निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 8 अगस्त के 98वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 98 ) में सत्यभामा अपने पुण्यकव्रत के दौरान देवर्षि नारद द्वारा प्रिय वस्तु के दान की मांग करने पर श्रीकृष्ण को दान कर देती है। तब नारदमुनि श्रीकृष्ण को अपना दास समझकर उन्हें रसोईघर में अपने लिए कलेवा और चटनी बनाने के लिए ले जाते हैं। यह देखकर सत्यभामा को अपनी भूल का अहसास होता है कि मैंने ये क्या कर दिया। अब आगे...
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
रुक्मिणी सत्यभामा से कहती है कि तुमने बगैर सोचे-समझे द्वारिकाधीश को दान कर दिया। यह सुनकर जामवंती कहती हैं- दीदी। बहन सत्यभामा से जो भूल हो गई है उसका फल हम सबको भोगना पड़ेगा। यदि देवर्षि नारद द्वारिकाधीश को साथ ले गए तो हम सब जीते जी ही मर जाएंगी। इस समय आप ही हमारी सहायता कर सकती हैं। यह सुनकर रुक्मिणी कहती हैं- चलो देखते हैं क्या हो सकता है। फिर दोनों रसोईघर की ओर जाने लगती है तो द्वार के पीछे छुपे श्रीकृष्ण और नारद वहां से रसोईघर में भाग जाते हैं।
नारदमुनि श्रीकृष्ण से कहते हैं- प्रभु जल्दी चलो। फिर श्रीकृष्ण नारददमुनि से संकेतों में कहते हैं- अरे आप उपर बैठें और मुझे चटनी पीसने दो। तब नारदजी स्वामी बनकर उपर बैठ जाते हैं और श्रीकृष्ण चटनी पीसने लगते हैं। तभी वहां पर रुक्मिणी, सत्यभामा और जामवंती तीनों आकर देखती है कि प्रभु दास बनकर चटनी पीस रहे हैं और नारदमुनि आखें बंदकर ध्यान कर रहे हैं।
यह देखकर सत्यभामा को बड़ा दुख होता है। फिर रुक्मिणी श्रीकृष्ण के पास बैठकर हाथ जोड़कर कहती है- स्वामी। तभी नारदमुनिजी की आंखें खुल जाती है। फिर रुक्मिणी कहती है- स्वामी आप ये क्या कर रहे हैं? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- चटनी पीस रहा हूं देवी चटनी। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- चटनी! द्वारिका राज्य का अधिश्वर चटनी पीस रहा है। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- हां। फिर रुक्मिणी कहती है- ये कैसी विडम्बना है प्रभु? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- ये कोई विडम्बना नहीं है देवी। इस समय मैं द्वारिकाधीश नहीं हूं। इस समय मैं तो देवर्षि नारद का केवल एक सेवक हूं।
यह सुनकर रुक्मिणी सहित तीनों चौंक जाती है। रुक्मिणी कहती है- सेवक? त्रिलोकी का नाथ एक ब्राह्मण पुरोहित का सेवक? ये काया कल्प मेरी कल्पना में नहीं आता प्रभु। यह सुनकर श्रीकृष्ण भी रुक्मिणी के साथ खड़े होकर कहते हैं- ये कल्पना की बात नहीं देवी यथार्थ की बात है। मेरी पत्नी ने इस पुरोहित को मुझे दान में दे दिया है हां। यह कहकर श्रीकृष्ण हंसने लगते हैं और नारदजी प्रसन्न हो जाते हैं।
यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- पत्नी ने दान में दिया है, परंतु मैंने तो आपको दान में नहीं दिया हैं। इस पर नारदमुनि कहते हैं कि देवी सत्यभामा ने इन्हें दान कर दिया है। सत्यभामा इनकी पत्नी है कि नहीं? इस पर रुक्मिणी कहती है कि इस बात से मुझे कोई मतलब नहीं, आप केवल इतना बताइये कि मैं इनकी पत्नी हूं कि नहीं? इस पर नारदजी कहते हैं- हां हां परंतु। तभी बीच में ही रुक्मिणी कहती है परंतु-वरंतु कुछ नहीं। फिर रुक्मिणी श्रीकृष्ण से पूछती है कि आप ही बताइये कि मैं आपकी पत्नी हूं कि नहीं? इस पर नारदमुनि श्रीकृष्ण दोनों एक दूसरे की ओर देखते हैं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- अवश्य बल्कि आप तो हमारी प्रथम पत्नी हैं। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- हां तो अब आप बताइये मुनिवर की आप मेरी अनुज्ञा के बिना मेरे पति को आप अपना दास बनाकर कैसे ले आए?
यह सुनकर नारदजी श्रीकृष्ण की ओर देखने लगते हैं तो रुक्मिणी कहती है कि मेरे पति पर आपका क्या अधिकार है? यह सुनकर नारदजी कहते हैं- आपके पति पर मेरा कोई अधिकार नहीं है देवी। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- ठीक, इसीलिए मैं अपने पति को अपने साथ लेकर जा रही हूं। यह कहकर रुक्मिणी श्रीकृष्ण का हाथ पकड़कर उन्हें ले जाने लगती है तो नारदजी श्रीकृष्ण से कहते हैं- नारायण चटनी चटनी। यह सुनकर श्रीकृष्ण हां हां कहते हुए पुन: चटनी पीसने लग जाते हैं।
यह देखकर तीनों को समझ में नहीं आता कि अब क्या करें तब तीनों उन्हें जबरदस्ती ले जाने का प्रयास करती हैं तो नारमुनि खड़े होकर उनका नारायण नारायण कहते हुए रास्ता रोक लेते हैं और फिर कहते हैं- ब्राह्मण से इस प्रकार धोखा नहीं होने दूंगा देवी। श्रीकृष्ण अब मेरी संपत्ति है मेरी। सत्यभामा ने इन्हें दान कर दिया है। इस पर रुक्मिणी कहती है- परंतु श्रीकृष्ण अकेले सत्यभामा के तो नहीं है मेरे भी हैं। यह सुनकर जामवंती भी कहती है- और मेरे भी हैं। यह सुनकर नारदमुनि पूछते हैं- सत्यभामा के भी हैं? इस पर रुक्मिणी कहती हैं- हां। यह सुनकर नारदजी कहते हैं- तो इसका ये अर्थ हुआ कि श्रीकृष्ण में आप सबका हिस्सा है। यह सुनकर रुक्मिणी कहती हैं- हां। तब नारदजी कहते हैं- तो इसका ये अर्थ भी हुआ कि सत्यभामा केवल अपने हिस्से का कृष्ण दान कर सकती है आपके हिस्से का नहीं?
यह सुनकर रुक्मिणी सोच में पड़ जाती है और फिर कहती है- बिल्कुल। यह सुनकर नारदमुनि कहते हैं- इसका मतलब ब्राह्मण के साथ धोखा हो गया। संपत्ति के और हिस्सेदार भी निकल आए। चलो कोई बात नहीं, पूर्ण त्रिलोकीनाथ ना सही अर्ध त्रिलोकीनाथ ही सही। सो अब तो एक ही तरीका है कि सत्यभामा के हिस्से वाला कृष्ण मुझे दे जाओ और अपने वाले हिस्से का कृष्ण आप ले जाओ। यह सुनकर श्रीकृष्ण प्रसन्न हो जाते हैं।
यह सुनकर रुक्मिणी आश्चर्य से कहती है- क्या? तब नारदजी कहते हैं- हां हां तर्क में आप जीत गईं देवी रुक्मिणी। आपकी बात मैंने मान ली देवी। सो देवी सत्यभामा कृपया ये बताइये कि श्रीकृष्ण के हाथ, पांव, कान, आंख आदि में से आपके हिस्से में क्या आता है बस उतना मुझे दे दीजिये...नारायण नारायण। यह सुनकर रुक्मिणी मानसिक रूप से श्रीकृष्ण से पूछती है- अब क्या करें? तो श्रीकृष्ण कहते हैं- मैं भी कुछ नहीं कर सकता।
फिर नारदमुनि कहते हैं- देवी सत्यभामा कुछ तो कहिये..आप क्या दे रही हैं मुझे? यह सुनकर आंखों में अंसू लिए सत्यभामा कहती है- मैं समझ नहीं पा रही हूं देवर्षि की मैं आपको क्या उत्तर दूं। इन त्रिलोकीनाथ में मेरा कितने हिस्से पर अधिकार है मैं तो ये भी नहीं जानती। एक दिन ऐसा था जब मैं समझती थी कि इन पर केवल मेरा ही अधिकार है और एक आज का दिन है जब वह मेरा अहंकार टूट चुका है। अब मैं जान चुकी हूं कि ये मेरे तो क्या किसी के भी नहीं है और सबके भी हैं। त्रिलोकी के समस्त चराचर प्राणियों में एक मात्र आधार यही तो हैं। मैं तो इनके कोटि-कोटि भक्तों में से एक तुच्छ गुणहिन और अहंकारी भक्त हूं। और, इनके हृदय की विशालता दो देखिये की मुझ जैसे अहंकारी भक्त की बात रखने के लिए ये आपके सेवक बने चटनी पीस रहे हैं। मेरी इस भयंकर भूल का कोई प्रयश्चित हो तो मुझे बताइये। उस प्रायश्चित की कीमत यदि मेरे प्राणों से चुकाई जा सकती है तो मैं इसी क्षण अपने प्राण अपने चरणों में न्योछावर करने के लिए तैयार हूं। मेरे प्राण ले लीजिये मुनिवर परंतु मेरे स्वामी को मेरे वचनों से मुक्त कर दीजिये।
यह सुनकर नारदमुनि कहते हैं- मैं प्राण तो नहीं ले सकता क्योंकि यह तो काल भगवान की संपत्ति है परंतु यदि प्रायश्चित के लिए इनके बदले में कोई कीमत चुकानी हो तो प्राणों जैसी अमूल्य वस्तु को छोड़कर कोई मूल्यवान वस्तु इनके बदले में दे दो। हम इन्हें मुक्त कर देंगे।
यह सुनकर सत्यभामा प्रसन्न होकर कहती है-
सच? तब नारदजी कहते हैं- हां देवी अपने पति के लिए आपके हृदय में इतनी गहरी भावना देखकर मेरा हृदय भी पिघल गया। सो मैंने इन्हें मुक्त करने का निश्चय कर लिया है तो आप इनका कुछ तो मोल चुका दो। यह सुनकर सत्यभामा कहती है- कुछ क्या मुनिवर इनके बदले में मैं आपको इतना दूंगी...इतना दूंगी कि जितना आज तक आपको किसी ने कुछ ना दिया होगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण सत्यभामा को देखते हैं कि हां अभी भी अहंकार बाकी है।
सत्यभामा कहती है कि ऐसी अमूल्य मणियां हैं, ऐसे ऐसे रत्न हैं और इतना सोना है कि आप समेटते-समेटते थक जाएंगे परंतु सोना खत्म नहीं होगा। यह सुनकर नारदमुनि कहते हैं- नारायण नारायण। मैं इतने धन का क्या करूंगा देवी। शास्त्र कहता है कि ब्राह्मण को लोभी नहीं होना चाहिए। मैं तो उतना ही लूंगा जितना शास्त्र में मर्यादा है। तब सत्यभामा कहती हैं- शास्त्र में कितनी मर्यादा है?
यह सुनकर नारदमुनि कहते हैं कि शास्त्र कहता है कि इस परिस्थिति में इनके (श्रीकृष्ण के) तोल के बराबर कोई भी पदार्थ दे दीजिये बस, प्रायश्चित स्वीकार हो जाएगा। यह सुनकर सत्यभामा कहती है- कोई भी पदार्थ अर्थात? तब नारदमुनि कहते हैं- नारायण नारायण। अर्थात कुछ भी देवी कुछ भी। फल हो, फूल हो, चावल हो और चाहे पत्ते ही हो देवी जो कुछ भी आप श्रद्धा से इनके तोल के बराबर देंगी वो मैं स्वीकार कर लूंगा।
यह सुनकर सत्यभामा गर्वित होकर प्रसन्न हो जाती है और कहती है- धन्यवाद देवर्षि जब सत्यभामा इनका तुलादान करेंगी तो फूल पत्तों से नहीं सोने-चांदी से करेगी, माणिक-मोतियों से करेगी। यह सुनकर नारदमुनी हंसते हुए कहते हैं- नारायण नारायण, जैसी आपकी इच्छा देवी। तुलादान का प्रबंध कीजिये।... यह सुनकर हाथ जोड़कर सत्यभामा कहती है- जी। तब श्रीकृष्ण नारदमुनी की ओर देखकर मुस्कुराते हैं।
फिर सभी लोगों और कई ब्राह्मणों के समक्ष विधिवत रूप से तुला के एक पलड़े में श्रीकृष्ण को बैठाया जाता है और दूसरे में सत्यभामा थाल में सजे सोने, चांदी और माणिक को रखती हैं। कई थाल रखने के बाद भी जब वह यह देखती है कि श्रीकृष्ण का पलड़ा तो हिला भी नहीं तब वह और थालें रखवाती हैं।
आसमान में सभी देवी और देवता श्रीकृष्ण की इस लीला को देखकर प्रसन्न होकर उन्हें नमस्कार करते हैं। फिर दूसरे पलड़े में और थालें रखी जाती हैं तो यह देखकर नारदमुनि प्रसन्न होकर कहते हैं- नारायण नारायण। परंतु श्रीकृष्ण का पलड़ा हिलता भी नहीं है।
जगतपति श्रीकृष्णजी को तोलने चली है एक दिवानी।
कैसा है ये साहस कैसी बुद्धिमानी।
क्या कोई उनका मोल लगाए,
किन रत्नों से तोला जाए।
धर्म, अर्थ, काम मोक्ष के है स्वयं जो दानी।
श्रीकृष्णजी को तोलने चली है एक दिवानी।
तोल रही तू श्रीहरि को हरि तेरी भक्ति को तोल रहे हैं।
आप न जाने कोहे के प्रभु तेरे अहम् की ग्रंथियां खोल रहे हैं।
थाल पर थाल रखें जाते हैं लेकिन श्रीकृष्ण का पलड़ा भारी ही रहता है यह देखकर सत्यभामा बहुत ही अचंभित हो जाती है। श्रीकृष्ण सत्यभामा की ओर देखकर मुस्कुराते हैं। सत्यभामा असमंजस में पड़ जाती है कि अब क्या करूं। श्रीकृष्ण सत्यभामा की ओर ही देखते रहते हैं। वहां रखा सारा सोना, चांदी आदि समाप्त हो जाते हैं तब सत्यभामा दासियों से कहती हैं- जाओ और लेकर आओ।... तब खजानें से और माणिक्य आदि लाकर रखे जाते हैं परंतु स्थिति जस की तस रहती हैं। सत्यभामा का चेहरा असमजस से भरा रुआंसा हो जाता है।
अंत में सत्यभामा निराश भाव से श्रीकृष्ण की ओर देखती है तब श्रीकृष्ण भी सत्यभामा की ओर देखकर मुस्कुराते हैं। फिर रुक्मिणी को सत्यभामा पर दया जा जाती है। तब नारदजी कहते हैं- देवी सत्यभामा नारायण नारायण। तब सत्यभामा कहती है- इतने पर भी द्वारिकाधीश वहीं के वहीं बैठे हैं। फिर सत्यभामा दासियों को पुन: आदेश देती है- जाओ थोड़ा जेवर और लेकर आओ।
दासियां जाकर देखती हैं तो सब कुछ खाली हो चुका होता है। वह पुन: आकर सत्यभामा से कहती हैं- महारानीजी अब कुछ भी नहीं बचा है। यह सुनकर सत्यभामा अचंभित हो जाती है। तब वह अपने गले का हार निकालकर तुला में रख देती हैं। फिर अपनी कमरबंध को भी रख देती हैं। यह देखकर प्रभु मुस्कुराते रहते हैं। तब वह अपने हाथ के कंगन उतारकर रख देती हैं। फिर मुकुट रखकर श्रीकृष्ण की ओर देखती है लेकिन श्रीकृष्ण वैसे के वैसे ही बैठे रहते हैं यह देखकर सत्यभामा बेहद ही निराश हो जाती है क्योंकि अब उसके पास कुछ भी नहीं बचता है।
तब रुक्मिणी मानसिक रूप से श्रीकृष्ण से कहती हैं- द्वारिकाधीश अब तो सत्यभामा पर कृपा कर दीजिये। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- मेरी कृपा तो सबपर रहती हैं देवी। तब रुक्मिणी पूछती है तो फिर सत्यभामा की इतनी कठिन परीक्षा क्यों ले रहे हैं आप? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि परीक्षा तो सबको देनी ही पड़ती है। सत्यभामा केवल स्वर्ण से मुझे तोलना चाहती है परंतु वह ये भूल गई है कि नारी के पास इन आभूषणों के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ है। नारी का मन, उसका समर्पण भाव और उसकी आत्मा। आभूषण तो केवल देह को सुंदर बनाते हैं देवी, मन को नहीं। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- तो फिर सत्यभामा का मन भी सुंदर बनाइये ना। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- वही तो कर रहा हूं देवी, क्या तुम सत्यभामा की सहायता नहीं करोगी? तब रुक्मिणी कहती है- जो आज्ञा प्रभु।
फिर रुक्मिणी निराश खड़ी सत्यभामा के पास जाती है तो सत्यभामा कहती है- दीदी। मेरे पास जो कुछ था मैं सबकुछ इन्हें अर्पण कर चुकी हूं। तब रुक्मिणी कहती है- सत्यभामा अभी सबकुछ कहां अर्पण किया है तुमने। फिर रुक्मिणी अंगुठी की ओर संकेत करके कहती है ये देखो। ये मुद्रिका अभी भी तुम्हारे पास है। फिर रुक्मिणी मुद्रिका निकालकर कहती हैं- आभूषण तो देह के बाहरी आडंबर होते हैं पगली। इनके सहारे तुम श्रीकृष्ण को तोलने चली थी? परंतु देख लिया ना इनका कौतुक। इन्हें अपनी आत्मा के अनुराग से तोलो सत्यभामा। एक पत्नी की भावना से तोलो...हां। ये सोने के आभूषण तुम्हारे अहंकार के प्रतीक थे। अच्छा किया जो उन्हें अर्पण कर दिया। अब एक भक्त की भांति इन्हें पुकारों। भक्ति और प्रेम से ये हार जाएंगे, धन और अहंकार की शक्ति से नहीं। श्रीकृष्ण सत्यभामा की ओर देखकर मुस्कुरा रहे होते हैं।
फिर रुक्मिणी वह अंगुठी सत्यभामा को देकर कहती है- लो ये अंतिम मुद्रिका पूरी श्रद्धा के साथ चढ़ा दो। और इसके साथ अपनी आत्मा भी चढ़ा दो इस तुला पर। निश्चय ही जीत तुम्हारी होगी सत्यभामा। धन का अहंकार छोड़ो, ये तो तुलसी के पत्ते से भी रीझ जाएंगे। फिर रुक्मिरी तुलसी का एक पत्ता लेकर अंगुठी में लगाकर सत्यभामा को दे देती हैं।
सत्यभामा उसे लेकर देखती है और अपने माथे से लगाकर पूर्ण श्रद्धा और भक्तिभाव से तुला पर रख देती है और तभी चमत्कार होता है। प्रभु का पलड़ा ऊपर उठ जाता है। सभी खड़े होकर फूल बरसाने लगते हैं और सत्यभाभा यह देखकर प्रसन्न और अचंभित हो जाती है और श्रीकृष्ण को आंसू भरकर भक्तिभाव से देखने लगती है। श्रीकृष्ण भी प्रसन्न होकर सत्यभामा को देखकर गद्गद हो जाते हैं।
यह देखकर नारदमुनि श्रीकृष्ण को प्रणाम करके कहते हैं- नारायण नारायण, लो प्रभु जितना पाठ आपने पढ़ाया था उतना मैंने पूरा कर दिया, और कोई आज्ञा है? यह सुनकर सत्यभामा मुस्कुराते हुए श्रीकृष्ण की ओर देखकर कहती है- अच्छा तो इस नाटक के सूत्रधार आप ही थे। यह सुनकर श्रीकृष्ण हंसते हुए कहते हैं- हां सत्यभामा इस ब्रह्मांड में जितने नाटक होते हैं या हो रहे हैं उन सबका सूत्रधार मैं ही हूं। देवी रुक्मिणी इस बात को भलिभांति जानती हैं। यह सुनकर सत्यभामा प्रसन्न होकर रुक्मिणी की ओर देखने लगती है तो रुक्मिणी की मुस्कुरा देती हैं। यह सुनकर सत्यभामा कहती है- अब समझी मैं आपकी लीलाओं के रहस्य मुझे अब दीदी से ही जानना पड़ेंगे।
फिर सत्यभामा देवर्षि के हाथ जोड़कर कहती है- देवर्षि आपने मेरी अंतरआत्मा को अहंकार के दोष से मुक्त करवा दिया। उसके लिए आपको कोटि-कोटि धन्यवाद। मुझे आशीर्वाद दीजिये की फिर कभी मेरी आत्मा में अहंकार का प्रवेश ना हो। तब नारदमुनि कहते हैं- देवी सत्यभामा उसके लिए प्राणी को श्रीकृष्ण की भक्ति का कवच पहनना पड़ता है और भक्ति भी ये ही प्रदान करते हैं। मेरा आशीर्वाद है कि इनकी कृपा आप पर सदा बनी रहे। ऐसा कहकर नारदमुनि श्रीकृष्ण को प्रणाम करके अंतरध्यान हो जाते हैं। फिर सत्यभामा श्रीकृष्ण के चरण स्पर्श करती है तो वे उन्हें आशीर्वाद देते हैं।
फिर बाद में बलरामजी श्रीकृष्ण को ढूंढते हुए आते हैं और श्रीकृष्ण को इसकी सूचना देते हैं कि अब मैं और तुम मामा बनने वाले हैं। हमारी बहन सुभद्रा गर्भवती है। यह सुनकर श्रीकृष्ण प्रसन्न हो जाते हैं। फिर वहां रुक्मिणी आकर बताती है कि आप दोनों ने आधा ही समाचार सुना है जबकि सुभद्रा की तो अब गोद भराई होने वाली है। फिर बलराममजी कहते हैं कि क्यों ना मैं अक्रूरजी को सभी भेंट वस्तुएं देकर उन्हें इंद्रप्रस्थ जाने की आज्ञा दूं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- अवश्य भैया।...अंत में इंद्रप्रस्थ में सुभद्रा की गोद भराई की रस्म बताई जाती है। जय श्रीकृष्णा।
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