एक अनाथ बालक की शिर्डी पहुंचकर सांईं बाबा बनने की दास्तान

अनिरुद्ध जोशी
सांईं बाबा हिन्दू थे या मुस्लिम, यह मायने नहीं रखता। वे एक सच्चे और सिद्ध संत थे जिन्होंने अपने जीवन में और देह छोड़ने के बाद भी गरीबों, दलितों और भक्तों की नि:स्वार्थ मदद की। यहां हम उनके जन्म से लेकर उनके शिर्डी में आने तक की कहानी को बयां कर रहे हैं। यह कहानी शशिकांत शांताराम गडकरी की किताब 'सद्‍गुरु सांईं दर्शन' सहित अन्य कई पुस्तकों पर आधारित है। 'सांईं सच्चरित्र' में इसका उल्लेख नहीं मिलता है।
 
 
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महाराष्ट्र के पाथरी (पातरी) गांव में सांईं बाबा का जन्म 28 सितंबर 1835 को हुआ था। पुट्टपर्थी के सत्य सांईं बाबा के अनुसार उनका जन्म 27 सितंबर 1830 को हुआ था। कुछ विद्वान 1842 का भी उल्लेख करते हैं और कुछ लोग मानते हैं कि उनका जन्म 27 सितंबर 1838 को तत्कालीन आंध्रप्रदेश के पथरी गांव में हुआ था और उन्होंने 15 अक्टूबर 1918 को देह त्याग दी थी। यह वर्ष सांईं बाबा की समाधि का शताब्दी वर्ष है।
 
 
ज्यादातर जगह पर लिखा है कि सांईं 1854 में पहली बार शिर्डी में देखे गए, तब वे किशोर अवस्था के थे। यदि सत्य सांईं बाबा की बात मानें तो शिर्डी में सांईं के आगमन के समय उनकी उम्र 23 से 25 के बीच रही होगी। सत्य सांईं बाबा का अनुमान सही लगता है, क्योंकि उनकी जीवनयात्रा पर विचार करें तो उनका इसी उम्र में शिर्डी में प्रवेश होना चाहिए।
 
 
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महाराष्ट्र के परभणी जिले के पाथरी गांव में सांईं बाबा का जन्म हुआ था। सांईं के पिता का नाम गोविंद भाऊ और माता का नाम देवकी अम्मा है। कुछ लोग उनके पिता का नाम गंगाभाऊ बताते हैं और माता का नाम देवगिरि अम्मा। कुछ हिन्दू परिवारों में जन्म के समय 3 नाम रखे जाते थे इसीलिए बीड़ इलाके में उनके माता-पिता को भगवंतराव और अनुसूया अम्मा भी कहा जाता है। कुछ विद्वानों के अनुसार वे यजुर्वेदी ब्राह्मण होकर कश्यप गोत्र के थे जबकि कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार वे मल्लाह समाज के थे। नाव चलाने वाले परिवार से, जो कि एक दलित समाज है।
 
 
शशिकांत शांताराम गडकरी की किताब 'सद्‍गुरु सांईं दर्शन' (एक बैरागी की स्मरण गाथा) के अनुसार सांईं ब्राह्मण परिवार के थे। उनका परिवार वैष्णव ब्राह्मण यजुर्वेदी शाखा और कोशिक गोत्र का था। दे‍वगिरि के 5 पुत्र थे। पहला पुत्र रघुपत भुसारी, दूसरा दादा भुसारी, तीसरा हरिबाबू भुसारी, चौथा अम्बादास भुसारी और पांचवें बालवंत भुसारी थे। सांईं बाबा गंगाभाऊ और देवकी के तीसरे नंबर के पुत्र थे। उनका नाम था हरिबाबू भुसारी।
 
 
सांईं बाबा का परिवार जहां रहता था वह हिस्सा हैदराबाद निजामशाही का एक भाग था। भाषा के आधार पर प्रांत रचना के चलते यह हिस्सा महाराष्ट्र में आ गया, तो अब इसे महाराष्ट्र का हिस्सा माना जाता है। सांईं बाबा के इस जन्म स्थान के पास ही भगवान पांडुरंग का मंदिर है। इसी मंदिर के बाईं और देवी भगवती का मंदिर है जिसे लोग सप्तश्रृंगीदेवी का रूप मानते हैं। इसी मंदिर के पास चौधरी गली में भगवान दत्तात्रेय और सिद्ध स्वामी नरसिंह सरस्वती का भी मंदिर है, जहां पवित्र पादुका का पूजन होता है। लगभग सभी मराठीभाषियों में नरसिंह सरस्वती का नाम प्रसिद्ध है।
 
 
थोड़ी ही दूरी पर राजाओं के राजबाड़े हैं। यहां से 1 किलोमीटर दूर सांईं बाबा का पारिवारिक मारुति हनुमान मंदिर है। सांईं बाबा का परिवार हनुमान भक्त था। वे उनके कुल देवता हैं। यह मंदिर खेतों के मध्य है, जो मात्र एक गोल पत्थर से बना है। यहीं पास में एक कुआं है, जहां सांईं बाबा स्नान कर भगवान मारुति का पूजन करते थे।
 
 
सांईं बाबा की पढ़ाई की शुरुआत घर से ही हुई। उनके पिता वेदपाठी ब्राह्मण थे। उनके सान्निध्य में हरिबाबू (सांईं) ने बहुत तेजी से वेद-पुराण पढ़े और वे कम उम्र में ही पढ़ने-लिखने लगे। 7-8 वर्ष की उम्र में सांईं को पाथरी के गुरुकुल में उनके पिता ने भर्ती किया ताकि यह कर्मकांड सीख ले और कुछ गुजर-बसर हो। यहां ब्राह्मणों को वेद-पुराण आदि पाठ पढ़ाया जाता था। जब सांईं 7-8 वर्ष के थे तो अपने गुरुकुल के गुरु से शास्त्रार्थ करते थे।
 
 
गुरुकुल में सांईं को वेदों की बातें पसंद आईं, लेकिन वे पुराणों से सहमत नहीं थे और वे अपने गुरु से इस बारे में बहस करते थे। वे पुराणों की कथाओं से संभ्रमित थे और उनके खिलाफ थे। तर्क-वितर्क द्वारा वे गुरु से इस बारे में चर्चा करते थे। गुरु उनके तर्कों से परेशान रहते थे। वे वेदों के अंतिम और सार्वभौमिक सर्वश्रेष्ठ संदेश 'ईश्वर निराकार है' इस मत को ही मानते थे। अंत में हारकर गुरु ने कहा- एक दिन तुम गुरुओं के भी गुरु बनोगे। सांईं ने वह गुरुकुल छोड़ दिया।
 
 
गुरुकुल छोड़कर वे हनुमान मंदिर में ही अपना समय व्यतीत करने लगे, जहां वे हनुमानजी की पूजा-अर्चना करते और सत्संगियों के साथ रहते। उन्होंने 8 वर्ष की उम्र में ही संस्कृत बोलना और पढ़ना सीख लिया था। उन्होंने चारों वेद और 18 पुराणों का अध्ययन कर लिया था।
 
 
सांईं जिस इलाके में रहते थे वह हैदराबाद निजामशाही का एक भाग था। उनकी राजशाही में मुस्लिमों का एक हथियारबंद संगठन था जिसे रजाकार कहा जाता था। इसके लोग हिन्दुओं को धर्मांतरण के लिए मजबूर करते थे। हिन्दुओं पर कट्टरपंथी लोग तरह-तरह के अत्याचार करते या उन पर मनमाने टैक्स लगाते थे।
 
 
सांईं का परिवार गरीब ब्राह्मण परिवार था। उनके पास खेती योग्य भूमि नहीं थी और न ही कोई रोटी-रोजगार। कहते हैं कि उनके माता-पिता जैसे-तैसे भिक्षा मांगकर, मजदूरी करके पांचों बच्चों का पेट पाल रहे थे। कई बार ऐसा होता कि माता-पिता को भूखा सोना पड़ता था लेकिन वे दोनों बच्चों का पेट भरने के लिए जी-तोड़ मेहनत करते।
 
 
उनके घर के पास ही मुस्लिम परिवार रहता था। उनका नाम चांद मिया था और उनकी पत्नी चांद बी थीं। उन्हें कोई संतान नहीं थी। हरिबाबू उनके ही घर में अपना ज्यादा समय व्यतीत करते थे। चांद बी हरिबाबू को पुत्रवत ही मानती थीं।
 
 
रजाकारों का जुल्म बढ़ा तो उनके पिता ने वह स्थान छोड़ने का मन बनाया। एक बार गंगाभाऊ अपने परिवार के साथ पंढरपुर गए। भीमा नदी पंढरपुर के पास से बहती है। गंगाभाऊ का परिवार नाव में बैठकर नदी पार कर रहा था तभी दुर्भाग्य से नाव पलटी और परिवार डूबने लगा। किनारे खड़े एक सूफी फकीर और तीर्थयात्रियों ने जैसे-तैसे सभी को बचाया लेकिन वे गंगाभाऊ को नहीं बचा सके।
 
 
जिस फकीर के प्रयास से यह परिवार बच गया उसका नाम था वली फकीर। उसने ही सभी अंतिम कार्य संपन्न कराए और देवगिरि सहित पांचों लड़कों के भोजन आदि की व्यवस्था की। मुस्लिम फकीर के साथ देवगिरि के रहने के कारण लोग उन्हें बदनाम करने लगे तो वली फकीर देवगिरि को समझा-बुझाकर हरिबाबू को अपने साथ ले गए। देवगिरि के दोनों बड़े पुत्र रोजी-रोटी की तलाश में हैदराबाद चले गए और खुद देवगिरि अपने दो पुत्रों के साथ अपनी माता के गांव चली गईं। इस तरह पिता की मौत के बाद पूरा परिवार बिखर गया।
 
 
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8 वर्ष की उम्र में पिता की मृत्यु के बाद बाबा को सूफी वली फकीर ने पाला, जो उन्हें एक दिन ख्वाजा शमशुद्दीन गाजी की दरगाह पर इस्लामाबाद ले गए। यहां वे कुछ दिन रहे, जहां एक सूफी फकीर आए जिनका नाम था रोशनशाह फकीर। रोशनशाह फकीर अजमेर से आए हुए थे और इस्लाम के प्रचारक थे। रोशनशाह को सांईं में रूहानीपन नजर आया और हरिबाबू (सांईं) को लेकर अजमेर आ गए। इस तरह सांईं वली फकीर के बाद रोशनशाह के साथी बन गए।
 
 
अजमेर में सांईं बाबा सूफी संत रोशनशाह के साथ रहे। वहां उन्होंने इस्लाम के अलावा कई देसी दवाओं की जानकारी हासिल की। कहते हैं कि कुरआन को उन्होंने मुखाग्र कर लिया था। सिरा, सुन्ना, हदीस, फक्का, शरीयत तारिखान को भी याद कर लिया। इस्लाम की इन धार्मिक शिक्षाओं में वे पक्के हो गए, तब उनकी उम्र संभवत: मात्र 12-13 वर्ष रही होगी।
 
 
इस दौरान सांईं बाबा ने जहां इस्लाम और सूफीवाद को करीब से जाना वहीं उनके मन में पिता और गुरु के द्वारा वेदांती शिक्षा की ज्योति भी जलती रही। रोशनशाह एक बार धार्मिक प्रचार के लिए इलाहाबाद गए, जहां हृदयाघात से उनका निधन हो गया। रोशनशाह बहु‍त ही पहुंचे हुए फकीर थे और वे मानवता के लिए ही कार्य करते थे। वे इस्लाम के प्रचारक जरूर थे लेकिन उनके मन में किसी को जबरन मुसलमान बनाने की भावना नहीं थी। रोशनशाह के जाने के बाद हरिबाबू (सांईं) एक बार फिर से अनाथ हो गए।
 
 
रोशनशाह बाबा की मृत्यु के समय इलाहाबाद में थे हरिबाबू (सांईं बाबा)। जब इलाहाबाद में थे बाबा, तब संतों का सम्मेलन चल रहा था। हिन्दुओं का पर्व चल रहा था। कोने-कोने से देश के संत आए हुए थे जिसमें नाथ संप्रदाय के संत भी थे। बाबा का झुकाव नाथ संप्रदाय और उनके रीति-रिवाजों की ओर ज्यादा होने लगा। वे नाथ संप्रदाय के प्रमुख से मिले और उनके साथ ही संत समागम और सत्संग किया। बाद में वे उनके साथ अयोध्या गए और उन्होंने राम जन्मभूमि के दर्शन किए, जहां उस वक्त बाबरी ढांचा खड़ा था।
 
 
अयोध्या पहुंचने पर नाथ पंथ के एक बड़े पहुंचे हुए संत ने उन्हें गौर से देखा और कुछ देर तक देखते ही रहे। बाद में वे बाबा को सरयू ले गए और वहां स्नान कराया और उनको एक चिमटा (सटाका) भेंट किया। यह नाथ संप्रदाय का हर योगी अपने पास रखता है। फिर नाथ संत प्रमुख ने उनके कपाल पर चंदन का तिलक लगाकर कहा कि 'बेटा, तू इसे हर समय अपने कपाल पर धारण करके रखना। जीवनपर्यंत बाबा ने तिलक धारण करके रखा लेकिन सटाका उन्होंने मरने से पहले हाजी बाबा को भेंट कर दिया था।'
 
 
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अयोध्या यात्रा के बाद नाथपंथी तो अपने डेरे पर चले गए लेकिन हरिबाबू फिर से अकेले रह गए। हरिबाबू मतलब बाबा घूमते-फिरते राजपुर पहुंचे, वहां से चित्रकूट और फिर बीड़ पहुंच गए। बीड़ गांव में बाबा को भिक्षा देने से लोगों ने इंकार किया, तब एक मारवाड़ी प्रेमचंद ने उनकी सहायता की। उन्होंने बाबा को काम पर रख लिया। बाबा ने कुछ दिन वहां साड़ियों पर नक्काशी का काम किया और इस काम से साड़ियों की मांग बढ़ गई जिससे इसकी कीमत भी दोगुनी हो गई। मारवाड़ी ने भी बाबा का मेहनताना दोगुना कर दिया लेकिन बाबा का वहां मन नहीं लग रहा था। उनको अपने गांव पाथरी की याद आ रही थी।
 
 
बीड़ के बाद बाबा ने अपने गांव का रुख किया इस आशा से कि वहां उनकी मां मिलेंगी, भाई होंगे और वह उनका जन्म स्थान भी है। लेकिन वहां पहुंचने के बाद पता चला कि वहां कोई नहीं है। अंत में वे पड़ोस में रहने वाली चांद बी से मिले। चांद बी ने उनको सारा किस्सा बताया और कहा कि चांद मियां को मरे बहुत दिन हो गए हैं। हालांकि हरिबाबू को देखकर चांद बी बहुत प्रसन्न हुईं। चांद बी हरिबाबू (बाबा) के रहने-खाने की व्यवस्था के लिए उन्हें नजदीक के गांव सेलू (सेल्यू) के वैंकुशा आश्रम में ले गईं। उस वक्त बाबा की उम्र 15 वर्ष रही होगी।
 
 
वैंकुशा बाबा एक दैवीय शक्ति संपन्न व्यक्ति थे और वे दत्त संप्रदाय की परंपरा का निर्वाह करने वाले संत थे। आश्रम के बाहर चांद बी और बाबा को इसलिए रोक दिया गया, क्योंकि दोनों अपने पहनावे से मुस्लिम नजर आ रहे थे। चांद बी तो मुस्लिम थीं ही। बाबा ने भी फकीरों जैसा बाना धारण कर रखा था। चांद बी ने मन ही मन वैंकुशा बाबा की प्रार्थना की तो ध्यान में बैठे बाबा को एकदम जाग्रति आ गई और वे खुद ही उठकर आश्रम के द्वार पर आ गए।
 
हरिबाबू से कुछ सवाल-जवाब करने के बाद वैकुंशा उनके उत्तरों से संतुष्ट हो गए और उन्होंने अपने आश्रम में उनको प्रवेश दिया। वे हरिबाबू के उत्तरों से इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने हरिबाबू को गले लगाकर अपना शिष्य बनाया। वैकुंशा के दूसरे शिष्य सांईं बाबा से बैर रखते थे, लेकिन वैंकुशा के मन में बाबा के प्रति प्रेम बढ़ता गया और एक दिन उन्होंने अपनी मृत्यु के पूर्व बाबा को अपनी सारी शक्तियां दे दीं और वे बाबा को एक जंगल में ले गए, जहां उन्होंने पंचाग्नि तपस्या की। वहां से लौटते वक्त कुछ मुस्लिम कट्टरपंथी लोग हरिबाबू (सांईं बाबा) पर ईंट-पत्थर फेंकने लगे।
 
 
हरिबाबू मतलब बाबा को बचाने के लिए वैंकुशा सामने आ गए तो उनके सिर पर एक ईंट लगी। वैंकुशा के सिर से खून निकलने लगा। बाबा ने तुरंत ही कपड़े से उस खून को साफ किया। वैंकुशा ने वही कपड़ा बाबा के सिर पर 3 लपेटे लेकर बांध दिया और कहा कि ये 3 लपेटे संसार से मुक्त होने और ज्ञान व सुरक्षा के हैं। जिस ईंट से चोट लगी थी बाबा ने उसे उठाकर अपनी झोली में रख लिया। ...इसके बाद बाबा ने जीवनभर इस ईंट को ही अपना सिरहाना बनाए रखा। जब बाबा के भक्त माधव फासले से यह ईंट टूट गई थी तो बाबा ने कहा था कि बस अब मेरा अंतिम वक्त आ गया है।
 
 
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आश्रम पहुंचने के बाद दोनों ने स्नान किया और फिर वैंकुशा ने बताया कि 80 वर्ष पूर्व वे स्वामी समर्थ रामदास की चरण पादुका के दर्शन करने के लिए सज्जनगढ़ गए थे, वापसी में वे शिर्डी में रुके थे। उन्होंने वहां एक मस्जिद के पास नीम के पेड़ के नीचे ध्यान किया और उसी वक्त गुरु रामदास के दर्शन हुए और उन्होंने कहा कि तुम्हारे शिष्यों में से ही कोई एक यहां रहेगा और उसके कारण यह स्थान तीर्थक्षेत्र बनेगा। वैकुंशा ने आगे कहा कि वहीं मैंने रामदास की स्मृति में एक दीपक जलाया है, जो नीम के पेड़ के पास नीचे एक शिला की आड़ में रखा है।
 
 
इस वार्तालाप के बाद वैकुंशा ने बाबा को 3 बार सिद्ध किया हुआ दूध पिलाया। इस दूध को पीने के बाद बाबा को चमत्कारिक रूप से अष्टसिद्धि शक्ति प्राप्त हुई और वे एक दिव्य पुरुष बन गए। उन्हें परमहंस होने की अनुभूति हुई। इसके बाद वैकुंशा ने देह छोड़ दी। वैंकुशा के जाने के बाद सांईं बाबा का आश्रम में रुकने का कोई महत्व नहीं रहा। वे एक बार फिर से अनाथ हो गए थे। इस आश्रम में बाबा करीब 8 वर्ष रहे यानी उस वक्त उनकी उम्र 22-23 वर्ष रही होगी।
 
 
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वैंकुशा की आज्ञा से सांईं बाबा घूमते-फिरते पहली बार शिर्डी पहुंचे। तब शिर्डी गांव में कुल 450 परिवारों के घर होंगे। शिर्डी के आसपास घने जंगल थे। वहां बाबा ने सबसे पहले खंडोबा मंदिर के दर्शन किए फिर वे वैकुंशा के बताए उस नीम के पेड़ के पास पहुंच गए। नीम के पेड़ के नीचे उसके आसपास एक चबूतरा बना था, जहां बैठकर बाबा ने कुछ देर ध्यान किया और फिर वे गांव में भिक्षा मांगने के लिए निकल पड़े।
 
 
ग्रामीणों ने उन्हें भिक्षा में काफी अन्न दिया। उसे ग्रहण कर वे बाकी बचा भोजन पीछे-पीछे चल रहे श्वान को खिलाते गए और पुन: नीम के झाड़ के पास आ बैठे। उनका प्रतिदिन का यह नियम बन गया था। नीम के झाड़ के नीचे ही सोना-उठना, बैठना-ध्यान करना और फिर गांव में भिक्षा मांगने के लिए निकल पड़ना।
 
 
कुछ लोगों ने उत्सुकतावश पूछा कि आप यहां नीम के वृक्ष के नीचे ही क्यों रहते हैं? इस पर बाबा ने कहा कि यहां मेरे गुरु ने ध्यान किया था इसलिए मैं यहीं विश्राम करता हूं। कुछ लोगों ने उनकी इस बात का उपहास उड़ाया, तब बाबा ने कहा कि यदि उन्हें शक है तो वे इस स्थान पर खुदाई करें। ग्रामीणों ने उस स्थान पर खुदाई की, जहां उन्हें एक शिला नजर आई।
 
 
शिला को हटाते ही एक द्वार दिखा, जहां 4 दीप जल रहे थे। उन दरवाजों का मार्ग एक गुफा में जाता था, जहां गौमुखी आकार की इमारत, लकड़ी के तख्ते, मालाएं आदि दिखाई पड़े। इस घटना के बाद लोगों में बाबा के प्रति श्रद्धा जाग्रत हो गई। बाबा ने उनके झोले से वही ईंट निकाली और उस दीपक के पास रख दी और ग्रामीणों से कहा कि इसे पुन: बंद कर दें।
 
 
म्हालसापति, श्यामा तथा शिर्डी के अन्य भक्त इस स्थान को बाबा के गुरु का समाधि-स्थान मानकर सदैव नमन किया करते थे। प्रमुख ग्रामीणों में म्हालसापति और श्यामा बाबा के अनुयायी बन गए। वायजा माई नामक एक महिला थीं, जो बाबा को प्रतिदिन भिक्षा देती थीं। यदि बाबा किसी कारणवश भिक्षा लेने नहीं आते तो वे खुद नीम के वृक्ष के नीचे उनको भिक्षा देने पहुंच जाती थी।
 
 
गांव के हिन्दू और मुसलमानों के बीच इसको लेकर चर्चा होती रहती थी कि बाबा हिन्दू हैं या मुसलमान? कहते हैं कि 3 महीने बाद बाबा किसी को भी बताए बगैर शिर्डी छोड़कर चले गए। लोगों ने उन्हें बहुत ढूंढा लेकिन वे नहीं मिले। कहते हैं कि इसके बाद बाबा 3 साल बाद चांद पाशा पाटिल (धूपखेड़ा के एक मुस्लिम जागीरदार) के साथ उनकी साली के निकाह के लिए बैलगाड़ी में बैठकर बाराती बनकर आए।
 
 
इस बार तरुण फकीर के वेश में म्हालसापति ने बाबा को देखा तो उन्होंने 'या सांईं', 'आओ सांईं' कहकर बाबा का स्वागत किया, तब से उनका नाम 'सांईं बाबा' पड़ गया। म्हालसापति विश्वकर्मा समुदाय के थे और सुनारी का काम करते थे। आज लोग इसका अर्थ यूं निकालते हैं- सांईं का अर्थ हरि और बाबा का अर्थ भाऊ।
 
 
म्हालसापति को सांईं बाबा 'भगत' के नाम से पुकारते थे। म्हालसापति और श्‍यामा को सांईं बाबा में अटूट विश्वास था। वे उनके चमत्कार और संतत्व को जानते थे। माना जाता है कि यह बात 1854 की है जबकि बाबा का दूसरी बार शिर्डी में आगमन हुआ लेकिन शिर्डी के लोगों का कहना है कि 1856-58 में सांईं बाबा नीम के नीचे पहली बार नजर आए।
 
 
पहली बार शिर्डी आकर बाबा कहां गए थे?
बाबा शिर्डी से पंचवटी गोदावरी के तट पर पहुंच गए थे, जहां उन्होंने ध्यान-तप किया। यहां बाबा की मुलाकात ब्रह्मानंद सरस्वती से हुई। बाबा ने उन्हें आशीर्वाद दिया। पंचवटी के बाद बाबा शेगांव जा पहुंचे, जहां वे गजानन महाराज से मिले। वहां कुछ दिन रुकने के बाद बाबा देवगिरि के जनार्दन स्वामी की कुटिया पर पहुंचे। वहां से वे बिडर (बीड़) पहुंचे। वहां से फिर वे हसनाबाद गए जिसे पहले माणिक्यापुर कहा जाता था। माणिक प्रभु इस क्षेत्र के महान संत थे।
 
 
माणिक प्रभु के पास बाबा पहुंचे तो माणिक प्रभु ने उन्हें गौर से देखा और फिर खड़े होकर गले लगा लिया। माणिक प्रभु के पास एक चमत्कारिक मग था जिसे आज तक कोई किसी भी वस्तु से भर नहीं सका था। कितने ही सिक्के डालो, मग खाली का खाली रहता था। बाबा ने कुछ खजूर और फूल उसमें डाले और मग भरा गया।
 
 
फिर बाबा वहां से बीजापुर होते हुए नरसोबा की वाडी पहुंच गए। यहां दत्त अवतार नृसिंह सरस्वती के चरण पादुका के दर्शन किए। यहीं कृष्णा नदी के किनारे एक युवा को तपस्या करते देखा तो उसे आशीर्वाद दिया और कहा कि तुम बड़े संत बनोगे। यही युवक आगे चलकर वासुदेवानंद सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने ही मराठी में 'गुरु चरित्र' लिखा था।
 
 
इसके पश्चात बाबा सज्जनगढ़ पहुंच गए, जहां समर्थ रामदास की चरण पादुका के दर्शन किए। इसके बाद बाबा सूफी फकीरों की दरगाह, हिन्दू संतों की समाधि पर जाते हाजिरी लगाते रहे। बाद में बाबा अहमदाबाद पहुंच गए, जहां सुहागशाह बाबा की दरगाह पर कुछ दिन रहे। मुसलमानों ने उन्हें एक कपड़ा दिया जिससे कि वे नमाज अदा करते वक्त सिर पर बांध सकें।
 
 
बाबा अहमदाबाद से भगवान कृष्ण की नगरी द्वारिका जा पहुंचे। यहीं उन्होंने तय किया कि शिर्डी में वे अपने निवास का नाम 'द्वारिकामाई' रखेंगे। द्वारिका से बाबा प्रभाष क्षे‍त्र गए, जहां भगवान कृष्ण ने अपनी देह छोड़ दी थी।
 
 
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औरंगाबाद के करीब 10 किलोमीटर दूर दो गांव हैं- सिन्धू और बिंदु। बिंदु ग्राम के 2 किलोमीटर पहले 2 छोटी-बड़ी आमने-सामने टेकरियां हैं। उसमें से एक टेकरी पर स्थित एक आम के झाड़ के नीचे लंबे प्रवास के बाद बाबा विश्राम के लिए रुके। ये दोनों ही गांव धूपखेड़ा के राजस्व अधिकारी चांद पाशा पाटिल के राजस्व उगाही के अधिकार में आते थे। उनका एक घोड़ा चरने के लिए गया था, जो पिछले 8 दिनों से नहीं मिल रहा था। धूपखेड़ा वहां से 15 किलोमीटर दूर था। चांद पाशा अपना घोड़ा खोजते हुए सिन्धू ग्राम के सड़क मार्ग से उस टेकरी पर पहुंचे। सांईं बाबा ने उन्हें देखते ही पूछा- क्या तुम अपना घोड़ा खोज रहे हो? वहां सामने की टेकरी के पीछे वह घास चर रहा है।
 
 
चांद पाशा पाटिल ने देखा कि यहां से सामने जो टेकरी है उसके पीछे का तो कुछ दिखाई नहीं दे रहा फिर ये कैसे कह सकते हैं कि वहां नीचे एक घोड़ा घास चर रहा है? उन्होंने वहां जाकर देखा तो वास्तव में वहां घोड़ा घास चर रहा था। चांद पाशा ने उसी वक्त बाबा के वहां कई चमत्कार देखे। बिंदु होते हुए बाबा सिन्धू ग्राम पहुंचे। चांद पाशा भी उनके पीछे घोड़ा लेकर चलने लगा। सिन्धू ग्राम की टेकरी पर बाबा ने कनीफनाथ के मजार के दर्शन किए, वहीं बाबा ने चांद पाशा से पूछा- प्यास लगी है? तो पाशा ने कहा- हां। बाबा ने जमीन खोदकर पानी का झरना निकाल दिया।
 
 
चांद पाशा को आश्चर्य हुआ और उन्होंने बाबा को सूफी फकीर समझकर घर चलने का निमंत्रण दिया। पाशा के निमंत्रण पर बाबा धूपखेड़ा गांव पहुंच गए। धूपखेड़ा में चांद पाशा का भव्य बंगला था, जहां भरा-पूरा परिवार और रिश्तेदार मौजूद थे। चांद पाशा की साली की शादी की तैयारियां चल रही थीं। उनके मकान के पास ही एक नीम का झाड़ था, जहां एक शिला रखी थी। बाबा वहीं जाकर बैठक गए। कहते हैं कि बाबा चांद पाशा के यहां करीब 1 माह रुके।
 
 
चांद पाशा पाटिल के साथ फिर से शिर्डी पहुंच गए बाबा। शिर्डी पहुंचने की कहानी हम पहले ही लिख चुके हैं। इसमें हमने लिखा था कि '3 माह बाद अचानक ही सांईं कहीं चले गए और 3 साल बाद चांद पाशा पाटिल (धूपखेड़ा के एक मुस्लिम जागीरदार) के साथ उनकी साली के निकाह के लिए बाराती बनकर बैलगाड़ी में बैठकर आए।'
 
 
शिर्डी पहुंचने के बाद बाबा म्हालसापति के घर पहुंच गए, जहां उनका स्वागत 'आओ सांईं' कहकर किया गया तभी से शिर्डी में वे 'सांईं' नाम से प्रसिद्ध हो गए। वे गांव के लोगों का दु:ख-दर्द सुनते और उसे दूर करते। जहां उन्हें किसी चमत्कार के माध्यम से लोगों का दर्द दूर करना होता वहां वे चमत्कार का इस्तेमाल करते। शिर्डी में बाबा नीम के पेड़ के पास पुन: पहुंच गए थे। तब बाबा की वेशभूषा मुस्लिम फकीरों जैसी ही थी, लेकिन वे सिर पर चंदन का तिलक धारण करते थे तो लोग समझ नहीं पाते थे कि ये कैसे मुस्लिम फकीर हैं या ये कैसे हिन्दू संत?
 
 
लोग उन्हें 'सांईं' के नाम से पुकारा करते थे। उनकी दी गईं जड़ी-बूटियों व भभूति से लोग भले-चंगे होते थे जिसके बदले में वे किसी से कुछ नहीं लेते थे। धीरे-धीरे उनके चमत्कार के चलते लोगों ने उनके यहां अन्न आदि सुख-सुविधाओं की पूर्ति कर दी। अब बाबा यहां लोगों को खुद अपने हाथ से भोजन कराने लगे थे। वे खुद चक्की चलाकर आटा निकालते थे और कड़ाव में दाल-भात बनाते थे। धीरे-धीरे उनके संतत्व की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी और उनसे मिलने दूर-दूर से लोग आने लगे। आज भी यह क्रम जारी है, क्योंकि बाबा आज भी यही कार्य करते हैं...।
 
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