श्राद्ध क्यों करें?

- प्रस्तुति डॉ. मनस्वी श्री विद्यालंकार
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एक वैज्ञानिक विवेचन
भारतीय सनातन परंपरा मानव जीवन में व्याप्त सर्वांगीण क्षेत्रों में अपने ज्ञान के उच्चस्थ शिखर से प्रखर होती है। मानव जीवन के छोटे-बड़े हर क्षेत्र से संबंधित क्रिया-कलाप, नीति निर्देशन आदि इसमें मौजूद हैं। हमारे शरीर को जो जीवन शक्ति संचालित करती है उसे 'आत्मा' कहते हैं। जिसके महाप्रयाण से शरीर निष्क्रिय होकर मृत कहलाता है वह आत्मा ही है।

शरीर को जीवनी शक्ति प्रदान करने वाला आत्मा जन्म के पूर्व जीवित रहते समय एवं मृत्यु के पश्चात्‌ किस अवस्था में रहता है। इन प्रत्येक अवस्था में उसकी स्थिति क्या रहती है, इसका विषद एवं गहनतम उल्लेख भारतीय शास्त्रों में अत्यंत विस्तार से उपलब्ध है।

आत्मा क्या है? इसका उत्तर बड़ी सरलता से हमें मिल जाएगा, क्योंकि उत्तर हमारे पास है ही।
हमारे शरीर में जीवन संचरण (शरीर को चलाने वाली) कोई शक्ति अदृश्य रूप से विद्यमान जरूर है। यह शक्ति प्रत्येक शरीर में कम अथवा अधिक समय तक विद्यमान रहती है। इसके रहते शरीर के अवयव अपना-अपना कार्य करते रहते हैं। इसके शरीर से निकल जाने के पश्चात्‌ शारीरिक अवयव विद्यमान तो जरूर रहते हैं, किंतु उनकी क्रियाशीलता समाप्त हो जाती है। इसे मृत्यु कहते हैं। शरीर में क्रियाशीलता बनाए रखने का कार्य जिस तत्व से होता है वह 'आत्मा' कहलाता है।

यह तत्व शरीर के अस्तित्व में आने के पूर्व, अर्थात्‌ जन्म लेने के पूर्व, शरीर के क्रियाशील रहते अर्थात्‌ जीवित रहते, शरीर की क्रियाशीलता समाप्त होने के अर्थात्‌ मृत्यु के पश्चात्‌ क्या किसी स्थिति में रहता है? क्या शरीर में रहते ही उसका अस्तित्व है? अथवा कि शरीर धारण करने के पूर्व भी उसका अस्तित्व था? एवं क्या शरीर की मृत्यु के पश्चात भी उसका अस्तित्व किसी रूप में रहेगा? ये अतिगंभीर रूप से चिंतनीय विषय हैं।

हम यदि इस पर गंभीर विचार करें तो एक बात सरलता से हमारी समझ में आएगी कि शरीर के जीवित रहते जो तत्व इस शरीर को क्रियाशील रखता है वह तत्व शरीर के जन्म लेने के पूर्व, शरीर की मृत्यु के पश्चात अस्तित्वहीन हो जाए, ऐसा तो संभव नहीं है।

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भारत के आर्ष ऋषियों ने अपने अतीन्द्रिय ज्ञान से इस प्रश्न के उत्तर को खोजकर शरीर के जन्म के पूर्व, शरीर के जीवित रहते, शरीर की मृत्यु के पश्चात्‌ इस तत्व अर्थात्‌ आत्मा की क्रियाशीलता व उसकी विभिन्न स्थितियों का विषद् चित्रण प्रस्तुत किया है।

हमारे मन में यह शंका उठ सकती है कि इन सब विवरणों पर यदि विश्वास कर भी लें तो हमारे पास उसे जानने, उसे मानने का वैज्ञानिक आधार क्या है?

हमारी शंका निर्मूल नहीं है? अकारण भी शंका नहीं है? यदि हम शंका न भी करें तो वैज्ञानिक आधार पर इन्हें जानने-समझने का सशक्त एवं विश्वसनीय कारण तो समझ में आना ही चाहिए।

यह विषय अतिगंभीर है। सूक्ष्मतम विवेचना, साथ ही समझने की हमारी सार्थक चेष्टा से ही हमें यह समझ आएगा।

मरने के पश्चात्‌ पुनर्जन्म होता है यह हमारी आध्यात्मिक धारणा हमें समझाई गई है। विश्व के अनेक देशों में हजारों प्रकरण प्रकाश में आए हैं, जिनमें अनेक व्यक्तियों ने अपने पूर्व जन्म के विवरण दिए हैं। इन विवरणों में अधिकांशतः न केवल सत्य पाए गए हैं, अपितु उनके सत्य होने के विपुल प्रमाण भी उपलब्ध हुए हैं।

हमारा एक आध्यात्मिक विश्वास है कि मरने के पश्चात्‌ मनुष्य भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, किन्नर आदि अनेक योनियों को प्राप्त करता है। विश्व में अनेक प्रकरणों में भूत-बाधा, प्रेत-बाधा इत्यादि अनेक विवरण प्रमाणित हुए हैं, किंतु ऐसे अधिकांश प्रकरण निर्मूल व निराधार भी निकले हैं। इसके पीछे कारण यह रहा कि अंधविश्वास, अज्ञान, निर्मूल शंका के आधार पर वे प्रकरण प्रस्तुत किए गए।

अधिकांश प्रकरण विश्वासघात करने, अपने स्वार्थ की प्रतिपूर्ति करने, उद्देश्य प्राप्ति में भटकाव लाने, अपने अपराध पर आवरण (पर्दा) डालने, ध्यान परिवर्तित करने एवं किसी क्षुब्ध स्वार्थ की प्रतिपूर्ति करने के लिए मनगढ़ंत रूप से रचे गए।

उक्त वर्णित मनगढ़ंत प्रकरणों की सत्यता प्रकाशित होते ही हमारे अध्यात्म विज्ञान पर प्रश्न चिह्न लगाए जाते हैं। फिर भी यह तय है कि यदि हम निष्पक्ष रूप से गंभीर चिंतन-मनन करें, अपने ज्ञान को परिमार्जित कर सत्य का अन्वेषण करने की सार्थक चेष्टा करें तो, हमें यह मानने को बाध्य होना ही पड़ेगा कि जीवन के पूर्व एवं पश्चात्‌ आत्मा अस्तित्वहीन हो जाए, यह संभव नहीं है।

जन्म के पूर्व : हमारे आर्ष ऋषियों ने जन्म के पूर्व 'गर्भाधान संस्कार' प्रदान किया है। स्त्री और पुरुष के सहवास से ही संतान का जन्म संभव है। सहवास को यदि संस्कार के रूप में अध्यात्म विज्ञान में निर्देशित मानदंडों के आधार पर संतान प्राप्ति हेतु उपयोग किया जाए तो निश्चित रूप से योग्य, मेधावी एवं विलक्षण प्रतिभा युक्त संतान प्राप्त की जा सकती है। इसमें कोई संशय नहीं है।

जन्म से मृत्यु के मध्य :- जन्म से मृत्यु के बीच शरीर कि अनेक क्रिया-प्रक्रिया द्वारा 'आत्मा' को अतिचैतन्य, अतिप्रज्ञावान बनाया जा सकता है। इसके अनेक उदाहरण सदैव मौजूद रहे हैं।

आत्मा को बारंबार जन्म-मृत्यु के कष्ट से मुक्ति अर्थात्‌ मोक्ष प्राप्ति के लक्ष्य पर भी पहुँचाया जा सकता है। मोक्ष प्राप्ति के परिणामों की पुष्टि कर पाना संभव नहीं है, किंतु दिव्यत्व प्राप्ति के प्रमाण अवश्य मिलते हैं।

मृत्यु के पश्चात्‌ :- मृत्यु के पश्चात्‌ अनेक स्थितियों में से तीन स्थिति निम्नांकित रूप में वर्णित की गई हैं :-

अधोगति अर्थात्‌ भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, किन्नर आदि योनि को प्राप्त होना, मृत्यु लोक की प्राप्ति।
अर्ध्व गति अर्थात्‌ स्वर्ग लोक की प्राप्ति।
मोक्ष अर्थात्‌ ब्रह्म लोक की प्राप्ति।

उक्त तीनों स्थिति का प्रमाण अथवा साक्ष्य प्राप्त हो न हो, हम अपने स्वयं के ज्ञान के आधार पर इन स्थितियों के होने की संपूर्ण कल्पना अवश्य कर सकते हैं। हमारी कल्पना शक्ति जितनी भी सृजनशील एवं धनात्मक दृष्टिकोण से घनीभूत होगी, हमारा सद्विश्वास उतना ही समनुन्नत रूप से अपना आधार प्राप्त कर लेगा।

श्राद्ध क्यों? श्राद्ध क्या है?
उपरोक्त वर्णन से हमें ज्ञात हुआ कि 'आत्मा' की अधोगति प्राप्ति की स्थिति निकृष्ट स्थिति है, अतः इससे मुक्ति पाने का क्या कोई उपाय हो सकता है। इससे मुक्ति प्राप्ति हेतु अनेक उपाय धर्मशास्त्रों में वर्णित हैं। इनमें से अतिसरल एवं सहजता से करने योग्य उपाय है 'श्राद्ध कर्म'।

श्राद्ध कर्म क्या है?
श्रद्धावंत होकर अधोगति से मुक्ति प्राप्ति हेतु किया गया धार्मिक कृत्य- 'श्राद्ध' कहलाता है। भारतीय ऋषियों ने दिव्यानुसंधान करके उस अति अविशिष्ट काल खंड को भी खोज निकाला है जो इस कर्म हेतु विशिष्ट फलदायक है। इसे श्राद्ध पर्व कहते हैं। यह पक्ष आश्विन कृष्ण पक्ष अर्थात्‌ प्रतिपदा से अमावस्या तक का 15 दिवसीय पक्ष है। इस पक्ष में पूर्णिमा को जोड़ लेने से यह 16 दिवसीय महालय श्राद्ध पक्ष कहलाता है।

इस श्राद्ध पक्ष में हमारे परिवार के दिवंगत व्यक्तियों की अधोगति से मुक्ति प्राप्ति हेतु धार्मिक कृत्य किए जाते हैं। जो भी व्यक्ति जिस तिथि को भी किसी भी माह में मृत्यु को प्राप्त हुआ, इस पक्ष में उसी तिथि को मृतक की आत्मा की शांति हेतु धार्मिक कर्म किए जाते हैं। इस प्रकरण में भारतीय चाँद्र वर्ष अर्थात्‌ वर्तमान प्रचलित संवत्सर पद्धति की तिथि ली जाती है। आंग्ल सौर वर्ष आधारित दिनांक (घची) से इसकी गणना नहीं की जाती है।

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