सांई बाबा का बचपन, जानिए एक सच्ची कहानी

- अनिरुद्ध जोशी
जैसे पर्वतों में हिमालय श्रेष्ठ है वैसे ही संतों में श्रेष्ठ हैं सांई। सांई नाम के आगे 'थे' लगाना उचित नहीं, क्योंकि सांई आज भी हमारे बीच हैं। बस, एक बार उनकी शरण में होना जरूरी है, तब वे आपके आसपास होंगे। यह अनुभूत सत्य है। सांई बाबा के बारे में बहुत भ्रम फैला है। वे हिन्दू थे या मुसलमान? क्या वे कबीर, नामदेव, पांडुरंग आदि के अवतार थे। कुछ लोग कहते हैं कि वे शिव के अंश हैं और कुछ को उनमें दत्तात्रेय का अंश नजर आता है। अन्य लोग कहते हैं कि वे अक्कलकोट महाराज के अंश हैं।
 
कट्टर धार्मिक युग में व्यक्ति हर संत को धर्म के आईने में देखना चाहता है। कट्टरपंथी हिन्दू भी जानना चाहते हैं कि वे हिन्दू थे या मुसलमान? यदि मुसलमान थे तो फिर हम उनकी पूजा क्यों करें? मुसलमान भी जानना चाहते हैं कि अगर यदि वे हिन्दू थे तो फिर हम उनकी समाधि पर जाकर दुआ क्यों करें?
 
सांई बाबा के बारे में अधिकांश जानकारी श्रीगोविंदराव रघुनाथ दाभोलकर द्वारा लिखित 'श्री सांई सच्चरित्र' से मिलती है। मराठी में लिखित इस मूल ग्रंथ का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। यह सांई सच्चरित्र सांई बाबा के जिंदा रहते ही 1910 से लिखना शुरू किया। 1918 के समाधिस्थ होने तक इसका लेखन चला। लेकिन अब सवाल यह उठता है कि कितने हैं, जो 'सबका मालिक एक' की घोषणा करते हैं। यह देखा गया है कि सांई को मानने वाले भी ज्योतिषी, तथाकथित बाबा और अन्य लोगों के चक्कर में भटकते रहते हैं। इससे पता चलता है कि वे सब भ्रमित हैं व उन्हें सांई पर भरोसा नहीं है।
 
सांई बाबा का मिशन था- लोगों में एकेश्वरवाद के प्रति विश्वास पैदा करना। उन्हें कर्मकांड, ज्योतिष आदि से दूर रखना और उनके दुख-दर्द को दूर करना साथ ही समाज में भाईचारा कायम करना।
 
सांई हिन्दू थे या मुसलमान

सांई अपना ज्यादातर वक्त मुस्लिम फकीरों के संग बिताते थे, लेकिन माना जाता है कि उन्होंने किसी के साथ कोई भी व्यवहार धर्म के आधार पर नहीं किया। जो लोग सांई बाबा को हिन्दू मानते हैं वे उनके हिन्दू होने का तर्क देते हैं, जैसे-
 
हिन्दू होने के कुछ कारण :
1. बाबा धूनी रमाते थे। धुनी तो सिर्फ शैव और नाथपंथी संत ही जलाते हैं।
2. बाबा के कान बिंधे हुए थे। कान छेदन सिर्फ नाथपंथियों में ही होता है।
3. सांई बाबा हर सप्ताह नाम कीर्तन का आयोजन करते थे जिसमें विट्ठल (कृष्ण) के भजन होते थे। बाबा कहते थे- ठाकुरनाथ की डंकपुरी, विट्ठल की पंढरी, रणछोड़ की द्वारिका यहीं तो है।
4. सांई बाबा कपाल पर चंदन और कुंकू लगाते थे।
5. जहां बाबा पहली बार लोगों को दिखे थे उस स्थान पर बाबा के गुरु का तप स्थान था। जब उस समाधि की खुदाई की गई तब वहां चार दीपक जल रहे थे। म्हालसापति तथा शिर्डी के अन्य भक्त इस स्थान को बाबा के गुरु का समाधि-स्थान मानकर सदैव नमन किया करते थे।
 
सांई के बारे में जानकार मानते हैं कि वे नाथ संप्रदाय का पालन करते थे। हाथ में पानी का कमंडल रखना, धूनी रमाना, हुक्का पीना, कान बिंधवाना और भिक्षा पर ही निर्भर रहना- ये नाथ संप्रदाय के साधुओं की निशानी हैं। नाथों में धूनी जलाना जरूरी होता है जबकि इस्लाम में आग हराम मानी गई है। सिर्फ इस एक कर्म से ही उनका नाथपंथी होना सिद्ध होता है।
 
सांई के मुस्लिम होने का तर्क...

कुछ लोग सांई को एक मुस्लिम फकीर मानते हैं। वे कहते हैं कि सांई एक मुस्लिम फकीर थे और मुसलमानों की तरह ही उन्होंने अपना जीवन-यापन किया। इसके लिए वे तर्क देते हैं-
 
1. 'सांई' शब्द फ़ारसी का है जिसका अर्थ होता है संत। उस काल में आमतौर पर मुस्लिम संन्यासियों के लिए इस शब्द का प्रयोग होता था। शिर्डी में सांई सबसे पहले जिस मंदिर के बाहर आकर रुके थे उसके पुजारी ने उन्हें सांई कहकर ही संबोधित किया था। मंदिर के पुजारी को वे मुस्लिम फकीर ही नजर आए तभी तो उन्होंने उन्हें सांई कहकर पुकारा।
 
2. सांई ने यह कभी नहीं कहा कि 'सबका मालिक एक'। सांई सच्चरित के अध्याय 4, 5, 7 में इस बात का उल्लेख है कि वे जीवनभर सिर्फ 'अल्लाह मालिक है' यही बोलते रहे। कुछ लोगों ने उनको हिन्दू संत बनाने के लिए यह झूठ प्रचारित किया कि वे 'सबका मालिक एक है' भी बोलते थे।
 
3. कोई हिन्दू संत सिर पर कफन जैसा नहीं बांधता, ऐसा सिर्फ मुस्लिम फकीर ही बांधते हैं। जो पहनावा सांई का था वह एक मुस्लिम फकीर का ही हो सकता है।
 
4. सांई बाबा ने रहने के लिए मस्जिद का ही चयन क्यों किया? वहां और भी स्थान थे, लेकिन वे जिंदगीभर मस्जिद में ही रहे।
 
5. सांई सच्चरित के अनुसार सांई बाबा पूजा-पाठ, ध्यान, प्राणायाम और योग के बारे में लोगों से कहते थे कि इसे करने की कोई जरूरत नहीं है। उनके इस प्रवचन से पता चलता है कि वे हिन्दू धर्म विरोधी थे।
 
6. मस्जिद से बर्तन मंगवाकर वे मौलवी से फातिहा पढ़ने के लिए कहते थे। इसके बाद ही भोजन की शुरुआत होती थी।
 
7. सांई को सभी यवन मानते थे। वे हिन्दुस्तान के नहीं, अफगानिस्तान के थे इसीलिए लोग उन्हें यवन का मुसलमान कहते थे। उनकी कद-काठी और डील-डोल यवनी ही था। सांई सच्चरित अनुसार एक बार सांई ने इसका जिक्र भी किया था। जोभी लोग उनसे मिलने जाते थे उन्हें मुस्लिम फकीर ही मानते थे, लेकिन उनके सिर पर लगे चंदन को देखकर लोग भ्रमित हो जाते थे।
 
8. ठंड से बचने के लिए बाबा धूनी में आग जलाते थे। उनके इस आग जलाने को लोगों ने धूनी रमाना माना।
 
कहां हुआ सांई का जन्म...

महाराष्ट्र के पाथरी (पातरी) गांव में सांईं बाबा का जन्म 28 सितंबर 1835 को हुआ था। कुछ लोग मानते हैं कि उनका जन्म 27 सितंबर 1838 को तत्कालीन आंध्रप्रदेश के पथरी गांव में हुआ था और उनकी मृत्यु 28 सितंबर 1918 को शिर्डी में हुई।
 
ज्यादातर जगह पर लिखा है कि सांई 1854 में पहली बार शिर्डी में देखे गए, तब वे किशोण अवस्था के थे। यदि उनकी उम्र उस वक्त 16 वर्ष थी तो इस मान से 1838 में उनका जन्म हुआ होगा। खुद को सांई का अवतार मानने वाले सत्य सांई बाबा ने बाबा का जन्म 27 सितंबर 1830 को महाराष्ट्र के पाथरी (पातरी) गांव में बताया है। यह सत्य सांई की बात माने तो सिर्डी में सांई के आगमन के समय उनकी उम्र 23 से 25 के बीच रही होगी। सत्य सांई बाबा का अनुमान सही लगता है क्योंकि उनकी जीवन यात्रा पर विचार करें तो उनका इसी उम्र में शिर्डी में प्रवेश होना चाहिए।
 
ऐसा विश्वास किया जाता है कि महाराष्ट्र के परभणी जिले के पाथरी गांव में सांई बाबा का जन्म हुआ था और सेल्यु में बाबा के गुरु वैकुंशा रहते थे। यह हिस्सा हैदराबाद निजामशाही का एक भाग था। भाषा के आधार पर प्रांत रचना के चलते यह हिस्सा महाराष्ट्र में आ गया तो अब इसे महाराष्ट्र का हिस्सा माना जाता है।
 
महाभारत काल में पांडवों ने यहां अश्वमेध यज्ञ किया था, तब अर्जुन अपनी फौज लेकर यहां उपस्थित थे। अर्जुन को पार्थ भी कहा जाता है। यही पार्थ बिगड़कर पाथरी हो गया। अब पातरी व पात्री कहा जाता है।
 
कौन थे सांई बाबा के माता-पिता...

सांई के जन्म स्थान पाथरी (पातरी) पर एक मंदिर बना है। मंदिर के अंदर सांई की आकर्षक मूर्ति रखी हुई है। यह बाबा का निवास स्थान है, जहां पुरानी वस्तुएं जैसे बर्तन, घट्टी और देवी-देवताओं की मूर्तियां रखी हुई हैं।
 
मंदिर के व्यवस्थापकों के अनुसार यह सांई बाबा का जन्म स्थान है। उनके अनुसार सांई के पिता का नाम गोविंद भाऊ और माता का नाम देवकी अम्मा है। कुछ लोग उनके पिता का नाम गंगाभाऊ बताते हैं और माता का नाम देवगिरी अम्मा। कुछ हिन्दू परिवारों में जन्म के समय तीन नाम रखे जाते थे इसीलिए बीड़ इलाके में उनके माता-पिता को भगवंत राव और अनुसूया अम्मा भी कहा जाता है। वे यजुर्वेदी ब्राह्मण होकर कश्यप गोत्र के थे। सांई के चले जाने के बाद उनके परिवार के ‍लोग शायद हैदराबाद चले गए थे और फिर उनका कोई अता-पता नहीं चला।
 
शशिकांत शांताराम गडकरी की किताब 'सद्‍गुरु सांई दर्शन' (एक बैरागी की स्मरण गाथा) अनुसार सांई ब्राह्मण परिवार के थे। उनका परिवार वैष्णव ब्राह्मण यजुर्वेदी शाखा और कोशिक गोत्र का था। उनके पिता का नाम गंगाभाऊ और माता का नाम देवकीगिरी था। दे‍वकिगिरी के पांच पुत्र थे। पहला पुत्र रघुपत भुसारी, दूसरा दादा भूसारी, तीसरा हरिबाबू भुसारी, चौथा अम्बादास भुसारी और पांचवें बालवंत भुसारी थे। सांई बाबा गंगाभाऊ और देवकी के तीसरे नंबर के पुत्र थे। उनका नाम था हरिबाबू भूसारी।
 
सांई बाबा के इस जन्म स्थान के पास ही भगवान पांडुरंग का मंदिर है। इसी मंदिर के बाईं और देवी भगवती का मंदिर है जिसे लोग सप्तश्रृंगीदेवी का रूप मानते हैं। इसी मंदिर के पास चौधरी गली में भगवान दत्तात्रेय और सिद्ध स्वामी नरसिंह सरस्वती का भी मंदिर है, जहां पवित्र पादुका का पूजन होता है। लगभग सभी मराठी भाषियों में नरसिंह सरस्वती का नाम प्रसिद्ध है।
 
थोड़ी ही दूरी पर राजाओं के राजबाड़े हैं। यहां से एक किलोमीटर दूर सांई बाबा का पारिवारिक मारुति मंदिर है। सांई बाबा का परिवार हनुमान भक्त था। वे उनके कुल देवता हैं। यह मंदिर खेतों के मध्य है, जो मात्र एक गोल पत्थर से बना है। यहीं पास में एक कुआं है, जहां सांई बाबा स्नान कर मारुति का पूजन करते थे। सांई बाबा पर हनुमानजी की कृपा थी।
 
सांई की शिक्षा-दीक्षा...

सांई बाबा की पढ़ाई की शुरुआत घर से ही हुई। उनके पिता वेदपाठी ब्राह्मण थे। उनके सान्निध्य में हरिबाबू (सांई) ने बहुत तेजी से वेद-पुराण पढ़े और वे कम उम्र में ही पढ़ने-लिखने लगे। 7-8 वर्ष की उम्र में सांई को पाथरी के गुरुकुल में उनके पिता ने भर्ती किया ताकि यह कर्मकांड सीख ले और कुछ गुजर-बसर हो। यहां ब्राह्मणों को वेद- ‍पुराण आदि पाठ पढ़ाया जाता था। जब सांई 7-8 वर्ष के थे तो अपने गुरुकुल के गुरु से शास्त्रार्थ करते थे।
 
गुरुकुल में सांई को वेदों की बातें पसंद आईं, लेकिन वे पुराणों से सहमत नहीं थे और वे अपने गुरु से इस बारे में बहस करते थे। वे पुराणों की कथाओं से संभ्रमित थे और उनके खिलाफ थे। तर्क-वितर्क द्वारा वे गुरु से इस बारे में चर्चा करते थे। गुरु उनके तर्कों से परेशान रहते थे। वे वेदों के अंतिम और सार्वभौमिक सर्वश्रेष्ठ संदेश 'ईश्वर निराकार है' इस मत को ही मानते थे। अंत में हारकर गुरु ने कहा- एक दिन तुम गुरुओं के भी गुरु बनोगे। सांई ने वह गुरुकुल छोड़ दिया।
 
गुरुकुल छोड़कर वे हनुमान मंदिर में ही अपना समय व्यतीत करने लगे, जहां वे हनुमान पूजा-अर्चना करते और सत्संगियों के साथ रहते। उन्होंने 8 वर्ष की उम्र में ही संस्कृत बोलना और पढ़ना सीख लिया था। उन्होंने चारों वेद और 18 पुराणों का अध्ययन कर लिया था।
 
पिता की मौत के बाद बदल गया जीवन...

सांई जिस इलाके में रहते थे वह हैदराबाद निजामशाही का एक भाग था। उनकी राजशाही में मुस्लिमों का एक हथियारबंद संगठन था जिसे रजाकार कहा जाता था। इसके लोग हिन्दुओं को धर्मांतरण के लिए मजबूर करते थे। हिन्दुओं पर कट्टरपंथी लोग तरह-तरह के अत्याचार करते या उन पर मनमाने टैक्स लगाते थे।
 
सांई का परिवार गरीब ब्राह्मण परिवार था। उनके पास खेती योग्य भूमि नहीं थी और न ही कोई रोटी-रोजगार। यदि वे इस्लाम कबूल कर लेते तो उनकी गरीबी दूर हो जाती और उनकी हैसियत बढ़ जाती। उनके माता-पिता जैसे-तैसे भिक्षा मांगकर, मजदूरी करके पांचों बच्चों का पेट पाल रहे थे। कई बार ऐसा होता कि माता-पिता को भूखा सोना पड़ता था लेकिन वे दोनों बच्चों का पेट भरने के लिए जी-तोड़ मेहनत करते।
 
उनके घर के पास ही मुस्लिम परिवार रहता था। उनका नाम चांद मिया था और उनकी पत्नी चांद बी थी। उन्हें कोई संतान नहीं थी। हरिबाबू उनके ही घर में अपना ज्यादा समय व्यतीत करते थे। चांद बी हरिबाबू को पुत्रवत ही मानती थीं।
 
रजाकारों का जुल्म बढ़ा तो उनके पिता ने वह स्थान छोड़ने का मन बनाया। उस गांव में वे अपमान का घूंट पी रहे थे। एक बार गंगाभाऊ अपने परिवार के साथ पंढरपुर गए। भीमा नदी पंढरपुर के पास से बहती नदी है। गंगाभाऊ का परिवार नाव में बैठकर नदी पार कर रहा था तभी दुर्भाग्य से नाव पलटी और परिवार डूबने लगा। किनारे खड़े एक सूफी फकीर और तीर्थयात्रियों ने जैसे-तैसे सभी को बचाया लेकिन वे गंगाभाऊ को नहीं बचा सके।
 
जिस फकीर के प्रयास से यह परिवार बच गया उसका नाम था वली फकीर। उसने ही सभी अंतिम कार्य संपन्न कराए और देवगिरी सहित पांचों लड़कों के भोजन आदि की व्यवस्था की। मुस्लिम फकीर के साथ देवगिरी के रहने के कारण लोग उन्हें बदनाम करने लगे तो वली फकीर देवगिरी को समझा-बुझाकर हरिबाबू को अपने साथ ले गए। देवगिरी के दोनों बड़े पुत्र रोजी-रोटी की तलाश में हैदराबाद चले गए और खुद देवगिरी अपने दो पुत्रों के साथ अपनी माता के गांव चली गईं। इस तरह पिता की मौत के बाद पूरा परिवार बिखर गया।
 
इस्लामाबाद में सांई बाबा...

8 वर्ष की उम्र में पिता की मृत्यु के बाद बाबा को सूफी वली फकीर ने पाला, जो उन्हें एक दिन ख्वाजा शमशुद्दीन गाजी की दरगाह पर इस्लामाबाद ले गए। यहां वे कुछ दिन रहे, जहां एक सूफी फकीर आए जिनका नाम था रोशनशाह फकीर। रोशनशाह फकीर अजमेर से आए हुए थे और इस्लाम के प्रचारक थे। रोशनशाह को सांई में रूहानीपन नजर आया और हरिबाबू (सांई) को लेकर अजमेर आ गए। इस तरह सांई वली फकीर के बाद रोशनशाह के साथी बन गए।
 
अजमेर स्थित ख्वाजा की दरगाह में सांई बाबा...

अजमेर में सांई बाबा सूफी संत रोशनशाह के साथ रहे। वहां उन्होंने इस्लाम के अलावा कई देशी दवाओं की जानकारी हासिल की। कुरआन को उन्होंने मुखाग्र कर लिया था। सिरा, सुन्ना, हदीस, फक्का, शरीयत तारिखान को भी याद कर लिया। इस्लाम की इन धार्मिक शिक्षाओं में वे पक्के हो गए, तब उनकी उम्र थी मात्र 12-13 वर्ष।
 
इस दौरान सांई बाबा ने जहां इस्लाम और सूफीवाद को करीब से जाना वहीं उनके मन में पिता और गुरु के द्वारा वेदांती शिक्षा की ज्योति भी जलती रही। भीतर से वे पक्के वेदांती थे तभी तो उनको दूसरे मुस्लिमों ने कई बार इस्लाम कबूल करने के प्रस्ताव दिए, लेकिन हर बार उन्होंने इसको दृढ़ता से खारिज कर दिया। वे धर्म-परिवर्तन के कट्टर विरोधी थे।
 
रोशनशाह एक बार धार्मिक प्रचार के लिए इलाहाबाद गए, जहां हृदयाघात से उनका निधन हो गए। रोशनशाह बहु‍त ही पहुंचे हुए फकीर थे और वे मानवता के लिए ही कार्य करते थे। वे इस्लाम के प्रचारक जरूर थे लेकिन उनके मन में किसी को जबरन मुसलमान बनाने की भावना नहीं थी। रोशनशाह के जाने के बार हरिबाबू (सांई) एक बार फिर अनाथ हो गए।
 
बाबा का अयोध्या दर्शन...

रोशनशाह बाबा की मृत्यु के समय इलाहाबाद में थे हरिबाबू (सांई बाबा)। जब इलाहाबाद में थे बाबा, तब संतों का सम्मेलन चल रहा था। हिन्दुओं का पर्व चल रहा था। कोने-कोने से देश के संत आए हुए थे जिसमें नाथ संप्रदाय के संत भी थे।
 
बाबा का झुकाव नाथ संप्रदाय और उनके रीति-रिवाजों की ओर ज्यादा था। वे नाथ संप्रदाय के प्रमुख से मिले और उनके साथ ही संत समागम और सत्संग किया। बाद में वे उनके साथ अयोध्या गए और उन्होंने राम जन्मभूमि के दर्शन किए, जहां उस वक्त बाबरी ढांचा खड़ा था।
 
अयोध्या पहुंचने पर नाथ पंथ के संत ने उन्हें सरयू में स्नान कराया और उनको एक चिमटा (सटाका) भेंट किया। यह नाथ संप्रदाय का हर योगी अपने पास रखता है। फिर नाथ संत प्रमुख ने उनके कपाल पर चंदन का तिलक लागाकर कहा कि वे हर समय इसका धारण करके रखें। जीवनपर्यंत बाबा ने तिलक धारण करके रखा लेकिन सटाका उन्होंने हाजी बाबा को भेंट कर दिया था।
 
अयोध्या यात्रा के बाद नाथपंथी तो अपने डेरे चले गए लेकिन हरिबाबू अकेले रह गए। बाबा घूमते-फिरते राजपुर पहंचे, वहां से चित्रकूट और फिर बीड़। बीड़ गांव में बाबा को भिक्षा देने से लोगों ने इंकार किया, तब एक मारवाड़ी प्रेमचंद ने उनकी सहायता की। उन्होंने बाबा को काम पर रखा। बाबा ने कुछ दिन वहां साड़ियों पर नक्काशी का काम किया और इस काम से साड़ियों की मांग बढ़ गई जिससे इसकी कीमत भी दोगुनी हो गई। मारवाड़ी ने भी बाबा का मेहनताना दोगुना कर दिया लेकिन बाबा का वहां मन नहीं लग रहा था। उनको अपने गांव पातरी की याद आ रही थी।
 
वैंकुशा के आश्रम में साई का प्रवेश...

बीड़ के बाद बाबा ने अपने गांव का रुख किया इस आशा से कि वहां उनकी मां मिलेगी, भाई होंगे और वह उनका जन्म स्थान भी है लेकिन वहां पहुंचने के बाद पता चला कि वहां कोई नहीं है। अंत में वे पड़ोस में रहने वाली चांद बी से मिले। चांद बी ने उनको सारा किस्सा बताया। चांद मियां को मरे बहुत दिन हो गए थे। हरिबाबू को देखकर चांद बी प्रसन्न हुईं।
 
चांद बी हरिबाबू (बाबा) के रहने-खाने की व्यवस्था के लिए उन्हें नजदीक के गांव सेलू (सेल्यु) के वैंकुशा आश्रम में ले गई। उस वक्त बाबा की उम्र 15 वर्ष रही होगी।
 
वैंकुशा बाबा एक दैवीय शक्ति संपन्न व्यक्ति थे और वे दत्त संप्रदाय की परंपरा का निर्वाह करने वाले संत थे। आश्रम के बाहर चांद बी और बाबा को इसलिए रोक दिया गया, क्योंकि दोनों अपने पहनावे से मुस्लिम नजर आ रहे थे। बाबा ने भी फकीरों जैसा बाना धारण कर रखा था। चांद बी ने मन ही मन वैंकुशा बाबा की प्रार्थना की तो ध्यान में बैठे बाबा को एकदम जाग्रति आ गई और वे खुद ही उठकर आश्रम के द्वार पर आ गए।
 
बाबा से कुछ सवाल-जवाब करने के बाद वैकुंशा उनके उत्तरों से संतुष्ट हो गए और उन्होंने अपने आश्रम में उनको प्रवेश दिया। वे बाबा के उत्तरों से इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने हरिबाबू को गले लगाकर अपना शिष्य बनाया। वैकुंशा के दूसरे शिष्य सांई बाबा से बैर रखते थे, लेकिन वैंकुशा के मन में बाबा के प्रति प्रेम बढ़ता गया और एक दिन उन्होंने अपनी मृत्यु के पूर्व बाबा को अपनी सारी शक्तियां दे दीं और वे बाबा को एक जंगल में ले गए, जहां उन्होंने पंचाग्नि तपस्या की। वहां से लौटते वक्त कुछ मुस्लिम कट्टरपंथी लोग हरिबाबू (सांई बाबा) पर ईंट-पत्थर फेंकने लगे।
 
बाबा को बचाने के लिए वैंकुशा सामने आ गए तो उनके सिर पर एक ईंट लगी। वैंकुशा के सिर से खून निकलने लगा। बाबा ने तुरंत ही कपड़े से उस खून को साफ किया। वैंकुशा ने वही कपड़ा बाबा के सिर पर तीन लपेटे लेकर बांध दिया और कहा कि ये तीन लपेटे संसार से मुक्त होने और ज्ञान व सुरक्षा के हैं। जिस ईंट से चोट लगी थी बाबा ने उसे उठाकर अपनी झोली में रख लिया। इसके बाद बाबा ने जीवनभर इस ईंट को ही अपना सिरहाना बनाए रखा।
 
आश्रम पहुंचने के बाद दोनों ने स्नान किया और फिर वैंकुशा ने बताया कि 80 वर्ष पूर्व वे स्वामी समर्थ रामदास की चरण पादुका के दर्शन करने के लिए सज्जनगढ़ गए थे, वापसी में वे शिर्डी में रुके थे। उन्होंने वहां एक मस्जिद के पास नीम के पेड़ के नीचे ध्यान किया और उसी वक्त गुरु रामदास के दर्शन हुए और उन्होंने कहा कि तुम्हारे शिष्यों में से ही कोई एक यहां रहेगा और उसके कारण यह स्थान तीर्थ क्षेत्र बनेगा। वैकुंशा ने आगे कहा कि वहीं मैंने रामदास की स्मृति में एक दीपक जलाया है, जो नीम के पेड़ के पास नीचे एक शिला की आड़ में रखा है।
 
इस वार्तालाप के बाद वैकुंशा ने बाबा को तीन बार सिद्ध किया हुआ दूध पिलाया। इस दूध को पीने के बाद बाबा को चमत्कारिक रूप से अष्टसिद्धि शक्ति प्राप्त हुई और वे एक दिव्य पुरुष बन गए। उन्हें परमहंस होने की अनुभूति हुई। इसके बाद वैकुंशा ने देह छोड़ दी। वैंकुशा के जाने के बाद सांई बाबा का आश्रम में रुकने का कोई महत्व नहीं रहा। इस आश्रम में बाबा करीब 8 वर्ष रहे यानी उस वक्त उनकी उम्र 22-23 वर्ष रही होगी।
 
सांई बाबा का शिर्डी में प्रथम प्रवेश...

वैंकुशा की आज्ञा से सांई बाबा घूमते-फिरते शिर्डी पहुंचे। तब शिर्डी गांव में कुल 450 परिवारों के घर होंगे। शिर्डी के आसपास घने जंगल थे। वहां बाबा ने सबसे पहले खंडोबा मंदिर के दर्शन किए फिर वे वैकुंशा के बताए उस नीम के पेड़ के पास पहुंच गए। नीम के पेड़ के नीचे उसके आसपास एक चबूतरा बना था, जहां बैठकर बाबा ने कुछ देर ध्यान किया और फिर वे गांव में भिक्षा मांगने के लिए निकल पड़े।
 
ग्रामीणों ने उन्हें भिक्षा में काफी अन्न दिया। उसे ग्रहण कर वे बाकी बचा भोजन पीछे- पीछे चल रहे श्वान को खिलाते गए और पुन: नीम के झाड़ के पास आ बैठे। उनका प्रतिदिन का यह नियम बन गया था। नीम के झाड़ के नीचे ही सोना-उठना, बैठना-ध्यान करना और फिर गांव में भिक्षा मांगने के लिए निकल पड़ना।
 
कुछ लोगों ने उत्सुकतावश पूछा कि आप यहां नीम के वृक्ष के नीचे ही क्यों रहते हैं? इस पर बाबा ने कहा कि यहां मेरे गुरु ने ध्यान किया था इसलिए मैं यहीं विश्राम करता हूं। कुछ लोगों ने उनकी इस बात का उपहास उड़ाया, तब बाबा ने कहा कि यदि उन्हें शक है तो वे इस स्थान पर खुदाई करें। ग्रामीणों ने उस स्थान पर खुदाई की, जहां उन्हें एक शिला नजर आई।
 
शिला को हटाते ही एक द्वार दिखा, जहां चार दीप जल रहे थे। उन दरवाजों का मार्ग एक गुफा में जाता था, जहां गौमुखी आकार की इमारत, लकड़ी के तख्ते, मालाएं आदि दिखाई पड़े। इस घटना के बाद लोगों में बाबा के प्रति श्रद्धा जाग्रत हो गई। बाबा ने उनके झोले से वही ईंट निकाली और उस दीपक के पास रख दी और ग्रामीणों से कहा कि इसे पुन: बंद कर दें।
 
म्हालसापति, श्यामा तथा शिर्डी के अन्य भक्त इस स्थान को बाबा के गुरु का समाधि-स्थान मानकर सदैव नमन किया करते थे। प्रमुख ग्रामीणों में म्हालसापति और श्यामा बाबा के अनुयायी बन गए। वायजा माई नामक एक महिला थी, जो बाबा को प्रतिदिन भिक्षा देती थी। यदि बाबा किसी कारणवश भिक्षा लेने नहीं आते तो वे खुद नीम के वृक्ष के नीचे उनको भिक्षा देने पहुंच जाती थी। गांव के हिन्दू और मुसलमानों के बीच इसको लेकर चर्चा होती रहती थी कि बाबा हिन्दू हैं या मुसलमान? तीन महीने बाद बाबा किसी को भी बताए बगैर शिर्डी छोड़कर चले गए। लोगों ने उन्हें बहुत ढूंढा लेकिन वे नहीं मिले।
 
और कैसे पड़ा सांई का नाम सांई?

तीन माह बाद अचानक ही सांई कहीं चले गए और तीन साल बाद चांद पाशा पाटिल (धूपखेड़ा के एक मुस्लिम जागीरदार) के साथ उनकी साली के निकाह के लिए बैलगाड़ी में बैठकर बाराती बनकर आए।
 
इस बार तरुण फकीर के वेश में बाबा म्हालसापति के यहां गए तो उन्होंने उनका 'या सांई' 'आओ सांई' कहकर स्वागत किया, तब से उनका नाम ‘सांई बाबा’ पड़ गया। म्हालसापति विश्वकर्मा समुदाय के थे और सुनारी का काम करते थे। आज लोग इसका अर्थ यूं निकालते हैं- सांई का अर्थ हरि और बाबा का अर्थ भाऊ।
 
म्हालसापति को सांई बाबा भगत के नाम से पुकारते थे। म्हालसापति और श्‍यामा को सांई बाबा में अटूट विश्वास था। वे उनके चमत्कार और संतत्व को जानते थे। माना जाता है कि यह बात 1854 की है जबकि ‍बाबा का दूसरी बार शिर्डी में आगमन हुआ लेकिन शिर्डी के लोगों का कहना है कि 1856-58 में सांई बाबा नीम के नीचे पहली बार नजर आए।
 
तीन साल तक कहां रहे बाबा?

बाबा शिर्डी से पंचवटी गोदावरी के तट पर पहुंच गए थे, जहां उन्होंने ध्यान-तप किया। यहां बाबा की मुलाकात ब्रह्मानंद सरस्वती से हुई। बाबा ने उन्हें आशीर्वाद दिया। पंचवटी के बाद बाबा शेगांव जा पहुंचे, जहां वे गजानन महाराज से मिले। वहां कुछ दिन रुकने के बाद बाबा देवगिरी के जनार्दन स्वामी की कुटिया पर पहुंचे। वहां से वे बिडर (बीड़) पहुंचे। वहां से फिर वे हसनाबाद गए जिसे पहले माणिक्यापुर कहा जाता था। माणिक प्रभु इस क्षेत्र के महान संत थे।
 
माणिक प्रभु के पास बाबा पहुंचे तो माणिक प्रभु ने उन्हें गौर से देखा और फिर खड़े होकर गले लगा लिया। माणिक प्रभु के पास एक चमत्कारिक मग था जिसे आज तक कोई किसी भी वस्तु से भर नहीं सका था। कितने ही सिक्के डालो, मग खाली का खाली रहता था। बाबा ने कुछ खजूर और फूल उसमें डाले और मग भरा गया।
 
फिर बाबा वहां से बीजापुर होते हुए नरसोबा की वाडी पहुंच गए। यहां दत्त अवतार नृसिंह सरस्वती के चरण पादुका के दर्शन किए। यहीं कृष्णा नदी के किनारे एक युवा को तपस्या करते देखा तो उसे आशीर्वाद दिया और कहा कि तुम बड़े संत बनोगे। यही युवक आगे चलकर वासुदेवानंद सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने ही मराठी में गुरु चरित्र लिखा था।
 
इसके पश्चात बाबा सज्जनगढ़ पहुंच गए, जहां समर्थ रामदास की चरण पादुका के दर्शन किए। इसके बाद बाबा सूफी फकीरों की दरगाह, हिन्दू संतों की समाधि पर जाते हाजिरी लगाते रहे। बाद में बाबा अहमदाबाद पहुंच गए, जहां सुहागशाह बाबा की दरगाह पर कुछ दिन रहे। मुसलमानों ने उन्हें एक कपड़ा दिया जिससे कि वे नमाज अदा करते वक्त सिर पर बांध सकें। बाबा अहमदाबाद से भगवान कृष्ण की नगरी द्वारिका जा पहुंचे। यहीं उन्होंने तय किया कि शिर्डी में वे अपने निवास का नाम 'द्वारिकामाई' रखेंगे। द्वारिका से बाबा प्रभाष क्षे‍त्र गए, जहां भगवान कृष्ण ने अपनी देह छोड़ दी थी।
 
पुन: शिर्डी आने से पहले चांद पाशा पाटिल के पास बाबा...

औरंगाबाद के करीब 10 किलोमीटर दो गांव हैं- सिंधू और बिंदू। बिंदू ग्राम के 2 किलोमीटर पहले 2 छोटी-बड़ी आमने-सामने टेकरियां हैं। उसमें से एक टेकरी पर स्थित एक आम के झाड़ के नीचे लंबे प्रवास के बाद बाबा विश्राम के लिए रुके।
 
ये दोनों ही गांव धूपखेड़ा के राजस्व अधिकारी चांद पाशा पाटिल के राजस्व उगाही के अधिकार में आते थे। उनका एक घोड़ा चरने के लिए गया था, जो पिछले 8 दिनों से नहीं मिल रहा था। धूपखेड़ा वहां से 15 किलोमीटर दूर था। चांद पाशा अपना घोड़ा खोजते हुए सिंधू ग्राम के सड़क मार्ग से उस टेकरी पर पहुंचे। सांई बाबा ने उन्हें देखते ही पूछा- क्या तुम अपना घोड़ा खोज रहे हो? वहां सामने की टेकरी के पीछे वह घास चर रहा है।
 
चांद पाशा पाटिल ने देखा कि यहां से सामने जो टेकरी है उसके पीछे का तो कुछ दिखाई नहीं दे रहा फिर ये कैसे कह सकते हैं कि वहां नीचे एक घोड़ा घास चर रहा है? उन्होंने वहां जाकर देखा तो वास्तव में वहां घोड़ा घास चर रहा था। चांद पाशा ने उसी वक्त बाबा के वहां कई चमत्कार देखे।
 
बिंदू होते हुए बाबा सिंधू ग्राम पहुंचे। चांद पाशा भी उनके पीछे घोड़ा लेकर चलने लगा। सिंधू ग्राम की टेकरी पर बाबा ने कनीफनाथ के मजार के दर्शन किए, वहीं बाबा ने चांद पाशा से पूछा- प्यास लगी है? तो पाशा ने कहा- हां। बाबा ने जमीन खोदकर पानी का झरना निकाल दिया।
 
चांद पाशा को आश्चर्य हुआ और उन्होंने बाबा को सूफी फकीर समझकर घर चलने का निमंत्रण दिया। पाशा के निमंत्रण पर बाबा धूपखेड़ा गांव पहुंच गए। धूपखेड़ा में चांद पाशा का भव्य बंगला था, जहां भरा-पूरा परिवार और रिश्तेदार मौजूद थे। चांद पाशा की साली की शादी की तैयारियां चल रही थीं। उनके मकान के पास ही एक नीम का झाड़ था, जहां एक शिला रखी थी। बाबा वहीं जाकर बैठक गए। बाबा चांद पाशा के यहां करीब एक माह रुके।
 
चांद पाशा पाटिल के साथ फिर से शिर्डी पहुंच गए बाबा। शिर्डी पहुंचने की कहानी हम पहले ही लिख चुके हैं। इसमें हमने लिखा था कि 'तीन माह बाद अचानक ही सांई कहीं चले गए और तीन साल बाद चांद पाशा पाटिल (धूपखेड़ा के एक मुस्लिम जागीरदार) के साथ उनकी साली के निकाह के लिए बाराती बनकर बैलगाड़ी में बैठकर आए।'
 
पुन: शिर्डी में आने के बाद सांई रहना चाहते थे मंदिर में...

शिर्डी पहुंचने के बाद बाबा म्हालसापति के घर पहुंच गए, जहां उनका स्वागत 'आओ सांई' कहकर किया गया तभी से शिर्डी में वे सांई नाम से प्रसिद्ध हो गए। सांई ने गांव के लोगों से परिचय बढ़ाया। वे गांव के लोगों का दुख-दर्द सुनते और उसे दूर करते। जहां उन्हें किसी चमत्कार के माध्यम से लोगों का दर्द दूर करना होता वहां वे चमत्कार का इस्तेमाल करते।
 
शिर्डी में बाबा नीम के पेड़ के पास पुन: पहुंच गए थे। तब बाबा की वेशभूषा मुस्लिम फकीरों जैसी ही थी, लेकिन वे सिर पर चंदन का तिलक धारण करते थे तो लोग समझ नहीं पाते थे कि ये कैसे मुस्लिम फकीर हैं या ये कैसे हिन्दू संत।
 
उस वक्त तक बाबा को गांव के सभी लोग चाहने और मानने लगे थे। तब बाबा ने खंडोबा मंदिर में रहने का निर्णय लिया, लेकिन मंदिर के पुजारी को इस पर ऐतराज था, क्योंकि वे मानते थे कि बाबा चांद पाशा पाटिल के साथ यहां एक मुस्लिम परिवार में आए और वहां ठहरे तो निश्चित ही उन्होंने मांस-भक्षण किया होगा। मंदिर के पुजारी को यह भी भय था कि बाबा कहीं मूर्ति को खंडित नहीं कर दें।
 
पुजारी बाबा को मुस्लिम मानते थे, लेकिन किसी पुजारी की बाबा के सामने बोलने की हिम्मत नहीं हुई। बाबा को जब पुजारी के मन की बात समझ में आई तब वे हंसते हुए मंदिर के बाहर चले गए। बाबा ने फिर एक खस्ताहाल मस्जिद को अपना ठिकाना बनाया।
 
मस्जिद बनी 'द्वारिकामाई' 

एक हिन्दू ने अपने मुसलमान भाइयों के लिए मस्जिद बनवाई थी लेकिन मुसलमानों के जाने के बाद वह मस्जिद खंडहर हो चुकी थी तथा वहां नमाज नहीं पढ़ी जाती थी। बाबा को जब और कोई ठिकाना न मिला हो उन्होंने मस्जिद की साफ-सफाई करवाकर उसे अपने रहने का स्थान बनाया और उस स्थान का नाम रखा- 'द्वारिकामाई'।

गांव के मुसलमान उसे 'हिन्दू मस्जिद' कहते थे। वहां पर रहकर बाबा गांव में भिक्षा मांगने जाते और उस भिक्षा के सहारे ही गुजर-बसर करते थे।
 
लोग उन्हें 'सांई' के नाम से पुकारा करते थे। उनकी दी गई जड़ी-बूटियों व भभूति से लोग भले-चंगे होते थे जिसके बदले में वे किसी से कुछ नहीं लेते थे। धीरे-धीरे उनके चमत्कार के चलते लोगों ने उनके यहां अन्न आदि सुख-सुविधाओं की पूर्ति कर दी। अब बाबा यहां लोगों को खुद अपने हाथ से भोजन कराने लगे थे। वे खुद चक्की चलाकर आटा निकालते थे और कड़ाव में दाल-भात बनाते थे। धीरे-धीरे उनके संतत्व की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी और उनसे मिलने दूर-दूर से लोग आने लगे।

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