सनातन धर्म भाग्यवादियों का धर्म नहीं है। वेद, उपनिषद और गीता- तीनों ही कर्म को कर्तव्य मानते हुए इसके महत्व को बताते हैं। यही पुरुषार्थ है, जो व्यक्ति भाग्य, ज्योतिष या भगवान भरोसे है उसको भी कर्म किए बगैर छुटकारा नहीं मिलने वाला। धर्मशास्त्र और नीतिशास्त्रों में कहा गया है कि कर्म के बगैर गति नहीं।
जो लोग भाग्यशाली हैं उन्हें भी कर्म करना होता है यदि वे भाग्य के भरोसे कर्म नहीं करते तो भाग्य भी उनका साथ छोड़ देता है और जो लोग कर्मवादी है या जिनका भाग्य सोया हुआ है उन्हें तो हर हालत में कर्म करना ही चाहिए अन्यथा वे दुर्गति को प्राप्त होते हैं। कुल मिलाकर सनातन धर्म भाग्य प्रधान धर्म न हो कर कर्म प्रधान धर्म है।
कुछ नहीं करना भी एक प्रकार का करना है। साँस लेना और छोड़ना भी कर्म है। कर्म के बगैर एक क्षण भी रहा नहीं जा सकता। कर्म से ही भविष्य तय होता है, भाग्य तय होता है। सनातन धर्म में कर्म का बहुत महत्व है। कर्म किए बगैर गति नहीं। कर्म और कर्तव्य से जो व्यक्ति मुँह मोड़ता है वह अधोगति को प्राप्त होता है।
धर्म शास्त्रों में मुख्यत: छह तरह के कर्म का उल्लेख मिलता है- 1.नित्य कर्म (दैनिक कार्य), 2.नैमित्य कर्म (नियमशील कार्य), 3.काम्य कर्म (किसी मकसद से किया हुआ कार्य), 4.निश्काम्य कर्म (बिना किसी स्वार्थ के किया हुआ कार्य), 5.संचित कर्म (प्रारब्ध से सहेजे हुए कर्म) और 6.निषिद्ध कर्म (नहीं करने योग्य कर्म)।