यक्ष ने मार दिए थे 4 पांडव, जानिए यक्ष की 'जादू की शक्ति'

अनिरुद्ध जोशी
जब पाण्डव दूसरे वनवास के समय वन-वन भटक रहे थे तब एक यक्ष से उनकी भेंट हुई जिसने युधिष्ठिर से विख्यात 'यक्ष प्रश्न' किए थे। पांडवजन अपने तेरह-वर्षीय वनवास के दौरान वनों में विचरण कर रहे थे। तब उन्होंने एक बार प्यास बुझाने के लिए पानी की तलाश की। पानी का प्रबंध करने का जिम्मा प्रथमतः सहदेव को सौंप गया। उन्हें पास में एक जलाशय दिखा जिससे पानी लेने वे वहां पहुंचे।
 
 
जलाशय के स्वामी अदृश्य यक्ष ने आकाशवाणी के द्वारा उन्हें रोकते हुए पहले कुछ प्रश्नों का उत्तर देने की शर्त रखी। सहदेव उस शर्त और यक्ष को अनदेखा कर जलाशाय से पानी लेने लगे। तब यक्ष ने सहदेव को निर्जीव कर दिया। सहदेव के न लौटने पर क्रमशः नकुल, अर्जुन और फिर भीम ने पानी लाने की जिम्मेदारी उठाई। वे उसी जलाशय पर पहुंचे और यक्ष की शर्तों की अवज्ञा करने के कारण निर्जीव हो गए। 
 
अंत में चिंतातुर युधिष्ठिर स्वयं उस जलाशय पर पहुंचे। अदृश्य यक्ष ने प्रकट होकर उन्हें आगाह किया और अपने प्रश्नों के उत्तर देने के लिए कहा। युधिष्ठिर ने धैर्य दिखाया। उन्होंने न केवल यक्ष के सभी प्रश्न ध्यानपूर्वक सुने अपितु उनका तर्कपूर्ण उत्तर भी दिया जिसे सुनकर यक्ष संतुष्ट हो गया और उसने सभी पांडवों को पुन: जीवित कर दिया।
 
 
कौन होते हैं यक्ष : यक्ष का शाब्दिक अर्थ होता है 'जादू की शक्ति'। आदिकाल में प्रमुख रूप से ये रहस्यमय जातियां थीं:- देव, दैत्य, दानव, राक्षस, यक्ष, गंधर्व, अप्सराएं, पिशाच, किन्नर, वानर, रीझ, भल्ल, किरात, नाग आदि। ये सभी मानवों से कुछ अलग थे। इन सभी के पास रहस्यमय ताकत होती थी और ये सभी मानवों की किसी न किसी रूप में मदद करते थे। देवताओं के बाद देवीय शक्तियों के मामले में यक्ष का ही नंबर आता है।
 
 
यक्ष को राक्षसों के निकट माता जाता है परंतु वह मनुष्यों के विरोधी नहीं होते हैं। माना जाता है कि प्राचीनकाल में दो प्रकार की राक्षस जातियां होती थीं, एक जो रक्षा करती थी वे यक्ष कहलाए तथा दूसरे जो स्वच्छंद जीवन यापन करके यज्ञों में बाधा उत्पन्न करते थे वे सभी वाले राक्षस कहलाए। कुबेर और रावण दोनों ही एक ही पिता की संतानें थीं परंतु कुबेर यक्षों के राजा बने तो रावण राक्षसों के। यक्षों के राजा कुबेर उत्तर के दिक्पाल तथा स्वर्ग के कोषाध्यक्ष भी कहलाते हैं। यक्ष कुबेरे शिव के भक्त हैं।
 
 
दीपावली : यक्षों के राजा कुबेर की नगरी को अलकापुरी कहा जाता है। कहते हैं कि दीपावली का त्योहार सर्वप्रथम यक्ष ही मनाते थे।  दीपावली की रात्रि को यक्ष अपने राजा कुबेर के साथ हास-विलास में बिताते व अपनी यक्षिणियों के साथ आमोद-प्रमोद करते थे। सभ्यता के विकास के साथ यह त्योहार मानवीय हो गया और धन के देवता कुबेर की बजाय धन की देवी लक्ष्मी की इस अवसर पर पूजा होने लगी, क्योंकि कुबेर जी की मान्यता सिर्फ यक्ष जातियों में थी पर लक्ष्मीजी की देव तथा मानव जातियों में। कई जगहों पर अभी भी दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजा के साथ-साथ कुबेर की भी पूजा होती है।
 
 
कोषाध्यक्ष : भारत में प्राचीनकाल से ही टैक्स की व्यवस्था रही है और उस टैक्स को सैन्य क्षमता बढ़ाने और जनता के हित में खर्च करने का प्रावधान भी रहा है। फूटी कौड़ी से कौड़ी, कौड़ी से दमड़ी, दमड़ी से धेला, धेला से पाई, पाई से पैसा, पैसा से आना, आना से रुपया तो बाद में बना उससे पहले प्राचीन भारत में स्वर्ण, रजत, ताम्र और मिश्रित मुद्राएं प्रचलित थी जिसे 'पण' कहा जाता था। इन पणों को संभालने के लिए राजकोष होता था। राजकोष का एक प्राधना कोषाध्यक्ष होता था। कुबेरे देवता देवताओं के कोषाध्यक्ष थे। सैन्य और राज्य खर्च वे ही संचालित करते थे। इसी तरह अनुसरों के कोषाध्यक्ष भी थे। वैदिक काल में सभा, समिति और प्रशासन व्यवस्था के ये तीन अंग थे। सभा अर्थात धर्मसंघ की धर्मसभा, शिक्षासंघ की विद्या सभा और राज्यों की राज्यसभा। समिति अर्थात जन साधरण जनों की संस्था है। प्रशासन अर्थात न्याय, सैन्य, वित्त आदि ये प्रशासनिक, पदाधिकारियों, के विभागों के काम। इसमें से प्रशान में एक व्यक्ति होता था जो टैक्स के एवज में मिली वस्तु या सिक्के का हिसाब किताब रखता था। इसमें प्रधान कोषाध्यक्ष के अधिन कई वित्त विभाग या खंजांची होते थे। यह व्यवस्था रामायण और महाभारत काल तक चली। उस काल में जो भी व्यक्ति इस व्यवस्था को देखता था उसे 'पणि' कहा जाता था।
 
 
यक्षिणियां : यक्ष भी कई प्रकार के होते हैं और इनकी पत्नियों या इन्हीं की तरह की शक्तियों से संबंध स्त्रियों को यक्षिणी कहा जाता है। ग्रंथों में यक्षिणी साधाना का उल्लेख मिलता है। यक्षिणी साधक के समक्ष एक बहुत ही सौम्य और सुन्दर स्त्री के रूप में प्रस्तुत होती है। प्रमुख 8 यक्ष और यक्षिणियां भी होते हैं। ये आठ यक्षिणियों ने नाम हैं:- 1.सुर सुन्दरी, 2.मनोहारिणी, 3.कनकावती, 4.कामेश्वरी, 5.रति प्रिया, 6.पद्मिनी, 7.नटी और 8.अनुरागिणी। यहां प्रस्तुत है अनुरागिणी यक्षिणी के बारे में सामान्य जानकारी।
 
अनुरागिणी यक्षिणी : यह यक्षिणी यदि साधक पर प्रसंन्न हो जाए तो वह उसे नित्य धन, मान, यश आदि से परिपूर्ण तृप्त कर देती है। अनुरागिणी यक्षिणी शुभ्रवर्णा है और यह साधक की इच्छा होने पर उसके साथ रास-उल्लास भी करती है।
 
इस यक्षिणी को सिद्ध करने का मंत्र:
ॐ ह्रीं अनुरागिणी आगच्छ स्वाहा॥
 
साधना की तैयारी:
*यह साधना घर में नहीं किसी एकांत स्थान पर करना होती है, जहां कोई विघ्न न डाले।
*उक्त साधना नित्य रात्रि में की जाती है।
*साधना के पहले उक्त यक्षिणी का चित्र साधना स्थल पर लगा दें।
*साधना काल में किसी भी प्रकार की अनु‍भूति हो तो उसे किसी को बताना नहीं चाहिए।
*हवन और पूजा की संपूर्ण सामग्री एकत्रीत कर लें।
*साधान स्थल पर पर्याप्त भोजन, पानी और अन्य प्रकार की दैनिक जरूरत की व्यवस्था करके रखें ताकी साधन छोड़कर कहीं जाना न पड़े।
 
साधना की विधि :
*भोजपत्र पर लाल चंदन से अनार की कलम द्वारा किसी शुभ मुहूर्त में उस उक्त यक्षिणी का नाम लिखकर उसे आसन पर प्रतिष्ठत करने का उचित रीति से आह्‍वान करके उनकी पूजा करें।
*उसके बाद उपरोक्त मंत्र का जप आरंभ करें। कम से कम 10 हजार और ज्यादा से ज्यादा 1 लाख तक का जप का संकल्प लेकर ही जप करें।
*जितने भी संख्‍या का जप का संकल्प लिया है उतना जप करने के बाद कम से कम 108 बार हवन में आहुति देकर हवन करें।
*जप और हवन समाप्त होने के बाद वहीं सो जाएं। यह साधना की संक्षिप्त विधि है। किसी जानकार से पूछकर ही साधना प्रारंभ करें।

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