निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 13 अगस्त के 103वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 103 ) में सुदामा अपनी पत्नी वसुंधरा से विदा लेकर फिर वह वहां से चला जाता है। उसकी पत्नी उसे पीछे से देखती है। कुछ दूर जाकर वह भी पलटकर देखता है। ऐसा वह दो से तीन बार करता है। फिर सुदामा उसकी नजरों से दूर चला जाता है। सुदामा को आसमान से सभी देवता देखकर भावुक हो नमस्कार करते हैं। श्रीकृष्ण उसे अपनी द्वारिका की ओर आता देख बहुत ही प्रसन्न होते हैं।
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
धूप में कई किलोमीटर दूर तक पैदल चलने के बाद सुदामा थक जाता है। एक जगह तो वह गिर पड़ता है फिर भी उठकर चलने लगता है। श्रीकृष्ण और रुक्मिणी उन्हें आते हुए देखते रहते हैं। फिर रुक्मिणी कहती है कि भगवन मुझे लगता है कि आपका भक्त तो शीघ्र ही हिम्मत हार बैठेगा। मुझे नहीं लगता है कि वह द्वारिका तक पहुंच पाएगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- हूं देखते हैं। फिर वे आंखें बंद करके उस जगह पहुंच जाते हैं जहां पर सुदाम फिसलकर गिर पड़ता है। श्रीकृष्ण उसके पीछे खड़े रहते हैं। सुदाम जैसे-तैसे उठकर फिर चलने लगता है तब श्रीकृष्ण एक ग्रामीण का वेश धारण कर लेते हैं।
फिर वे उसके पीछे बंसी बजाते हुए चलने लगते हैं। कुछ देर बाद बांसुरी की मधुर धुन सुनकर सुदामा रुककर सुनने लगते हैं तो श्रीकृष्ण उनके सामने से ही बांसुरी बजाते हुए आगे निकल जाते हैं। फिर सुदामा उन्हें रोकते हैं- अरे युवक रुको। श्रीकृष्ण उन्हें पलटकर देखते हैं तो सुदामा उन्हें उपर से नीचे तक देखता है। श्रीकृष्ण भी नीचे से उपर तक उन्हें देखते हैं। फिर श्रीकृष्ण उनके पैर छूने लगते हैं तो सुदामा कहता है- अरे...अरे ये क्या कर रहे हो? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- वीप्रवर आपकी वेशभूषा देखकर लग रहा है कि आप ब्राह्मण हैं। तथा आपकी आंखों में आध्यात्मिक तेज भी है। जिसे देखकर मन ने चाहा कि आपका आदर-सत्कार करूं। भला एक सच्चे ब्राह्मण का आदर-सत्कार करना मैं कैसे छोड़ दूं।
सुदामा सुनकर कहता है- यशस्वी भव:। बड़े संस्कारी लगते हो। यह सुनकर श्रीकृष्ण चलते हुए कहते हैं- क्षमा करें दीनबंधु आप आ कहां से रहे हैं?... सुदामा भी उनके साथ चलने लगता है तो फिर श्रीकृष्ण पूछते हैं और आप जा कहां रहे हैं और आपका शुभ नाम क्या है? तब सुदामा कहता है कि मेरा नाम सुदामा है। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि परंतु इतनी कड़ी धूप में इस पीड़ा में भी आप यात्रा कर रहे हैं। यह सुनकर सुदामा कहता है- अरे पीड़ा कैसी तुम्हारी बंसी की धुन सुनते ही सारी पीड़ा दूर हो गई। किशन-कन्हैया की याद आ गई। बड़ी मनमोहक धनु बजा लेते हो तुम। बिल्कुल किशन-कन्हैया की भांति। किससे सीखा ये जादू, ये धुन?
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये धुन भी श्रीकृष्ण की धुन है। आपको देखकर ऐसा लगता है कि आप भी श्रीकृष्ण के भक्त हैं? यह सुनकर सुदामा कहता है- जय श्रीकृष्ण। तब श्रीकृष्ण भी कहते हैं- जय श्रीकृष्ण। सुदामा फिर कहते हैं- जय श्रीकृष्ण। श्रीकृष्ण मेरे भगवान भी हैं और मेरे परममित्र भी। उनके दर्शनों की अभिलाषा से ही द्वारिका जा रहा हूं...और तुम? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- मैं? मैं मुरली मनोहर, मैं भी द्वारिका ही जा रहा हूं। यह सुनकर सुदामा कहते हैं- तुम भी द्वारिका ही जा रहे हो? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- हां मैं द्वारिका में ही रहता हूं ना। यह सुनकर सुदामा प्रसन्न हो जाता है तब श्रीकृष्ण कहते हैं- अच्छा हुआ आप मिल गए। अब यात्रा आराम से कटेगी। मैं अपनी धरम पत्नी को मायके छोड़ने गया था। बड़ी मुश्किल से यहां तक पहुंचता हूं। मेरे पग ही आगे नहीं उठते। यह सुनकर सुदामा हंसने लगता है तभी उसके पैर में कांटा चुभ जाता है।
तब वह दर्द से कराहते हुए कहता है- अरे पग उठाने में ही तो मुश्किल है। तब श्रीकृष्ण उन्हें संभालकर वह कांटा निकाल कर उन्हें संभालते हैं। तब सुदामा कहते हैं- तुम तो जवान हो। फिर श्रीकृष्ण सुदामा को एक सिल्ला पर बैठाते हैं और कहते हैं अरे कुछ ना पूछें। ये ससुरी जवानी खुद ही कठिनाइयों की एक कठिनाई है। यह सुनकर सुदामा हंसने लगता है। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- और उस पर ये अकेलापन... हाय। धरम पत्नी को मायके छोड़कर जब पग आगे बढ़ाता हूं तो मन बावरा पीछे दौड़ने लगता है। यह सुनकर सुदामा फिर से हंसने लगता है।...फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- क्या करूं लक्ष्मी देवी की याद पीछा नहीं छोड़ती। यह सुनकर रुक्मिणी भी हंसने लगती है।
यह सुनकर सुदामा कहता है- लक्ष्मीदेवी! यानि तुम्हारी पत्नी? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- हां हां वो। वो तो बड़ी ही सुंदर है। बहुत ही मनमोहक है। उसकी याद में कभी मुरली बजाता हूं और कभी गाना गाता हूं। फिर श्रीकृष्ण गाना गाने लगते हैं और फिर श्रीकृष्ण पूछते है- मान्यवर आप अपनी पत्नी की याद में गाना नहीं गाते? यह सुनकर सुदामा कहता है- नहीं...नहीं मैं नहीं गाता ऐसे गाने। मैं तो भगवान की स्तुति गाता हूं...श्रीकृष्ण श्रीकृष्ण। तब श्रीकृष्ण पूछते हैं फिर भी आपको अपनी पत्नी की याद तो सताती होगी? सच-सच बताइये, देखिये मित्र, मित्र से कोई बात छुपानी नहीं चाहिए।
यह सुनकर सुदामा सिल्ला पर से उठते हुए कहता है- तुम भी बड़े विचित्र प्राणी हो, एकदम विचित्र। अभी दो पल नहीं हुआ मिले हुए और लगे मित्रता जताने। यह कहकर सुदामा आगे बढ़ जाता है। तब पीछे से श्रीकृष्ण कहते हैं कि अरे ब्राह्मण देव, बुरा क्यों मानते हो रुको, अरे रुको ब्राह्मण देव। फिर श्रीकृष्ण सुदामा के पास पहुंचकर कहते हैं- अरे ब्राह्मण देव बुरा क्यों मानते हो, हम तो ऐसे ही हैं। हमने आपको अपना समझा सो अपने मन की कह दी। पर यदि आप अपनी अपने तक ही रखें तो ये तो ठीक नहीं है ना। हमने आपको अपना समझा तो आपको भी तो हमें अपना समझना चाहिए ना?
यह सुनकर सुदामा कहता है, परंतु आत्मसम्मान भी तो कोई वस्तु होती है। अरे में अपने परममित्र
कृष्ण-कन्हैया को अपनी दशा नहीं बताता तो फिर तुम्हें कैसे बता दूं? यह सुनकर श्रीकृष्ण व्यंग से कहते हैं- हां वह तो आपकी दशा देखकर ही मालूम पड़ रहा है कि आप बड़े स्वाभिमानी हैं। वर्ना ऐसे कैसे हो सकता है कि द्वारिकाधीश का मित्र इस हाल में हो। यह सुनकर सुदामा नजरें चुराने लगता है तब श्रीकृष्ण कहते हैं- आप कुछ भी कहिये एक भूल अवश्य कर रहे हैं। तब सुदामा पूछता है- भूल! कौनसी भूल? फिर श्रीकृष्ण कहते हैं कि आप सोच रहे हैं कि छुपाने से सब छुप जाता है परंतु जब कोई किसी से प्रेम करता है तो सब पता चल जाता है।
एक नदी के किनारे यह सुनकर सुदामा कहता है- क्या अनाप-शनाप बक रहे हो। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं बक नहीं रहा हूं। अब देखिये आपने तो हमें कुछ नहीं बताया कि आपका घर-परिवार क्या है, आपके कितने बच्चे हैं, आप कहां से आएं हैं परंतु मुझे सब पता है। मैं सब बता सकता हूं, आप कहें तो बता दूं? यह सुनकर सुदामा असमंजस में पड़ जाता है और श्रीकृष्ण की ओर देखने लगता है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- कहिये मान्यवार बता दूं? सुदाम नहीं कहता हुआ आगे बढ़ जाता है।
फिर श्रीकृष्ण पीछे से कहते हैं- अरे भैया रुको। अरे ब्राह्मण देवता मुझे अकेले छोड़कर कहां जा रहे हो? अरे अभी तो यात्रा बहुत लंबी है कश्ती में मेरे साथ चलिये ना? पूरे बीस कोस यात्रा कम हो जाएगी। फिर श्रीकृष्ण उसका हाथ पकड़क लेते है तो सुदामा कहता है- मैं नहीं आता, तुमसे दूर रहना ही अच्छा है। तुम बड़ी उल्टी-सीधी बातें करते हो। ऐसा कहकर वे आगे चले जाते हैं तब श्रीकृष्ण पीछे से रोककर उन्हें कहते हैं- अरे ब्राह्मण देव! आपको भगवान श्रीकृष्ण की शपथ है जो आप मेरे साथ नहीं चले हां। यह सुनकर सुदामा रुक जाता है और कहता है- अच्छा चलो चलते हैं भैया। फिर श्रीकृष्ण और सुदामा दोनों नाव में सवार हो जाते हैं और तब श्रीकृष्ण नाविकों से कहते हैं चलो भैया चलो।
तब सुदामा कहता है कि मैं जानता था कि तुम मेरा पीछा नहीं छोड़ने वाले। मुझे तुमसे भय लगने लगा है, तुम अवश्य कोई बहुरुपिये हो। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं ब्राह्मण देव मैंने तो केवल इतना ही सोचा था कि सफर इतना लंबा है और आपका साथ मिल जाएगा तो सफर आसानी से कट जाएगा। वर्ना तो लक्ष्मीदेवी की याद मेरे पैर पकड़ लेती और आपके बिना मैं कदापि द्वारिका नहीं पहुंच पाऊंगा। तब सुदामा कहते हैं कि तुम्हारे होते मेरा रास्ता काटना बहुत कठिन है। मैं अपने किशन-कन्हैया में ध्यान भी नहीं लगा पाऊंगा। तुम मेरा ध्यान अवश्य भंग कर दोगे। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं नहीं वीप्रवर आप अपने कृष्ण पर ध्यान लगाएं मैं बाधा नहीं डालूंगा, मैं तो अपनी लक्ष्मीदेवी पर ध्यान लगाऊंगा।
यह सुनकर सुदामा कहते हैं- अरे बावरे पत्नी-वत्नी का ध्यान छोड़ दे। भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान लगा, जीवन सफल हो जाएगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- अरे पत्नी ही नहीं मिलेगी तो जीवन क्या खाक सफल होगा? हे ब्राह्मण देवता कृपाया मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो। आप अपने प्रभु का प्रेम मंत्र पढ़िये और मुझे प्रेम गीत गाने दीजिये मैं कुछ नहीं कहूंगा और आप कुछ ना कहियेगा। यह सुनकर सुदामा चीढ़ते हुए कहता है- अच्छा-अच्छा जो जी चाहे करो पर मेरा ध्यान भंग ना करो।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- ठीक हो गया, आप मंत्र पढ़िये और मैं गीत गाता हूं। फिर श्रीकृष्ण लक्ष्मीदेवी पर गीत गाने लगते हैं कि लक्ष्मीदेवी जैसी ही हमरी दुल्हनिया गौरी, दुल्हनिया बिन रहा ना जाएगा। बिरहा का दुखड़ा सहा जाए ना। यह सुनकर रुक्मिणी प्रसन्न होकर मुस्कुराने लगती है और सुदामा देखता है कि ये क्या गा रहा है...श्रीकृष्ण श्रीकृष्ण।
फिर नाव से उतरने के बाद रास्ते भर श्रीकृष्ण यही गाना गाते रहते हैं। अंत में सुदामा कहते हैं- अरे भैया गीत ही गाते रहोगे कि रात्रि में सोने का प्रबंध भी करोगे। अरे इधर-उधर कोई गांव हो तो चलो। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- मान्यवर अब गांव कहां ढूंढूगें। यह कहते ही श्रीकृष्ण सामने एक खंडहर की ओर इशारा करते हुए कहते हैं- अरे वो देखिये, वो टूटा हुआ खंडहर, चलिये रात यहां आराम से कट जाएगी।
फिर वह दोनों खंडहर के द्वार पर जाते हैं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- चलो अंदर ब्राह्मण देवता। तब सुदामा कहता है- तुम चलो अंदर मैं अभी आता हूं। फिर सुदामा बहार चला जाता है और श्रीकृष्ण अंदर। अंदर श्रीकृष्ण को भगवान विष्णु की मूर्ति दिखाई देती है तो वे कहते हैं- जय श्रीकृष्ण जय श्रीकृष्ण। फिर वह मूर्ति के सामने एक जगह को साफ करके अपना नारंगी पंछा सामने डालकर बैठ जाते हैं। उधर सुदामा एक झरने पर हाथ-मुंह धोने लगता है तभी उसे मुरली की मधुर धुन सुनाई देती है। यह सुनकर वह मगन हो जाता है। फिर सुदामा हाथ-मुंह धोकर भीतर जाने लगता है।
उधर, भीतर मुरली की धुन को सुनकर एक सर्प आकर आंख बंद किए श्रीकृष्ण के सामने फन फैलाए बैठ जाता है। तभी सुदामा भीतर आकर ये दृश्य देखता है तो दंग रह जाता है। और वह धीरे-धीरे बोलता है भैया भैया। यह सुनकर श्रीकृष्ण बगैर आंखें खोले पूछते हैं- क्या है ब्राह्मण देवता? तब सुदामा कहते हैं- नहीं स..स...स..सांप। यह सुनकर श्रीकृष्ण आंखें खोलकर कहते हैं- सांप। फिर वह सांप को देखकर कहते हैं- प्रणाम नागदेवता। हमारे सुदामा आपसे डर रहे हैं। तब सांप पलटकर सुदामा को देखता है और चला जाता है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- ब्राह्मण देवता नागदेवता तो चले गए अब तो आप पधारिये। फिर सुदामा डरता हुआ एक ओर बैठ जाता है।
फिर श्रीकृष्ण अपने गमछे में से भोजन निकालकर कहते हैं कि आइये ब्राह्मणदेव भोजन कीजिये। हमारी लक्ष्मीदेवी के हाथ का बनाया भोजन आप एक बार कर लेंगे तो सारे भोज भूल जाएंगे।... यह सुनकर रुक्मिणी प्रसन्न हो जाती है। तब सुदामा कहता है नहीं मुरली मनोहर मुझे भूख नहीं है तुम खाओ। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- ये कैसे होता है वीप्र, भला आपके बिना मैं कैसे भोजन कर सकता हूं?
तब सुदामा कहता है कि क्यूं नहीं कर सकते, तुम्हारी पत्नी ने बनाकर दिया है तो तुम्हें अवश्य खाना चाहिए।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- परंतु शास्त्रों में लिखा है कि जब आंखों के सामने कोई ब्राह्मण भूखा हो तो उसे खिलाए बिना स्वयं खाना पाप है। इसलिए थोड़ासा तो भोजन कर लीजिये। देखिये लक्ष्मीदेवी ने क्या-क्या बनाया है। ये बेसन की रोटी, ये खट्टा-मीठा अचार और ये मोतीचूर के लड्डू। वाह लक्ष्मीदेवी वाह, मजा आ गया। यह सुनकर रुक्मिणी प्रसन्न हो जाती है। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- बड़ी दयालु है मेरी लक्ष्मीदेवी, कृष्ण भक्तों पर तो जान छिड़कती है। बड़ी मुश्किल से सुदामा खाने के लिए तैयार होते हैं।
फिर वह खाने लगते हैं तो उन्हें अपने बच्चों की याद आती है कि वे भूखें होंगे अपनी मां से खाना मांग रहे होंगे। तब वह भोजन की पत्तल पुन: नीचे रख देता है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- क्या हुआ ब्राह्मण देवता? इस पर सुदामा कहता है- कुछ नहीं, कुछ नहीं मुरली मनोहर मुझे भूख नहीं है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि परंतु आप भी तो यात्रा करके आए हो आप भी तो भूखे हो? यह सुनकर सुदामा कहते हैं- पर मुझसे खाना नहीं खाया जाएगा। ऐसा कहकर वह उठकर खड़ा हो जाता है तब श्रीकृष्ण भी खड़े होकर पूछते हैं कि इतना तो बता दो की भूखे रहने का कारण क्या है? तब सुदामा कहता है कि मेरे बच्चे भूखे होंगे। मैं उन्हें भूखा छोड़कर आया हूं...अपने पीछे। ऐसा कहने से श्रीकृष्ण उदास हो जाते हैं और फिर सुदामा जय श्रीकृष्ण कहते हुए एक ओर जाकर बैठ जाता है।
फिर श्रीकृष्ण मुस्कुराते हैं- और वे देखते हैं कि सुदामा की पत्नी अपने बच्चों को सांत्वना देकर सुला रही है कि तुम्हारे पिता जल्दी ही द्वारिका से लौटेंगे तो बहुत सारा खाना लाएंगे। बस थोड़ी प्रतीक्षा और करो बेटे।
परंतु उसके बच्चे कहते हैं- मां मुझे बहुत भूख लगी है, खाना दे दो। फिर उसकी पत्नी देखती है कि घर के सामने एक पालकी रुकी है जिसमें सुदामा बैठे हैं ये देखकर वह प्रसन्न हो जाती है और द्वार पर जाकर उन्हें देखती है तो वह कहती है- स्वामी आ गए, स्वामी आ गए। बच्चों देखो तुम्हारे पिताजी आ गए। अब हमारे सारे दुख दूर हो जाएंगे। अब मेरे बच्चों को कभी भूखा रहना नहीं पड़ेगा। द्वारिकाधीश ने उनका आदर-सत्कार करके उन्हें निहाल करके उन्हें विदा किया है। वो देखो वो पालकी में आ रहे हैं।...परंतु सुदामा की पत्नी का ये भ्रम रहता है पालकी में तो चक्रधर रहता है।
चक्रधर पालकी में से उतरता है और फिर पालकी में से भोजन की एक टोकरी निकालकर लाता है। फिर एक बच्चा सुदामा की पत्नी वसुंधरा को हिलाते हुए कहता है मां ये पिताजी नहीं, चाचाजी हैं। यह सुनकर वसुंधरा की तंद्रा भंग होती है। फिर चक्रधर पास जाकर कहता है- प्रणाम भाभीजी। वसुंधरा कहती है- आइये, बैठिये। चक्रधर भीतर आकर कहता है कि मैंने सोच सुदामा द्वारिका गया है तो मैं आप लोगों का हाल पूछ लूं। ये मैं कुछ भोजन लाया हूं। फिर वह फल, केले और लड्डू की टोकरी को बच्चों के सामने रखकर कहता है लो बच्चों। परंतु वसुंधरा बच्चों को इशारे से उन्हें लेना का मना करती है। चक्रधर कहता है- ले लो। तभी सभी बचचे अपनी मां की ओर देखते हैं तब फिर वसुंधरा कहती हैं कि नहीं देवरजी। यह सुनकर चक्रधर कहता है- पर क्यूं भाभीजी? तब वसुंधरा कहती है- क्षमा करें देवरजी, परंतु हम आपकी ये भेंट स्वीकार नहीं कर सकते हैं। तभी एक बच्चा जिद करने लगता है कि मां मुझे भूख लगी है तब वसुंधरा अपने दूसरे बालक से कहती है बेटा इसे थोड़ा पानी पीला दो।
तब चक्रधर कहता है कि मेरी समझ में नहीं आता कैसी मां हैं आप? बच्चे भूख से मर रहे हैं और आप हैं कि.. तब वसुंधरा कहती है कि मैं केवल एक मां नहीं, एक पत्नी भी हूं। ममता धर्म के साथ पत्नी धर्म भी निभाना होता है। तब चक्रधर कहता है- अर्थात? तब वसुंधरा कहती है कि अर्थात ये कि मैं अपने पति की आज्ञा बिना आपकी कोई भी भेंट स्वीकार नहीं कर सकती। यह सुनकर चक्रधर कहता है इस तरह तो आप मेरा अपमान कर रही हैं भाभीजी। तब वसुंधरा कहती है कि मैंने पहले भी आपसे क्षमा मांगी थी और अब भी क्षमा मांग रही हूं। आप बुरा ना मानें, यदि मेरे पति की इच्छा और आज्ञा के बिना मुझे कोई स्वर्ग भी दे तो मैं उसे स्वीकार नहीं कर सकती। उनकी आज्ञा पालन ही मेरा धर्म है। यह सुनकर चक्रधर कहता है इसमें धर्म और अधर्म की बात ही नहीं भाभीजी। सुदामा मेरा मित्र है और क्या एक मित्र दूसरे मित्र की सहायता नहीं कर सकता। द्वारिकाधीश के पास भी तो वो मदद मांगने गए हैं। केवल इसलिए ना की श्रीकृष्ण उनके मित्र हैं?
यह सुनकर वसुंधरा कहती हैं कि श्रीकृष्ण की बात और हैं वो केवल उनके मित्र नहीं, भगवान भी हैं। मैं जानती हूं कि द्वारिका मैं भी वो अपने मित्र से कुछ नहीं मांगेंगे। हां, ईश्वर से मांगने में कोई लज्जा नहीं। अगर त्रिलोकीनाथ कृपा करें तो कौन मूरख इनकार करेगा। यह सुनकर चक्रधर कहता है कि मैंने सोचा था सुदामा नासमझ है जिनसे राजा की भेंट को स्वीकार नहीं किया पर आप भी।...यह सुनकर वसुंधरा कहती हैं कि मैं भी तो उनकी अर्धांगिनी हूं। भला मैं उनसे अलग कैसे हो सकती हूं। यह सुनकर चक्रधर कहता है- आप धन्य हैं भाभीजी। मैं जा रहा हूं। आपकी विचारधारा बदले और कोई आवश्यकता पड़े तो नि:संकोच अपने इस देवर को संदेश भेज दीजियेगा। मैं उसी पल सेवा में उपस्थित हो जाऊंगा।
यह सुनकर वसुंधरा कहती है कि आप चिंता न करें देवरजी, जो दुख देता है वह दुख हरता भी है। जिसने पेट दिया है वह भोजन भी अवश्य देगा। फिर चक्रधर वहां से चला जाता है।
उसके जाने के बाद एक बालक पूछता है कि आपने उनका खाना क्यों लौटा दिया तो वह बताती है कि तेरे पिताजी ने राजा का झूठा गुणगान नहीं किया परंतु तेरे चाचा ने उनका झूठा गुणगान करके धन कमाया है जिससे वह भोजन लाएं हैं। वह भोजन स्वीकार करके मैं अपने पति की नजरों में नहीं गिरना चाहती। यदि वो भूखे हैं तो हम भी भूखें रहेंगे और यदि उन्हें खाना मिलेगा तो हमें भी भोजन अवश्य मिलेगा, ये मेरा विश्वास है।
तभी बाहर ढोल की आवाज सुनकर वसुंधरा अपने बच्चों के साथ बाहर जाती है तो देखती है कि एक बैलगाड़ी में खाने की ढेर सारी सामग्री है और एक व्यक्ति ढोल बजाकर मुनादी कर रहा है कि सुनो...सुनो...सुनो। ठाकुर सांवले शाह के यहां पोते ने जन्म लिया है। इस खुशी के अवसार पर एक महायज्ञ का अनुष्ठान किया गया है जो दस दिनों तक होता रहेगा तथा इन्हीं ठाकुर सावले शाह ने दस-दस कोस तक ब्राह्मण परिवारों को तीनों समय का भोजन और मिष्ठान देने की घोषणा की है। यह मुनादी चक्रधर भी सुन रहा होता है। यह सुनकर वसुंधरा प्रसन्न हो जाती है और श्रीकृष्ण मुस्कुराते हैं। जय श्रीकृष्णा।
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