सनातन हिन्दू परंपरा के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण विधि-विधान अनुसार श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। किन्तु कई बार आर्थिक संकट एवं विपन्नता के चलते व्यक्ति श्राद्धकर्म को पूर्ण विधि-विधान से करने में स्वयं को असमर्थ पाता है। तब उसके मन में श्राद्धकर्म को पूर्ण विधि से संपन्न नहीं करने की ग्लानि होती है। लेकिन हमारे सनातन धर्म की खूबसूरती व औदार्य यही है कि इसमें समाज के प्रत्येक वर्ग की हर परिस्थिति का ख्याल रखकर नियमों व व्यवस्थाओं का निर्धारण किया गया है।
हमारे शास्त्रों ने धन का अभाव होने पर भी श्राद्ध संपन्नता के कुछ नियम सुनिश्चित किए हैं। जिसमें अन्न-वस्त्र एवं श्राद्धकर्म की पूर्ण विधि के अभाव में केवल शाक (हरी सब्ज़ी) के द्वारा श्राद्ध संपन्न करने का विधान बताया गया है।
"तस्माच्छ्राद्धं नरो भक्त्या शाकैरपि यथाविधि।"
यदि शाक के द्वारा भी श्राद्ध संपन्न करने का सामर्थ्य ना हो तो शाक के अभाव में दक्षिणाभिमुख होकर आकाश में दोनों भुजाओं को उठाकर निम्न प्रार्थना करने मात्र से भी श्राद्ध की संपन्नता शास्त्रों द्वारा बताई गई है।
"न मे·स्ति वित्तं धनं च नान्यच्छ्राद्धोपयोग्यं स्वपितृन्न्तो·स्मि।
- हे मेरे पितृगण..! मेरे पास श्राद्ध के उपयुक्त न तो धन है, न धान्य आदि। हां मेरे पास आपके लिए श्रद्धा और भक्ति है। मैं इन्हीं के द्वारा आपको तृप्त करना चाहता हूं। आप तृप्त हों। मैंने शास्त्र के निर्देशानुसार दोनों भुजाओं को आकाश में उठा रखा है।
हमारे अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सामर्थ्य के अनुसार श्राद्धकर्म संपन्न करना चाहिए। सामर्थ्य ना होने पर ही उपर्युक्त व्यवस्था का अनुपालन करना चाहिए। आलस एवं समयाभाव के कारण उपर्युक्त व्यवस्था का सहारा लेना दोषपूर्ण है।