यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण है। कहते हैं कि भगवान बुद्ध ने बहुत समय तक महिलाओं को दीक्षा नहीं दी थी लेकिन महाप्रजापती गौतमी के कारण उन्होंने महिलाओं को भी दीक्षा दी थी। जैन धर्म में भी बहुत समय तक महिलाओं को साध्वी नहीं बनाया जाता था लेकिन महावीर स्वामी के काल में नरेश दधिवाहन की बेटी चंपा प्रथम जैन भिक्षुणी बनी थीं। हालांकि जैन, हिन्दू या बौद्ध धर्म में भिक्षुणी या साध्वियों का अलग संघ है।
हिन्दू धर्म में ऐसी कई महिलाएं हैं जिन्होंने वेद की ऋचाएं लिखी हैं और ऋषियों के साथ शास्त्रार्थ किया है। वैदिक काल में नारियों को धर्म और राजनीति में भी पुरुष के समान ही समानता हासिल थी। वे वेद पढ़ती थीं और पढ़ाती भी थीं। मैत्रेयी, गार्गी जैसी नारियां इसका उदाहरण है। ऋग्वेद की ऋचाओं में लगभग 414 ऋषियों के नाम मिलते हैं जिनमें से 30 नाम महिला ऋषियों के हैं। यही नहीं नारियां युद्ध कला में भी पारंगत होकर राजपाट भी संभालती थी। दूसरी ओर महिलाएं आश्रम में रहकर आश्रम का कामकाज भी संभालती थीं।
वक्त बदला तो सबकुछ बदल गया:-
महाभारत युद्ध के बाद नारी का पतन होना शुरू हुआ। इस युद्ध के बाद समाज बिखर गया, राष्ट्र राजनीतिक शून्य हो गया था और धर्म का पतन भी हो चला था। युद्ध में मारे गए पुरुषों की स्त्रीयां विधवा होकर बुरे दौर में फंस गई थी। वैदिक व्यवस्था शून्य हो गई और उसकी जगह राजा एवं पूरोहितों द्वारा निर्मित सामाजिक नियम महत्वपूर्ण हो गए। बौद्ध काल के बाद तो मध्यकाल में नारी की स्थिति और भी बुरी हो चली। इसका कारण हर क्षेत्र में पुरुष और पुरुष मानसिकता का हावी होना था। पुराणों और स्मृतियां का दौर प्रारंभ हुआ।
ऐसे में फिर कहा गया कि नारी को न तो गुरु बनना चाहिए और ना ही उसे किसी को गुरु बनाना चाहिए। इसके पीछे कई कारण बताए गए। कहा जाने लगा कि नारी का पति ही उसका गुरु होता है।
शास्त्र में उल्लेख है- गुरुर्ग्निर्दिजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरु:।
अर्थात : स्त्रियों के लिए वैवाहिक विधि का पालन ही वैदिक संस्कार/यज्ञोपवित, पति सेवा ही गुरुकुल वास और गृहकार्य ही अग्निहोत्र कहा गया है।' स्त्री को पति के सिवाय किसी भी पुरुष से किसी प्रकार का संबंध नहीं जोड़ना चाहिए।
कलिकाल में तो यह कहा जाने लगा कि माताओं से प्रार्थना है कि वे किसी भी साधु, तथाकथित गुरु के भ्रम जाल में न पड़ें क्योंकि आजकल बहुत ठगी, दम्भ, पाखण्ड हो रहा है। साधु को चाहिए कि वे किसी स्त्री को शिष्या न बनाएं। स्त्री ही स्त्री को दीक्षा दे या गुरु बनाएं तो उचित होगा।
शाल्यन्नं सघृतं पयोदधियुतं भुञ्जन्ति ये मानवास्तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद्विन्ध्यस्तरेत्सागरे ॥ (भर्तृहरिशतक)
अर्थात, 'जो वायु-भक्षण करके, जल पीकर और सूखे पत्ते खाकर रहते थे, वे विश्वामित्र, पराशर आदि भी स्त्रियों के सुंदर मुख को देखकर मोह को प्राप्त हो गए, फिर जो लोग शाली धान्य (सांठी चावल) को घी, दूध और दही के साथ खाते हैं, वे यदि अपनी इन्द्रियका निग्रह कर सकें तो मानो विन्ध्याचल पर्वत समुद्रपर तैरने लगा।... ऐसी स्थिति में जो जवान स्त्रियों को अपनी शिष्या बनाते हैं, उनको अपने आश्रम में रखते हैं, उनका स्वप्न में भी कल्याण हो जायगा- यह बात मुझको जंचती नहीं। फिर उनके द्वारा आपका भला कैसे हो जाएगा? केवल धोखा ही होगा।
निष्कर्ष यह कि वर्तमान युग में महिलाएं किसी भी पुरुष को अपना गुरु न बनाएं। उसके लिए उसका गुरु उसका पति ही होता है। फिर भी वह धर्म के मार्ग पर जाना चाहती है तो ऐसे में किसी महिला गुरु को ही अपना गुरु बनाएं। ऐसा शास्त्र वचन है जो उपरोक्त लिखा गया। वर्तमान में साधु और असाधु में फर्क करना मुश्किल है।