पौराणिक मान्यता के अनुसार श्रेष्ठ पितृ अग्निष्वात और बर्हिषपद की मानसी कन्या अक्षोदा घोर तपस्या कर रही थीं। वह तपस्या में इतनी लीन थीं कि देवताओं के एक हजार वर्ष बीत गए। उनकी तपस्या के तेज से पितृ लोक भी प्रकाशित होने लगा। प्रसन्न होकर सभी श्रेष्ठ पितृगण अक्षोदा को वरदान देने के लिए एकत्र हुए। उन्होंने अक्षोदा से कहा कि हे पुत्री हम सभी तुम्हारी तपस्या से अति प्रसन्न हैं, इसलिए जो चाहो, वर मांग लो। लेकिन अक्षोदा ने पितरों की तरफ ध्यान नहीं दिया। वह उनमें से एक अति तेजस्वी पितृ अमावसु को अपलक निहारती रही। पितरों के बार-बार कहने पर उसने कहा, ‘हे भगवन, क्या आप मुझे सचमुच वरदान देना चाहते हैं?' इस पर तेजस्वी पितृ अमावसु ने कहा, ‘हे अक्षोदा वरदान पर तुम्हारा अधिकार सिद्ध है, इसलिए निस्संकोच कहो।' अक्षोदा ने कहा,‘भगवन यदि आप मुझे वरदान देना ही चाहते हैं तो मैं तत्क्षण आपके साथ का आनंद चाहती हूं।'
अक्षोदा के इस तरह कहे जाने पर सभी पितृ क्रोधित हो गए। उन्होंने अक्षोदा को श्राप दिया कि वह पितृ लोक से पतित होकर पृथ्वी लोक पर जाएगी। पितरों के इस तरह श्राप दिए जाने पर अक्षोदा पितरों के पैरों में गिरकर रोने लगी। इस पर पितरों को दया आ गई। उन्होंने कहा कि अक्षोदा तुम पतित योनि में श्राप मिलने के कारण मत्स्य कन्या के रूप में जन्म लोगी।
अपने तेज एवं सौंदर्य से अप्सराओं को भी लज्जित करनेवाली अक्षोदा के प्रणय निवेदन को अस्वीकार किए जाने पर सभी पितरों ने अमावसु की प्रशंसा की और वरदान दिया-हे अमावसु! आपने अपने मन को भटकने नहीं दिया, इसलिए आज से यह तिथि आपके नाम अमावसु के नाम से जानी जाएगी। ऐसा कोई भी प्राणी, जो वर्ष में कभी भी श्राद्ध-तर्पण नहीं करता है, अगर वह इस तिथि पर श्राद्ध पर करेगा तो उसे सभी तिथियों का पूर्ण फल प्राप्त होगा। तभी से इस तिथि का नाम अमावसु (अमावस्या) हो गया और पितरों से वरदान मिलने के फलस्वरूप अमावस्या को सर्वपितृ श्राद्ध के लिए सर्वश्रेष्ठ पुण्य फलदायी माना गया।