श्रद्धा से करें श्राद्ध

- डॉ. किरण रम

ND
जो श्रद्धा से दिया जाए, उसे श्राद्ध कहते हैं। श्रद्धा और मंत्र के मेल से जो विधि होती है, उसे श्राद्ध कहते हैं। विचारशील पुरुष को चाहिए कि संयमी, श्रेष्ठ ब्राह्मणों को एक दिन पूर्व ही निमंत्रण दे दें, परंतु श्राद्ध के दिन कोई अनिमंत्रित तपस्वी ब्राह्मण घर पर पधारे तो उन्हें भी भोजन कराना चाहिए। श्राद्धकर्ता को घर पर आए हुए ब्राह्मणों के चरण धोने चाहिए। फिर अपने हाथ धोकर उन्हें आचमन कराना चाहिए। तत्पश्चात उन्हें आसनों पर बैठाकर भोजन कराना चाहिए।

पितरों के निमित्त अयुग्म अर्थात एक, तीन, पाँच, सात आदि की संख्या में तथा देवताओं के निमित्त युग्म अर्थात दो, चार, छः, आठ आदि की संख्या में ब्राह्मणों को भोजन कराने की व्यवस्था करना चाहिए। देवताओं एवं पितरों के निमित्त एक-एक ब्राह्मण को भोजन कराने का भी विधान है।

भोजन के लिए उपस्थित अन्न अत्यंत मधुर, भोजनकर्ता की इच्छा के अनुसार तथा अच्छी प्रकार सिद्ध किया हुआ होना चाहिए। पात्रों में भोजन रखकर श्राद्धकर्ता को अत्यंत सुंदर एवं मधुर वाणी से कहना चाहिए कि : ''हे महानुभावों! अब आप लोग अपनी इच्छा अनुसार भोजन करें।'' फिर क्रोध या उतावलेपन को छोड़कर उन्हें भक्तिपूर्वक भोजन परोसते रहना चाहिए। ब्राह्मणों को भी दत्तचित्त और मौन होकर प्रसन्न मुख से सुखपूर्वक भोजन करना चाहिए।
  विचारशील पुरुष को चाहिए कि संयमी, श्रेष्ठ ब्राह्मणों को एक दिन पूर्व ही निमंत्रण दे दें, परंतु श्राद्ध के दिन कोई अनिमंत्रित तपस्वी ब्राह्मण घर पर पधारे तो उन्हें भी भोजन कराना चाहिए। श्राद्धकर्ता को घर पर आए हुए ब्राह्मणों के चरण धोने चाहिए।      


श्राद्ध में ब्राह्मणों को भोजन कराते समय रक्षक मंत्र का पाठ करके भूमि पर तिल बिखेर दें तथा अपने पितृरूप में उन द्विजश्रेष्ठों का ही चिंतन करें। रक्षक मंत्र इस प्रकार है :

यज्ञेश्वरों यज्ञसमस्तनेता
भोक्ताऽव्ययात्मा हरिरीश्वेरोऽस्तु।
तत्संनिधानादपयान्तु सद्यो
रक्षांस्यशेषाण्यसुराश्च सर्वे॥

'यहाँ संपूर्ण हव्य-फल के भोक्ता यज्ञेश्वर भगवान श्रीहरि विराजमान हैं। अतः उनकी सन्निाधि के कारण समस्त राक्षस और असुरगण यहाँ से तुरंत भाग जाएँ।'

ब्राह्मणों के भोजन के समय यह भावना करें : 'इन ब्राह्मणों के शरीर में स्थित मेरे पिता, पितामह और प्रपितामह आदि आज भोजन से तृप्त हो जाएँ।' जैसे यहाँ के भेजे हुए रुपए लंदन में पाउण्ड, अमेरिका में डॉलर एवं जापान में येन बन जाते हैं, ऐसे ही पितरों के प्रति किएगए श्राद्ध का अन्न, श्राद्धकर्म का फल हमारे पितर जहाँ हैं, जैसे हैं, उनके अनुरूप उनको मिल जाता है, किंतु इसमें जिसके लिए श्राद्ध किया जा रहा हो, उनके नाम, उनके पिता के नाम एवं गोत्र के नाम का स्पष्ट उच्चारण होना चाहिए। विष्णु पुराण में आता है :

श्रद्धासमन्वितैर्दत्तं पितृभ्यो नामगोत्रतः।
यदाहारास्तु ते जातास्तदाहारत्वमेति तत्‌॥

'श्रद्धायुक्त व्यक्तियों द्वारा नाम और गोत्र का उच्चारण करके दिया हुआ अन्न पितृगण को वे जैसे आहार के योग्य होते हैं, वैसा ही होकर उन्हें मिलता है।' पितरों के कल्याणार्थ इन श्राद्ध के दिनों में श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। उससे वे तृप्त होते हैं और अपने कुटुम्बियों की मदद भी करते हैं।