तब रुक्मिणी कहती है कि आप उसके प्रारब्ध को नहीं बदल सकते परंतु मति तो बदल सकते हैं। इस पर श्रीकृष्ण पूछते हैं- अर्थात? तब रुक्मिणी कहती है- अर्थात ये कि आप उसे अपना पूर्णभक्त बना दीजिये। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुम्हारे कहने का मतलब ये कि वो अभी पूर्ण भक्त नहीं है? तब रुक्मिणी कहती है- नहीं, अभी उसके अंदर अपने ब्राह्मणत्व का अहम् बाकी है। उसे अपने ब्राह्मणत्व के कर्तव्य पालन, अपने प्रारब्ध से हार न मानने और शांतचित्त रहकर दु:ख सहन करने की अपनी शक्ति पर गर्व है। आप उसकी बुद्धि से ज्ञान के ये पर्दे हटा दीजिये। उसे ये समझा दीजिये की भक्ति में न किसी गर्व का स्थान है, न किसी संकोच का और ना किसी लज्जा का।...यह सुनकर श्रीकृष्ण प्रसन्न हो जाते हैं और कहते हैं कि परंतु इस रास्ते में अड़चन है क्योंकि मेरे साथ उसके दो रिश्ते हैं एक भगवान का और एक मित्रता का। वो मुझे भगवान भी मानता है और अपना मित्र भी। वह भगवान से तो सहायता मांग लेगा परंतु मित्र से नहीं।