वेद और पुराणों में क्या लिखा है महामारी से बचने को लेकर, 10 काम की बातें

अनिरुद्ध जोशी
वैदिक काल या पौराणिक भारत में भी समय-समय पर महामारी या संक्रमण का प्रकोप बना रहता था। इसी के चलते समाज में छुआछूत का प्रचलन भी बढ़ा। वर्तमान की अपेक्षा प्राचीनकाल में चिकित्सा सुविधाएं इतनी नहीं थी। ऐसे में जब कोई बीमारी, संक्रमण या महामारी फैलती थी तो लोग अपने अनुभव का उपयोग करके ही उससे बचने का उपाय करते थे। इसी अनुभव के आधार पर प्राचीनकालीन विद्वानों ने लोगों को बीमारी से बचाने के लिए या संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए सूतक-पातक के नियम बनाए। इसके अलावा भी साफ और स्वच्छ रहने के नियम भी बनाए। आयुर्वेद में वसंत ऋतु को कई गंभीर बीमारियों और रोगों का जनक माना गया है। वसंत ही नहीं किसी भी ऋ‍तु परिवर्तन पर रोग और संक्रमण बढ़ जाता है। ऐसे में सावधानी रखने की आवश्यकता होती है। आओ जानते हैं उन्हीं नियमों को।
 
 
1. जन्म का संक्रमण : जन्म के अवसर पर जो नाल काटा जाता है और जन्म होने की प्रक्रिया के दौरान जो हिंसा होती है, उसमें लगने वाला दोष या पाप प्रायश्‍चित के रूप में पातक माना जाता है। इस दौरान भी संक्रमण का खतरा बना रहता है। बच्चे के जन्म के बाद महिला और बच्चे को एक कमरे में अलग कर दिया जाता था और साफ सफाई पर ज्यादा ध्यान दिया जाता था। जन्म संस्कार में मुंडन क्रिया तक संक्रमण से बचने के तौर तरीके अपनाए जाते थे।
 
प्रसूति नवजात की मां को 45 दिन का सूतक रहता है। प्रसूति स्थान 1 माह अशुद्ध माना जाता है। इसीलिए कई लोग अस्पताल से घर आते हैं तो स्नान करते हैं। पुत्री का पीहर में बच्चे का जन्म में 3 दिन का, ससुराल में जन्म दे तो उन्हें 10 दिन का सूतक रहता है। अगर परिवार की किसी स्त्री का गर्भपात हुआ है तो जितने माह का हुआ है उतने दिन का ही पातक माना जाएगा। 
 
बच्चा पैदा होने के बाद महिला के शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। साथ ही, अन्य रोगों के संक्रमण के दायरे में आने के मौके बढ़ जाते हैं। इसलिए 10-40 दिनों के लिए महिला को बाहरी लोगों से दूरी बना कर रखा जाता है। जैसे ही बच्चा संसार के वातावरण में आता है तो कुछ बच्चों को बीमारियां जकड़ लेती हैं। शारीरिक कमजोरियां बढ़ने लगती है और कभी कभी बच्चों को डॉक्टर इंक्यूबेटर पर रखते हैं जिससे वो बाहरी प्रदूषित वातावरण से बचाया जा सके।
 
 
2. मरण का संक्रमण : गरुड़ पुराण के अनुसार परिवार में किसी सदस्य की मृत्यु होने पर लगने वाले सूतक को 'पातक' कहते हैं। जैसे व्यक्ति की मृत्यु होने के पश्चात गोत्रज तथा परिजनों को विशिष्ट कालावधि तक अशुचित्व और अशुद्धि प्राप्त होता है, उसे सूतक कहते हैं। अशुचित्व अर्थात अमंगल और शुद्ध का विपरित अशुद्धि होता है।
 
 
मृत व्यक्ति के परिजनों को 10 दिन तथा अंत्यक्रिया करने वाले को 12 से 13 दिन (सपिंडीकरण तक) सूतक पालन कड़ाई से करना होता है। मूलत: यह सूतक काल सवा माह तक चलता है। सवा माह तक कोई किसी के घर नहीं जाता है। सवा माह अर्थात 37 से 40 दिन। 40 दिन में नक्षत्र का एक काल पूर्ण हो जाता है। घर में कोई सूतक (बच्चा जन्म हो) या पातक (कोई मर जाय) हो जाय 40 तक का सूतक या पातक लग जाता है।
 
3. अन्य कार्यों में संक्रमण : मरण के अवसर पर दाह सांसकार से हुई हिंसा का दोष या पाप प्रायश्‍चित स्वरूप पातक माना जाता है। इसी प्रकार दाढ़ी बनवाना और बाल कटवाने से भी संक्रामण का खतरा रहता है।
 
 
किसी की शवयात्रा में जाने को एक दिन, मुर्दा छूने को 3 दिन और मुर्दे को कन्धा देने वाले को 8 दिन की अशुद्धि मानी जाती है। घर में कोई आत्मघात करले तो 6 माह का पातक माना जाता है। छह माह तक वहां भोजन और जल ग्रहण नहीं किया जा सकता। वह मंदिर नहीं जाता और ना ही उस घर का द्रव्य मंदिर में चढ़ाया जाता है।
 
ताधूमसेवने सर्वे वर्णा: स्नान् आचरेयु:
वमने श्‍मशुकर्मणि कृते च।- विष्णु स्मृति 
 
विष्णु स्मृति के अनुसार शमशान से लौट रहे हों, आपको उल्टी हो चुकी हो, दाढ़ी बनायी या बाल कटवाकर लौट रहे हों तो आपको घर में आकर सबसे पहले स्नान करना चाहिए। नहीं तो आपको संक्रमण का खतरा बना रहता है।
 
4. मासिक धर्म का संक्रमण : महिलाओं के मसिक चक्र के दौरान में संक्रमण का खतरा बना रहता है इसीलिए प्राचीनकाल से ही भारतीय परंपरा में महिलाओं को उक्त दिनों के दौरान अलग कर दिया जाता था। ऐसी महिलाएं घर में ना तो भोजन बना सकती है और ना ही वह घर के अन्य कोई कार्य कर सकती है। इस दौरान महिला को अलग रहकर ही अपना कार्य खुद ही करना होता था। उसे दूर से ही भोजन परोस दिया जाता था। उसके स्नान की व्यवस्था भी अलग ही होती थी।
 
 
5. ग्रहण का संक्रमण : ग्रहण और सूतक के पहले यदि खाना तैयार कर लिया गया है तो खाने-पीने की सामग्री में तुलसी के पत्ते डालकर खाद्य सामग्री को प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है। ग्रहण के दौरान मंदिरों के पट बंद रखे जाते हैं। देव प्रतिमाओं को भी ढंककर रखा जाता है। ग्रहण के दौरान पूजन या स्पर्श का निषेध है। केवल मंत्र जाप का विधान है। ग्रहण के दौरान यज्ञ कर्म सहित सभी तरह के अग्निकर्म करने की मनाही होती है। ऐसा माना जाता है कि इससे अग्निदेव रुष्ट हो जाते हैं।
 
 
6. महामारी का संक्रमण : यदि किसी भी घर के सदस्य को ऐसा रोग हुआ जिससे दूसरों को भी रोग होने की संभावना है तो ऐसे सदस्य को घर से बाहर कुटिा बनाकर रहना होता था। कई परिस्थिति में तो ऐसे लोगों को गांव के बाहर उसकी व्यवस्था कर दी जाती थी। कई परिस्थिति में तो उसे घर के सदस्य रोगी को छोड़कर कहीं ओर चले जाते थे। ऐसे में रोगी को कई तरह के नियमों का पालन करना होता था जिसकी जानकारी उसे दे दी जाती थी।
 
 
भूपावहो महारोगो मध्यस्यार्धवृष्ट य:।
दु:खिनो जंत्व: सर्वे वत्सरे परिधाविनी।
अर्थात परिधावी नामक सम्वत्सर में राजाओं में परस्पर युद्ध होगा महामारी फैलेगी। बारिश असामान्य होगी और सभी प्राणी महामारी को लेकर दुखी होंगे।
 
बृहत संहिता में वर्णन आया है कि 'शनिश्चर भूमिप्तो स्कृद रोगे प्रीपिडिते जना' अर्थात जिस वर्ष के राजा शनि होते है उस वर्ष में महामारी फैलती है। विशिष्ट संहिता अनुसार पूर्वा भाद्र नक्षत्र में जब कोई महामारी फैलती है तो उसका इलाज मुश्किल हो जाता है। विशिष्ट संहिता के अनुसार इस महामारी का प्रभाव तीन से सात महीने तक रहता है।

 
7. बदलना होते हैं वस्त्र : शास्त्रों के कई जगह कहा गया है कि एक दिन से ज्याद वस्त्र को नहीं पहना चाहिए क्योंकि यह जीवाणु और विषाणु युक्त हो जाता है।
 
न अप्रक्षालितं पूर्वधृतं वसनं बिभृयात्।- विष्णु स्मृति
व्यक्ति को एक बार पहना गया कपड़ा धोए बिना फिर से धारण नहीं करना चाहिए।
 
8. गीले वस्त्र से शरीर को नहीं पोंछना चाहिए : शास्त्रों के अनुसार स्नान के बाद सूखे वस्थ या तौलिये से ही अंग को पोंछना चा‍हिए। गीले कपड़ों से शरीर को पोंछने से त्वचा के संक्रमण की संभावना बढ़ जाती। 
 
अपमृज्यान्न च स्नातो गात्राण्यम्बरपाणिभि:।- मार्कण्डेय पुराण
 
9. सिर और मुंह ढककर ही करते थे ये कार्य : प्राचीनकाल में मलमूत्र त्यागने के स्थान घर से दूर होते थे। वहां पर भी वाधूल स्मृति और मनुस्मृति के अनुसार यह नियम थे कि ऐसा करते समय नाक, मुंह और सिर ढका रहना चाहिए क्योंकि उक्त स्थान पर संक्रमण फैलने का खतरा रहता है।
 
घ्राणास्ये वाससाच्छाद्या मलमूत्रं त्यजेत् बुध:।
नियम्य प्रयतो वाचं संवीतांगोस्वगुण्ठित:।- वाधूल स्मृति
 
 
10. हनव क्रिया : कभी कभी जब परिवार में सारी प्रक्रियाओं का अनुसरण होने पर भी संक्रमण की संभावनाएं बरकरार रहती है इसलिए अंतिम शस्त्र के रूप में हवन किया जाता है। हवन होने के बाद घर का वातावरण शुद्ध हो जाता है और सूतक-पातक प्रक्रिया की मीयाद भी पूरी हो जाती है।
 
सभी तरह के संक्रमण से बचने के लिए प्राचीन काल में हमारे ऋषि मुनियों ने कुछ नियम बनाए थे जिसमें भोजन के नियम, उपवास के नियम, स्नान के नियम और शयन के नियम भी शामिल है। प्रकृति परिवर्तन की बेला को ही नववर्ष कहा गया है। इसी को ध्यान में रखते हुए नवरात्र के 9 दिन तय किए गए। इस दौरान उपवास के साथ ही पवित्र और सात्विक भोजन करने से शक्ति और शुद्धि बनी रहती है। 
 
भारतीय संस्कृति में हाथ मिलाने की नहीं नमस्कार करने की परंपरा भी इसी कारण जन्मी है। शाकाहार को महत्व देना, संध्याकाल के पूर्व ही भोजन कर लेना और प्रात:काल जल्दी उठकर संध्यावंदन करना या योग ध्यान करना भी सभी तरह के रोग से बचने का ही उपाय है। इसके साथ ही आयुर्वेद के अनुसार जीवन यापन करने की सलाह दी जाती है। 

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