ी मंदिर के पास ही स्थित है। इस बावड़ी का निर्माण मिती फाल्‍गुन सुदी तृतीया वार बुधवार विक्रम संवत् 1897 को संपूर्ण हुआ था। माना जाता है कि इस बावड़ी का निर्माण बाबा रामदेवजी के आदेशानुसार बाणिया बोयता ने करवाया था।

जिस प्रकार गंगा जल की शुद्धता एवं पवित्रता को सभी हिन्‍दू धर्म के लोग मानते हैं उसी प्रकार बाबा रामदेवजी के निज मंदिर में एवं अभिषेक हेतु प्रयुक्त होने वाले जल का भी अपना महात्‍म्‍य है।

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डाली बाई का कंगन : रामदेव मंदिर में स्थित पत्थर का बना डाली बाई का कंगन है। यह कंगन डाली बाई समाधि के पास ही स्थित है। मान्यतानुसार इस कंगन के अंदर से निकलने पर सभी रोग-कष्ट दूर हो जाते हैं। मंदिर आने वाले सभी श्रद्धालु इस कंगन के अंदर से अवश्य निकलते हैं।

डाली बाई की जाल : डाली बाई की जाल अर्थात वह पेड़ जिसके नीचे रामदेवजी को डाली बाई मिली थी। यह स्थल मंदिर से 3 किलोमीटर दूर NH15 पर स्थित है। कहते हैं कि रामदेवजी जब छोटे थे तब उन्हें उस पेड़ के नीचे एक नवजात शिशु मिला था। बाबा ने उसको 'डाली बाई' नाम देते हुए अपनी मुंहबोली बहन बना दिया।

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गुरु बालीनाथजी का धूना : रामदेवजी के गुरु बालीनाथजी का धूना या आश्रम पोकरण में स्थित है। बाबा ने बाल्यकाल में यहीं पर गुरु बालीनाथजी से शिक्षा प्राप्त की थी। यही वह स्थल है, जहां पर बाबा को बालीनाथजी ने भैरव राक्षस से बचने हेतु छिपने को कहा था। शहर के पश्चिमी छोर पर सालमसागर एवं रामदेवसर तालाब के बीच में स्थित गुरु बालीनाथ के आश्रम पर लाखों श्रद्धालु सिर नवाने आते हैं।

भैरव राक्षस गुफा : यहीं पर भूतड़ा जाति के भैरव नामक की गुफा भी है। भैरव राक्षस का काफी आतंक था। आज भी रामदेवजी की पूजा के बाद भैरव राक्षस को बाकला चढ़ाने का रिवाज इस क्षेत्र में है। यह गुफा मंदिर से 12 किमी दूरी पर पोकरण के निकट स्थित है। वहां तक जाने के लिए पक्का सड़क मार्ग है।

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बाबा का समाधि स्थल :  रुणिचा में बाबा ने जिस स्‍थान पर समाधि ली, उस स्‍थान पर बीकानेर के राजा गंगासिंह ने भव्य मंदिर का निर्माण करवाया। इस मंदिर में बाबा की समाधि के अलावा उनके परिवार वालों की समाधियां भी स्थित हैं। मंदिर परिसर में बाबा की मुंहबोली बहन डाली बाई की समाधि, डालीबाई का कंगन एवं राम झरोखा भी स्थित हैं। बाबा ने यहां जिंदा ही समाधि ले ली थी।

श्री बाबा रामदेवजी की समाधि संवत् 1442 को रामदेवजी ने अपने हाथ से श्रीफल लेकर सब बड़े- बूढ़ों को प्रणाम किया तथा सबने पत्र-पुष्प चढ़ाकर रामदेवजी का हार्दिक तन-मन व श्रद्धा से अंतिम पूजन किया। रामदेवजी ने समाधि में खड़े होकर सबके प्रति अपने अंतिम उपदेश देते हुए कहा कि 'प्रतिमाह की शुक्ल पक्ष की दूज को पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन करके पर्वोत्सव मनाना, रात्रि जागरण करना। प्रतिवर्ष मेरे जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में तथा अंतर्ध्यान समाधि होने की स्मृति में मेरे समाधि स्तर पर मेला लगेगा। मेरे समाधि पूजन में भ्रांति व भेदभाव मत रखना। मैं सदैव अपने भक्तों के साथ रहूंगा।' इस प्रकार श्री रामदेवजी महाराज ने समाधि ली।

अगले पन्ने पर कैसे पहुंचे रुणिचा...

रुणिचा : संवत् 1425 में रामदेव जी महाराज ने पोकरण से 12 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में एक गांव की स्थापना की जिसका नाम रुणिचा रखा। लोग आकर रुणिचा में बसने लगे। रुणिचा गांव बड़ा सुन्दर और रमणीय बन गया। राजस्थान के जेसलमेर जिले में यह गांव आता है। जेसलमेर तक देश के किसी भी कोने से ट्रेन से पहुंचा जा सकता है।

पपोकरण या पोखरण, रामदेवरा से 12 किमी दूरी एवं जैसलमेर से 110 किमी दूरी पर स्थित है जैसलमेर-जोधपुर मार्ग पर पोकरण प्रमुख कस्बा हैं। लाल पत्थरों से निर्मित सुन्दर दुर्ग पोकरण में है। सन् 1550 में राव मालदेव ने इसका निर्माण कराया था। बाबा रामदेव के गुरुकुल के रूप में यह स्थल विख्यात हैं।

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