क्या होती है सप्तपदी, जानिए 7 वचनों का महत्व

अनिरुद्ध जोशी

मंगलवार, 14 अप्रैल 2020 (11:45 IST)
हिन्दू धर्म में विवाह के दौरान सात फेरे लिए जाते हैं जिन्हें सप्तपदी कहते हैं। सप्तपदी के सात वचन होते हैं जिन्हें वर और वधु को निभाना होता है। कन्या यह वचन अपने होने वाले पति से मांगती है। यह सात वचन दाम्पत्य जीवन को खुशहाल और सफल बनाने हेतु होते हैं। अधिकतर लोग विवाह के बाद इन सात वचनों को भूल जाते हैं इसलिए उनके दाम्पत्य जीवन में बाधा उत्पन्न हो जाती है। यदि पति और पत्नी इन वचनों के महत्व को समझे तो जीवन में कभी भी किसी भी प्रकार की समस्या उत्पन्न नहीं होती है। आओ जानते हैं इन 7 वचनों का महत्व।
 
 
सात पग : सप्तपदी में पहला पग भोजन व्यवस्था के लिए, दूसरा शक्ति संचय, आहार तथा संयम के लिए, तीसरा धन की प्रबंध व्यवस्था हेतु, चौथा आत्मिक सुख के लिए, पांचवां पशुधन संपदा हेतु, छठा सभी ऋतुओं में उचित रहन-सहन के लिए, अंतिम 7वें पग में कन्या अपने पति का अनुगमन करते हुए सदैव साथ चलने का वचन लेती है तथा सहर्ष जीवनपर्यंत पति के प्रत्येक कार्य में सहयोग देने की प्रतिज्ञा करती है।

 
पहला वचन : 
तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी!।
अर्थात : कन्या अपने पहले वचन में वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना। कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कर्म का कोई कार्य करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान दें। यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।

 
दूसरा वचन : 
पुज्यो यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम!!
अर्थात : कन्या अपने दूसरे वचन में वर मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।

 
तीसरा वचन :
जीवनम अवस्थात्रये पालनां कुर्यात
वामांगंयामितदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृतीयं!!
अर्थात : तीसरे वचन में कन्या वर मांगती है कि आप मुझे यह वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं में मेरा पालन करते रहेंगे, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूं।

 
चौथा वचन :
कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थ:।।
अर्थात : कन्या अपने चौथे वचन में कहती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिंता से पूर्णत: मुक्त थे। अब जब कि आप विवाह बंधन में बंधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दा‍यित्व आपके कंधों पर है। यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतिज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूं।

 
पांचवां वचन :
स्वसद्यकार्ये व्यहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्‍त्रयेथा
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या!!
अर्थात : पांचवें वचन में कन्या वर मांगती है कि जो वह कहती है, वह आज के परिप्रेक्ष्य में अत्यंत महत्व रखता है। वह कहती है कि अपने घर के कार्यों में, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मंत्रणा लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।

 
छठवां वचन : 
न मेपमानमं सविधे सखीना द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्वेत
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम!!
अर्थात : कन्या अपने छठे वचन में कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्‍त्रियों के बीच बैठी हूं, तब आप वहां सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे। यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आपको दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।


सातवां वचन :
परस्त्रियं मातूसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कूर्या।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तमंत्र कन्या!!
अर्थात : कन्या अपने अंतिम वचन के रूप में वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगे और पति-पत्नी के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगे। यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।

सप्तपदी का महत्व : विवाह की सप्तपदी में उन शक्ति केंद्रों और अस्तित्व की परतों या शरीर के गहनतम रूपों तक तादात्म्य बिठाने करने का विधान रचा जाता है। विवाह करने वाले दोनों ही वर और वधू को शारीरिक, मानसिक और आत्मिक रूप से एक-दूसरे के प्रति समर्पण और विश्वास का भाव निर्मित किया जाता है। मनोवैज्ञानिक तौर से दोनों को ईश्वर की शपथ के साथ जीवनपर्यंत तक दोनों से साथ निभाने का वचन लिया जाता है इसलिए विवाह की सप्तपदी में 7 वचनों का भी महत्व है।

 
'मैत्री सप्तपदीन मुच्यते' अर्थात एकसाथ सिर्फ 7 कदम चलने मात्र से ही दो अनजान व्यक्तियों में भी मैत्री भाव उत्पन्न हो जाता है अतः जीवनभर का संग निभाने के लिए प्रारंभिक 7 पदों की गरिमा एवं प्रधानता को स्वीकार किया गया है। 7वें पग में वर, कन्या से कहता है कि 'हम दोनों 7 पद चलने के पश्चात परस्पर सखा बन गए हैं।'

 
मन, वचन और कर्म के प्रत्येक तल पर पति-पत्नी के रूप में हमारा हर कदम एकसाथ उठे इसलिए आज अग्निदेव के समक्ष हम साथ-साथ 7 कदम रखते हैं। हम अपने गृहस्थ धर्म का जीवनपर्यंत पालन करते हुए एक-दूसरे के प्रति सदैव एकनिष्ठ रहें और पति-पत्नी के रूप में जीवनपर्यंत हमारा यह बंधन अटूट बना रहे तथा हमारा प्यार 7 समुद्रों की भांति विशाल और गहरा हो।

 
विवाह एक संस्कार : हिन्दू धर्म में विवाह को पाणिग्रहण संस्कार कहते हैं। अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का करार होता है जिसे कि विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है, लेकिन हिन्दू धर्म में विवाह बहुत ही भली-भांति सोच- समझकर किए जाने वाला संस्कार है। इस संस्कार में वर और वधू सहित सभी पक्षों की सहमति लिए जाने की प्रथा है। हिन्दू विवाह में पति और पत्नी के बीच शारीरिक संबंध से अधिक आत्मिक संबंध होता है और इस संबंध को अत्यंत पवित्र माना गया है।

 
सात फेरे या सप्तपदी : हिन्दू धर्म में 16 संस्कारों को जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अंग माना जाता है। विवाह में जब तक 7 फेरे नहीं हो जाते, तब तक विवाह संस्कार पूर्ण नहीं माना जाता। न एक फेरा कम, न एक ज्यादा। इसी प्रक्रिया में दोनों 7 फेरे लेते हैं जिसे 'सप्तपदी' भी कहा जाता है। ये सातों फेरे या पद 7 वचन के साथ लिए जाते हैं। हर फेरे का एक वचन होता है जिसे पति-पत्नी जीवनभर साथ निभाने का वादा करते हैं। ये 7 फेरे ही हिन्दू विवाह की स्थिरता का मुख्य स्तंभ होते हैं। अग्नि के 7 फेरे लेकर और ध्रुव तारे को साक्षी मानकर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं।

 
सात फेरे ही क्यों : भारतीय संस्कृति में 7 की संख्या मानव जीवन के लिए बहुत विशिष्ट मानी गई है। संगीत के 7 सुर, इंद्रधनुष के 7 रंग, 7 ग्रह, 7 तल, 7 समुद्र, 7 ऋषि, सप्त लोक, 7 चक्र, सूर्य के 7 घोड़े, सप्त रश्मि, सप्त धातु, सप्त पुरी, 7 तारे, सप्त द्वीप, 7 दिन, मंदिर या मूर्ति की 7 परिक्रमा, आदि का उल्लेख किया जाता रहा है। यही सभी ध्यान रखते हुए अग्नि के 7 फेरे लेने का प्रचलन भी है जिसे 'सप्तपदी' कहा गया है।
    
संकलन : पुराण आदि हिन्दू ग्रंथों से

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