Sanwalia Seth : श्री कृष्ण को क्यों कहते हैं सांवलिया सेठ, जानिए रहस्य

भगवान श्री कृष्‍ण को सांवलिया या सांवरिया सेठ भी कहा जाता है। राजस्थान में सांवलिया सेठ का विश्व प्रसिद्ध मंदिर है जहां प्रतिदिन हजारों लोग दर्शन करने आते हैं। आओ जानते हैं कि क्या है सांवलिया सेठ कहे जाने का इतिहास या पौराणिक कथा।
 
 
1. सांवलिया सेठ मंदिर बनने की कथा : किवदंतियों के अनुसार मीरा बाई सांवलिया सेठ की ही पूजा किया करती थी जिन्हें वह गिरधर गोपाल भी कहती थीं। मीरा बाई संतों की जमात के साथ भ्रमण करती थीं जिनके साथ श्री कृष्ण की मूर्तियां रहती थीं। दयाराम नामक संत की जमात के पास भी ऐसी ही मूर्तियां रहती थीं। एक बार औरंगजेब की सेना मंदिर में तोड़-फोड़ करते हुए मेवाड़ पहुंची और वहां पर उसकी मुगल सेना को उन मूर्तियों के बारे में पता लगा तो वह उन्हें ढूंढने लगे। यह जानकर संत दयाराम ने इन मूर्तियों को बागुंड-भादसौड़ा की छापर में एक वट-वृक्ष के नीचे गड्ढा खोदकर छिपा दिया।
 
फिर 1840 में मंडफिया ग्राम निवासी भोलाराम गुर्जर नामक ग्वाले को सपना आया की भादसोड़ा-बागूंड गांव की सीमा के छापर में भगवान की 4 मूर्तियां भूमि में दबी हुई हैं। सपने के बाद भूमि की उस जगह पर खुदाई की गई तो सभी को आश्‍चर्य हुआ। वहां से एक जैसी 4 मूर्तियां निकली। देखते ही देखते ये खबर सब तरफ फैल गयी और आस-पास के लोग प्राकट्यस्थल पर एकत्रित होने लगे। फिर सर्वसम्मति से 4 में से सबसे बड़ी मूर्ति को भादसोड़ा ग्राम ले जाई गई, भादसोड़ा में प्रसिद्ध गृहस्थ संत पुराजी भगत रहते थे। उनके निर्देशन में उदयपुर मेवाड़ राज-परिवार के भींडर ठिकाने की ओर से सांवलिया जी का मंदिर बनवाया गया। यह मंदिर सबसे पुराना मंदिर है इसलिए यह सांवलिया सेठ प्राचीन मंदिर के नाम से जाना जाता है। मंझली मूर्ति को वहीं खुदाई की जगह स्थापित किया गया इसे प्राकट्य स्थल मंदिर भी कहा जाता है। सबसे छोटी मूर्ति भोलाराम गुर्जर द्वारा मंडफिया ग्राम ले जाई गई जिसे उन्होंने अपने घर के परिण्डे में स्थापित करके पूजा आरंभ कर दी। चौथी मूर्ति निकालते समय खण्डित हो गई जिसे वापस उसी जगह पधरा दिया गया।
 
2.नानी बाई का मायरा: सांवलिया सेठ के बारे में यह मान्यता है कि नानी बाई का मायरा करने के लिए स्वयं श्री कृष्ण ने वह रूप धारण किया था। 
 
3. बिजनेस पार्टनर : व्यापार जगत में उनकी ख्याति इतनी है कि लोग अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए उन्हें अपना बिजनेस पार्टनर बनाते हैं।
 
4. क्यों कहा जाता है सांवलिया सेठ : सांवलिया सेठ के नाम का सबसे पहला जिक्र हमें सुदामा प्रसंग के समय मिलता है। सुदामा श्रीकृष्‍ण से मिलने द्वारिका जाते हैं और वहां उनके महल में छप्पन पकवान जब उनके सामने परोसे जाते हैं तो वे यह कहकर श्रीकृष्ण से भोजन करने से इनकार कर देता है कि उनकी पत्नी वसुंधरा और मेरे बच्चें भूखे होंगे। यह सुनकर उसी वक्त श्रीकृष्ण दूसरा रूप धारण करके सुदामा के गांव पहुंच जाते हैं वहां वहां जाकर वे सांवले शाह बन जाते हैं। 
 
सुदामा के घर के बाहर तभी ढोल की आवाज सुनकर सुदामा की पत्नी वसुंधरा अपने बच्चों के साथ बाहर जाती है तो देखती है कि एक बैलगाड़ी में खाने की ढेर सारी सामग्री है और एक व्यक्ति ढोल बजाकर मुनादी कर रहा है कि सुनो...सुनो...सुनो। ठाकुर सांवले शाह सेठजी के यहां पोते ने जन्म लिया है। इस खुशी के अवसर पर एक महायज्ञ का अनुष्ठान किया गया है जो दस दिनों तक होता रहेगा तथा इन्हीं ठाकुर सांवले शाह ने 10-10 कोस तक ब्राह्मण परिवारों को तीनों समय का भोजन और मिष्ठान देने की घोषणा की है। यह मुनादी चक्रधर भी सुन रहा होता है। यह सुनकर वसुंधरा प्रसन्न हो जाती है और श्रीकृष्ण मुस्कुराते हैं।
 
मुनादी वाला आगे कहता है कि जो किसी कारण से नहीं आ सकते हम उनके घरों में जाकर भोजन वितरण कर देंगे। यह सुनकर चक्रधर अपने हाथ की टोकरी को पालकी में रख देता है और कहता है- हे ईश्वर तू कितना दयालु, तूने आखिर भूखे भक्तों के भोजन का प्रबंध कर ही दिया। ऐसा कहकर वह द्वार पर खड़ी वसुंधरा के बच्चों को देखता है और उनके पास जाकर हाथ जोड़कर कहता है- आओ बच्चों आओ, देखो बेटा भोजन बंट रहा है, आओ ना। यह सुनकर सभी बच्चे वसुंधरा की ओर देखते हैं तो वह उन्हें इशारों से घर में से बर्तन लाने का कहती है। एक बच्चा एक भगोना ले जाता है। फिर चक्रधर उन्हें बैलगाड़ी के पास ले जाता है तो वसुंधरा द्वार पर ही खड़ी यह दृश्य देखती रहती है।
 
चक्रधर उनको बैलगाड़ी पर खड़े एक व्यक्ति से भोजन दिलवाता है। भोजन वितरण करने वाला पूछता है- ब्राह्मण पुत्र हो ना? यह सुनकर एक बालक कहता है- हां। तब वह कहता है कि इतनी थोड़ीसी खीर से क्या होगा, कोई बड़े भांडे-बर्तन ले आते। घर में कोई बड़ा नहीं हैं? तब वह कहता है कि मेरी मां है।...और पिताजी? तब चक्रधर कहता है कि वृंदापुरी के सारे ब्राह्मण आज गांव में मौजूद है केवल इनके पिता को छोड़कर। कर्मों का मारा सुदामा रोज घर-घर जाकर भिक्षा मांगता था और आज जब भोजन उसके द्वार आया है तो वही नहीं हैं। तब वह व्यक्ति पूछता है- क्यूं कहां गया है? तब चक्रधर कहता है कि द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण से मिलने द्वारिका नगरी गया है। यह सुनकर वह भोजन वितरण करने वाला कहता है कि तो फिर हम ही भोजन दे आते हैं भीतर। फिर वह दूसरे सेवकों से कहता है चलो भाई दो टोकरी तैयार करो।
 
‍फिर द्वार पर खड़ी वसुंधरा के समक्ष भोजन वितरण करने वाला दो टोकरी भोजन लेकर आता है और प्राणाम करके कहता है कि ये लीजिये भोजन। तीनों समय का भोजन घर पर ही दे जाएंगे हम। 10 दिनों तक घर में चूल्हा जलाने की कोई आवश्यकता नहीं। ले लीजिये। यह सुनकर चक्रधर कहता है- संकोच मत कीजिये भाभीजी। ईश्वर की दया समझकर बटोर लीजिये। आप ही ने तो कहा था कि जब त्रिलोकीनाथ कृपा करें तो कौन मूरख इनकार करेगा। यह सुनकर वसुंधरा प्रसन्न हो जाती है। फिर चक्रधर कहता है- ये त्रिलोकीनाथ ही की कृपा है भाभीजी लीजिये। फिर चक्रधर भोजन का पात्र खुद ही सेवक से लेकर उन्हें दे देता है।...भोजन लेकर वसुंधरा कहती हैं- सत्य है श्रीकृष्ण भक्त वत्सल हैं। चक्रधर की कहता है- जय श्रीकृष्ण। सभी कहने लगते हैं जय श्रीकृष्ण।
 
उधर, भूखा सुदामा एक वृक्ष के नीचे बैठा कृष्ण नाम जपता रहता है। श्रीकृष्ण उसे और भोजन को देखते हैं और फिर अपनी माया से एक ब्राह्मण ग्रमीण को प्रकट करते हैं। वह ब्राह्मण सुदामा के पास आकर कहता है- प्रणाम। सुदामा की तंद्रा भंग होती है तब वह भी प्रणाम करता है। फिर वह ब्राह्मण कहता है- वेशभूषा से तो ब्राह्मण लगते हो। यह सुनकर सुदामा कहता है- हां ब्राह्मण ही हूं। तब वह कहता है- ब्राह्मण हो तो यहां खंडहर में अकेले बैठे क्या कर रहे हो? जाओ वहां पास वाले गांव में जहां सभी ब्राह्मणों को खीर-पुरी बंट रही है। यह सुनकर सुदामा उसके हाथ की ओर देखता है जिसमें पत्तल में खीर और पुरी होती है। यह देखकर वह कहता है खीर-पुरी! कौन बांट रहा है?
 
यह सुनकर वह ब्राह्मण कहता है- ठाकुर सांवले शाह की ओर से बंट रही है।... यह सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुराते हैं। तब सुदामा कहता है- सांवले शाह? इस पर ब्राह्म कहता है- हां सांवले शाह के यहां पोता हुआ है और इस खुशी में 10 दिन तक महायज्ञ की घोषणा की है। और साथ यह भी घोषणा की है कि जब तक यज्ञ चलेगा तब तक अर्थात पूरे 10 दिनों तक 10-10 कोस के अंतर्गत सभी ब्राह्मण परिवारों को प्रतिदिन तीन समय तक खीर-पुरी का भोजन मिलता रहेगा। यह सुनकर सुदामा प्रसन्न हो जाता है। फिर वह ब्राह्मण कहता है- वाह क्या महादानी है सांवले शाह। आज दो दिन से 10 कोस तक किसी ब्राह्मण के यहां चूल्हा नहीं जला होगा। रथों में भर-भर कर खीर और पुरी हर ब्राह्मण परिवार के यहां पहुंचाई जा रही है।
 
यह सुनकर सुदामा पूछता है- 10-10 कोस तक हर गांव में? तब वह ब्राह्मण कहता है- हां हर गांव में। ब्राह्मणवाड़ी, समतानगर, मैनपुरी, जनकपुरी सभी गांव में। यह सुनकर सुदामा पूछता है कि वृंदापुरी में भी खीर-पुरी बंट रही है? इस पर वह ब्राह्मण कहता हैं- हां वृंदापुरी में भी। अरे भाई मैं कल स्वयं उपस्थित था वहां वृंदापुरी में।... यह सुनकर सुदामा प्रसन्न हो जाता है। फिर आगे वह ब्राह्मण कहता है कि मेरे सामने हर ब्राह्मण परिवार को बुला-बुला कर खीर-पुरी दी गई। वहां का हर एक ब्राह्मण झोली भर-भर के ले गया परंतु केवल एक ब्राह्मण उपस्थित नहीं था वहां गांव में। यह सुनकर सुदामा पूछता है- कौन नहीं था? तब वह कहता है कि लोग कह रहे थे कि सुदामा नाम का ब्राह्मण उपस्थित नहीं था गांव में।...यह सुनकर सुदामा कहता है- सुदामा? तब वह ब्राह्मण कहता है- हां सुदामा, क्या आप जानते हैं उन्हें? तब सुदामा कहता है- मैं ही तो हूं वह अभागा ब्राह्मण।
 
तब वह ब्राह्मण कहता है कि सभी को खेद था कि ऐसे समय नहीं है सुदामा। तब सुदामा कहता है कि अरे मेरी चिंता छोड़ो। ये बताओ की मेरे बच्चों-पत्नी को भोजन मिला की नहीं? यह सुनकर वह ब्राह्मण कहता है क्या बात कर रहे हो वीप्रवर। आपके परिवार की आत्मा तृप्त हो गई होगी खीर-पुरी खाकर।...यह सुनकर सुदामा अति प्रसन्न हो जाता है। फिर वह ब्राह्मण कहता है- मेरे सामने सांवले शाह के सेवकों ने आपके पत्नी और बच्चों को खीर के दोने भर-भर के दिए। यह सुनकर सुदामा श्रीकृष्ण श्रीकृष्ण जपने लगता है तो आगे वह ब्राह्मण कहता है कि आपके चार बच्चे हैं ना? तब सुदामा कहता है- हां हां।... यह सुनकर वह ब्राह्मण कहता है- सभी की आत्मा तृप्त हो गई और 10 दिन तक ऐसा ही चलने वाला है।
 
यह सुनकर सुदामा प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण नाम जपने लगता है और कहता है- हे कृष्ण-कन्हैया। हे मेरे पालनहार! तेरी लीला बड़ी न्यारी है।...अरे भाई तुमने ये बताकर मेरी सारी चिंता दूर कर दी। मैं तो इसी विचार से स्वयं भोजन नहीं कर रहा था कि मेरे बच्चे भूखे हैं, मैं कैसे खालूं। तब वह ब्राह्मण कहता है- अब ये चिंता छोड़ो वीप्रवर वो परम आनंद में हैं। अब अपनी भी भूख मिटा लो, चलो पास वाले गांव में मैं आपको ले चलता हूं और खीर-पुरी दिलवाता हूं चलो। यह सुनकर सुदाम कहता है- हां हां चलो।
 
सुदामा जाने लगता है तभी ग्रामीण वेश में मुरली मनोहर बनकर श्रीकृष्ण जो उनके साथ ही यात्रा करते आए थे वे कहते हैं- अरे अरे! ये क्या? यह सुनकर सुदामा रुक जाता है। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- बड़े स्वार्थी हो जी। हमने आपके कारण अपनी पत्नी लक्ष्मीदेवी के हाथ का बना भोजन तक नहीं खाया और आप किसी सांवले शाह की खीर-पुरी खाने चल दिए और हमें पूछा तक नहीं।...यह सुनकर सुदामा अपने मुंह पर हाथ रखकर कहता है- अरे हां।
 
तब श्रीकृष्ण कहते हैं- वाह, शपथ भगवान श्रीकृष्ण की कि अपने जीवन में ऐसा स्वार्थी ब्राह्मण मैंने पहली बार देखा है। यह सुनकर सुदामा कहता है- क्षमा करना भैया भूल हो गई। मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई। फिर सुदामा उस ब्राह्मण से कहता है- भैया मेरे नाम का भोजन तो यहीं रखा है। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद आप चलिये मैं यहीं खा लूंगा। यह सुनकर वह ब्राह्मण कहता है- अच्छा मैं चलता हूं। फिर सुदामा श्रीकृष्ण से कहता है- क्षमा करना भाई मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- आप क्या समझे मैं आपके बगैर ही भोजन कर लेता, चलिए साथ भोजन करेंगे।
 
फिर श्रीकृष्ण अपने हाथों से सुदामा को भोजन परोसकर खिलाते हैं और कहते हैं- ब्राह्मण देवताजी मैंने आपसे पहले ही कहा था किभोजन के दाने-दाने पर आप ही का नाम लिखा है परंतु आप मानते ही नहीं थे। तब सुदामा कहता है मन नहीं मान रहा था भैया। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अब तो मन मान गया ना। अब निश्‍चिंत होकर जी भरकर खाइये।... जिन्हें भोग अर्पण करें नित सारा संसार, उन्हीं के हाथों खा रहा भाग्यवान सत्कार। पुण्यवान सतकाम।
 
सुदामा बड़े चाव से भोजन करता है अंगुलियां चाट-चाट कर। यह देखकर रुक्मिणी प्रसन्न हो जाती है। फिर सुदामा इशारे से कहता बस बहुत हुआ तब श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं नहीं ब्राह्मण देवता ये लक्ष्मीदेवी के हाथ के बनाए हुए मोतीचूर के लड्डू..ये तो खाना ही पड़ेगा। सुदाम सकुचाते हुए उसे भी लेकर खा लेता है। तब श्रीकृष्‍ण दूसरा लड्डू देते हैं तो वह कहता है बस बहुत खा लिया अब ओर नहीं खाया जाएगा। मानो आत्मा तृप्त हो गई। बहुत दिनों बाद खाने का इतना आनंद आया। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- चलिये आप हाथ धोइये मैं बिछोना लगाता हूं।
 
यह दृश्य देखकर रुक्मिणी श्रीकृष्ण से कहती हैं- वाह प्रभु वाह धन्य हैं आप और आपकी लीला। क्या-क्या रूप धारण करना पड़ रहे हैं आपको। कभी सांवले शाह तो कभी, कभी मुरली मनोहर। एक मित्र के खातिर आपको भी क्या-क्या जतन करने पड़ रहे हैं। जय श्रीकृष्ण।

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