सावधान! संधिकाल में रखें इन बातों का ध्यान, वर्ना हो जाएंगे बर्बाद

हिन्दू कैलेंडर पंचांग पर आधारित है। सूर्य को जगत की आत्मा मानकर सूर्य एवं नक्षत्र सिद्धांत पर आधारित पंचांग बनाया गया है। पंचांग के चक्र को खगोलकीय तत्वों से जोड़ा जाता है। 12 मास का 1 वर्ष और 7 दिन का 1 सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत से शुरू हुआ। महीने का हिसाब सूर्य व चन्द्रमा की गति पर रखा जाता है। हिन्दू पंचांग में मुख्य 5 बातों का ध्यान रखा जाता है। इन पांचों के आधार पर ही कैलेंडर विकसित होता है। ये 5 बातें हैं- 1.तिथि, 2.वार, 3.नक्षत्र, 4.योग और 5. करण।
प्रत्येक मास के अलावा तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण का अपना-अपना अगल महत्व है। लेकिन हम यहां सिर्फ दिन और रात में घटने वाले संधि के महत्व को बताना चाहेंगे। यह संधि क्या होती है और इसका असर हमारे जीवन पर क्या होता है यह जानना जरूरी है तभी हम सतर्कता बरत सकते हैं।
 
क्या है संध्याकाल?
'सूर्य और तारों से रहित दिन-रात की संधि को तत्वदर्शी मुनियों ने संध्याकाल माना है।'-आचार भूषण-89 
 
वैसे संधि आठ वक्त की होती है, जिसे आठ प्रहर कहते हैं। हिन्दू धर्मानुसार दिन-रात मिलाकर 24 घंटे में आठ प्रहर होते हैं। औसतन एक प्रहर तीन घंटे या साढ़े सात घटी का होता है जिसमें दो मुहूर्त होते हैं। एक प्रहर एक घटी 24 मिनट की होती है। दिन के चार और रात के चार प्रहर मिलाकर कुल आठ प्रहर हुए। इसी के आधार पर भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्रत्येक राग के गाने का समय निश्चित है। प्रत्येक राग प्रहर अनुसार निर्मित है।
 
आठ प्रहर के नाम:- पूर्वान्ह, मध्यान्ह, अपरान्ह, सायंकाल, प्रदोष, निशिथ, त्रियामा एवं उषा। उक्त आठ प्रहर में जब कोई प्रहर बदलता है तो उसे संधिकाल कहते हैं, जैसे सायंकाल समाप्त होता है और प्रदोष शुरू होता है उक्त दोनों के बीच के समय को संधिकाल कहते हैं। दो प्रहरों के बीच के समय को संधिकाल कहते हैं। सुबह सूर्योदय के पूर्व नक्षत्रों के दिखाई न देने से लेकर प्रत्यक्ष सूर्य के उदित होने तक जो समय होता है उसे सुबह का संधिका कहते हैं। इसी प्रकार सूर्य के अस्त होने के पाश्चात नक्षत्रों के दिखाई देने तक का जो समय होता है, उसे सायंकाल कहते हैं। भोजन करने के लिए संधिकाल अनिष्ट है।
 
दिन के चार प्रहर:- पूर्वान्ह, मध्यान्ह, अपरान्ह और सायंकाल।
रात के चार प्रहर:- प्रदोष, निशिथ, त्रियामा एवं उषा।
 
हालांकि ज्योतिष ने दिनमान को मोटेतौर पर तीन भागों में बांटा है:- प्रात:काल, मध्याह्न और सायंकाल। इस अनुसार सूर्योदय और सूर्यास्त के समय के काल को मुख्य संधिकाल माना गया है। सूर्योदय के समय दिन का पहला प्रहर प्रारंभ होता है जिसे पूर्वान्ह कहा जाता है। दिन का दूसरा प्रहर जब सूरज सिर पर आ जाता है तब तक रहता है जिसे मध्याह्न कहते हैं। इसके बाद अपरान्ह (दोपहर बाद) का समय शुरू होता है, जो लगभग 4 बजे तक चलता है। 4 बजे बाद दिन अस्त तक सायंकाल चलता है। फिर क्रमश: प्रदोष, निशिथ एवं उषा काल।
 
अगले पन्ने पर जानिए संधिकाल का इतना महत्व क्यों है...

संधिकाल का महत्व क्यों?
पहला कारण : संधिकाल में अनिष्ट शक्तियां प्रबल होने के कारण इस काल में निम्नलिखित बातें निषिद्ध बताई गई हैं- सोना, खाना-पीना, गालियां देना, झगड़े करना, अभद्र एवं असत्य बोलना, क्रोध करना, शाप देना, यात्रा के लिए निकलना, शपथ लेना, धन लेना या देना, रोना, वेद मंत्रों का पाठ, शुभ कार्य करना, चौखट पर खड़े होना, किसी भी प्रकार का शोर-शराबा करना आदि।
दूसरा कारण : संधिकाल में जिस तरह प्रकृति में परिवर्तन होता है उसी तरह हमारे शरीर, मन और मस्तिष्क में भी परिर्तन होता है। कोई व्यक्ति यदि संध्या के समय खुद के या परिवार के लिए कटु वचन बोलता है तो उसके यह वचन धीरे-धीरे बुरी घटनाओं का रूप ले लेते हैं। क्योंकि यह एक ऐसा समय होता है जबकि हमारे मन और मस्तिष्क का द्वार खुला रहता है। हम प्रकृति से और प्रकृति हमसे इस काल में हमारी इच्छाएं, आकांशाएं आदि सभी ग्रहण कर रही होती है। प्रकृति जो सुनती है वैसा ही आपके लिए करती है। इस काल में जो लोग ईश्वर के समक्ष उपस्थित होकर मन्नत मांगते हैं उनकी मन्नत अवश्यपूर्ण होती है। इसीलिए कहा जाता है कि संध्याकाल अर्थात उषाकाल, सायंकाल और प्रदोष काल में व्यक्ति को भगवान की शरण में रहकर सकारात्मक बातों को सोचना चाहिए जिससे की जीवन में सब कुछ सकारात्मक ही हो। अक्सर न्यूज चैनलों की जहरीली बहसें संधिकाल में ही होती हैं।
 
संधिकाल में सिर्फ संध्यावंदन ही की जाती है:- एक समय था जबकि संधिकाल के महत्व को समझते हुए उक्त काल में संध्यावंदन की पद्धिति को विकसित किया गया था। लेकिन जब इसके पीछे का विज्ञान खो गया तो लोगों ने मनमाने तरीके अपनाकर भजन, कीर्तन, आरती, पूजन आदि को अपनी सुविधा वाले समय अनुसार ढाल लिया। व्यापारिक हित जुड़ने से इसमें और भी बदलाव होते गए।
 
मुख्‍यत: दो प्रहर में संध्यावंदन का महत्व है:- पूर्वान्ह और सायंकाल। इसी काल में संध्या वंदन की जाती है।  संध्या वंदन को संध्योपासना भी कहते हैं। इसे पर्वकाल भी कहते हैं। इस काल में 'पवित्रता' का विशेष ध्यान रखा जाता है। यही वेद नियम है। यही सनातन सत्य है। संध्या वंदन के नियम है। संध्‍या वंदन में प्रार्थना ही सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। दिन और रात के 12 से 4 बजे के बीच प्रार्थना या आरती वर्जित मानी गई है।  
 
उपरोक्त नियम का पालन नहीं करने से जहां एक ओर बरकत चली जाती है वहीं व्यक्ति कई तरह के संकटों से घिर जाता है। जहां मदिरा सेवन, स्त्री अपमान, तामसिक भोजन और अनैतिक कृत्यों को महत्व दिया जाता है उनका धन दवाखाने, जेलखाने और पागलखाने में ही खर्च होता रहता है। ऐसे लोग भी यदि संधिकाल का महत्व समझने लगे तो जीवन में सुधार हो सकता है।
 
उदाहरणार्थ :
ऋषि कश्यप सायंकाल की संध्या करते थे जो प्रदोषकाल तक चलती थी। अर्थात सूर्यास्तक के बाद दिन अस्त तक के काल को धरधरी का काल कहा जाता है। इस काल में शिव के गण ज्यादा सक्रिय रहते हैं। इस काल में एक बार ऋषि कश्यप की पत्नीं दिति को सहवास की इच्छा हुई। कश्यप ऋषि ने कहा कि यह वक्त अभी निकल जाने दो, लेकिन दिति नहीं मानीं। बहुत जिद के बाद आखिर कश्यप ऋषि को स्त्री हठ के आगे झुकना पड़ा। इस काल में किए गए सहवास से दो राक्षस पुत्रों का जन्म हुआ हिण्याक्ष और हिण्यकश्यप। उक्त दोनों पुत्रों के जन्म लेते ही संपूर्ण आसमान में काले बादल छा गए और दिति एवं कश्यप ऋषि की जिंदगी बदल गई।
 
सबसे उत्तम उपाय : संधिकाल में व्यक्ति को मौन ही रहना चाहिए। ऐसा करने वाले सभी तरह के संकटों से स्वत: ही बच जाते हैं। दूसरा उपाय जिस तरह प्रकृति में संधिकाल होते हैं उसी तरह हमारे मन, मस्तिष्क में भी संधिकाल होते हैं। यदि आप इस पर गौर देना शुरू करेंगे तो पता चलेगा। हमारे सोने और उठने अर्थात हमारे नींद में जाने के कुछ मिनटों पहले और उठने के कुछ मिनटों पहले के संधिकाल में हमें सिर्फ ईश्वर का ही ध्यान करते हुए सोना चाहिए और उसका ध्यान करते हुए ही उठना चाहिए। फिर जब हम पूर्णत: जाग्रत हो जाते हैं तब उसके 2 से 3 घंटे बाद या भोजन करने के बाद एक ओर संधिकाल शुरू होता है। इसी तरह हमारे भीतर के संधिकाल को हम खोज सकते हैं।

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