निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 3 सितंबर के 124वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 124 ) में विकटासुर पुतले से पैदा किए अपने असुर अचंभासुर को भानामति और प्रद्युम्न का वध करने के लिए गंधमादन पर्वत पर भेजता है। उधर भानामति से मायावी विद्या सिखने के बाद प्रद्युम्न दक्षिणा देने के बाद करते हो तो भानामति कहती है कि तुम मुझे गुरु दक्षिणा देना चाहते हो ना? तब प्रद्युम्न कहता है- हां गुरुदेव। फिर भानामति कहती है- तो उठो वत्स और देखो आसमान में संभुरासुर का भेजा हुआ राक्षस हमें ढूंढता हुआ आ रहा है। तुम मेरी दी हुई शिक्षा से उस राक्षस का वध कर दो यही मेरी गुरु दक्षिणा होगी। तभी वह राक्षस अचंभासुर जिसे विकटासुर ने भेजा था उन दोनों को देख लेता है।
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
अचंभासुर उन्हें देखकर कहता है- अच्छा तो तुम यहां हो। अब मैं तुम्हें असुरेश्वर के पास ले जाऊंगा। यह देखकर प्रद्युम्न अपनी माया से एक धनुष और बाण प्राप्त करता है और फिर उसे बाण मारने का प्रयास करता है तो वह असुर अपनी माया से अदृश्य होकर जोर-जोर से हंसने लगता है। वह असुर भी अदृश्य होकर अस्त्र-शस्त्र चलाता है। अंत में भानामति कहती है कि किसी मायावी से मायावी युद्ध ही करना चाहिए तुम उसकी माया नष्ट कर दो। फिर वह तुम्हारे सामने आ जाएगा। फिर जैसे ही वह दिखाई देने लगता है तो भानामति कहती है- अब समय मत गवांओ और इसी समय इसका वध कर दो वर्ना संभरासुर के कई मायावी यहां आ जाएंगे।
तब प्रद्युम्न अपने तीर से अचंभासुर का एक हाथ काट देता है परंतु वह फिर जुड़ जाता है। फिर वह गर्दन काट देता है तो गर्दन भी फिर से जुड़ जाती है। फिर तलवार से दो टूकड़े कर देता है तो वह असुर कहता है कि मैंने कहा था न कि मेरा कोई वध नहीं कर सकता। मुझे कोई मिटा नहीं सकता। यह कहकर वह दानव अदृश्य हो जाता है तो भानामति घबराकर श्रीकृष्ण से प्रार्थना करती है कि हे प्रभु! इस संकट में मेरे प्रद्युम्न की रक्षा करो।
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि भानामति विकटासुर ने अचंभासुर का निर्माण किया है। उसने एक मिट्टी की मूरत बनाकर उस मूरत से अचंभासुर के प्राणों की स्थापना की है। तुम्हें उस मूर्ति को नष्ट करना होगा। जिस पल तुम उस मूर्ति को नष्ट कर दोगी उसी पल प्रद्युम्न अचंभासुर का वध करने में सफल हो जाएगा। यह सुनकर भानामति अपने सूक्ष्म शरीर से वहां से चली जाती है और इधर प्रद्युम्न अचंभासुर से लड़ता और बचता रहता है।
उधर, भानामति विकटासुर के द्वारा स्थापित पुतले को ढूंढते हुए उसके पास पहुंच जाती है और फिर अपनी माया से उस पुतले को नष्ट कर देती है। जैसे ही वह पुतला नष्ट होता है उधर प्रद्युम्न भी अचंभासुर का वध कर देता है। फिर भानामति पुन: अपने स्थान पर लौट आती है। जब यह घटना विकटासुर को पता चलती है तो वह कहता है- भानामति मैं तुमसे बदला लूंगा। मैं किसी भी प्रकार तुम्हारा वध करूंगा। ऐसा कहकर विकटासुर भी गंधमादन पर्वत की ओर उड़ चलता है।
उधर, भानमति कहती है कि इन आयुधों को देखकर लगता है कि तुम्हें विकटासुर का विस्मरण हो गया है। यह सुनकर प्रद्युम्न कहता है- नहीं माताश्री। तब वह कहती है कि तो फिर तुमने इन आयुधों को नीचे क्यों रख दिया है? अभी तक तो युद्ध का प्रारंभ ही नहीं हुआ पुत्र प्रद्युम्न और तुमने इन आयुधों को नीचे रख दिया। तुमने जिस अचंभासुर का वध किया था उसका निर्माण विकटासुर ने किया था और वह बदला लेने यहां अवश्य ही आएगा। इसके बाद तो तुम्हें हर पल सावधान रहना चाहिए। अचंभासुर की तरह विकटासुर का भी वध कर दिया तो समझ लो कि युद्ध प्रारंभ होने के पहले ही संभरासुर का आत्मविश्वास डगमगा गया।..
यह सारी बातें विकटासुर सुन लेता है और अपनी माया से एक सुंदर हिरण बनाकर उस उपवन में छोड़ देता है। उसे देखकर भानामति और प्रद्युम्न दोनों ही प्रफुल्लित हो जाते हैं। तब प्रद्युम्न उस हिरण को अपने तीर से मार देता है तो भानामति कहती है कि ठहरों इसे मैं लेकर आती हूं। जब मायावती वहां से चली जाती है तो विकटासुर अपनी माया से भानामति बनकर हाथ में मृत हिरण लेकर प्रद्युम्न के पास पहुंच जाता है। तब प्रद्युम्न कहता है- माताश्री आप अतिशीघ्र आ गई? तब भानामति बना विकटासुर कहता है कि हां पुत्र प्रद्युम्न कुछ कार्य ऐसे होते हैं जो अतिशीघ्र पूरे किए जाते हैं। यदि मैं इस हिरण को अतिशीघ्र उठाकर नहीं लाती तो अन्य वनपशु इसे ले जाते। अब मैं इसका स्वादिष्ट भोजन बनाकर तुम्हें खिलाऊंगी, लो इसे जाकर रख दो।
प्रदयुम्न वह हिरण हाथ में से ले लेता है तभी वहां पीछे से असली भानामति हिरण लेकर आती है तो वह यह दृश्य देखकर अचंभित हो जाती है। वह जोर से चीखती है- प्रद्युम्न। यह देखकर प्रद्युम्न भी अचंभित हो जाता तभी नकली भानामति असली भानामति पर अपने मायावी अस्त्र का प्रहार करती है। तत्काल भानामति भी अस्त्र का प्रहार करके उसे विफल कर देती है। प्रद्युम्न को समझ में नहीं आता कि कौन असली है। तभी विकटासुर अपने असली रूप में आकर वहां से भागकर आकाश में स्थित हो जाता है। प्रद्युम्न के हाथ में रखा मायावी हिरण सर्प में बदलकर प्रद्युम्न को जकड़ लेता है। यह देखकर भानामति घबरा जाती है।
फिर विकटासुर अपनी माया से सर्प में जकड़े प्रद्युम्न को आसमान में खींच लेता है। तब भानामति कहती है- प्रद्युम्न! अपनी मायावी विद्या का प्रयोग करके विकटासुर का प्रतिकार करो। फिर प्रद्युम्न मंत्र पढ़कर नागपाश से मुक्ति होकर विकटासुर से मायावी युद्ध करने लगता है। फिर दोनों अग्निरूप धारण करके नीचे उतरकर मल्ल युद्ध करने लगते हैं। फिर वह संभरासुर को आसमान में फेंक देता है जहां पर वह अपने असली रूप में आ जाता है तब प्रद्युम्न कहता है कि विकटासुर जब तक तुम मेरी जीत का कथन संभरासुर को नहीं कर देते तब तक तुम्हारे प्राण तुम्हारे मुंड में अटके रहेंगे। ऐसा कहकर प्रद्युम्न एक दिव्य त्रिशूल छोड़ता है जिससे उसका सिर धड़ से अलग हो जाता है। धड़ भूमि पर गिर पड़ता है और सिर आसमान में दूर चला जाता है।..यह देखकर भानमति हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण का धन्यावाद करती है। प्रद्युम्न अपनी माता भानामति को प्रणाम करता है।
उधर, कुंभकेतु अपने पिता संभुरासुर से कहता है कि पिताश्री अब आप विश्राम कीजिये। यह सुनकर संभरासुर कहता है कि विश्राम कैसे करूं। उधर विकटासुर प्रद्युम्न के साथ युद्ध कर रहा है फिर मैं विश्राम कैसे कर सकता हूं। यह सुनकर मायावती कहती है कि परंतु विकटासुर अभी तक आया कैसे नहीं?
इस पर संभरासुर कहता है कि अवश्य आएगा महारानी अवश्य। वह किसी भी पल आएगा और बताएगा कि स्वामी मैंने प्रद्युम्न का वध कर दिया है। कदाचित वह प्रद्युम्न का सिर भी प्रमाणित करने के लिए साथ लेकर आएगा। ऐसा कहकर संभरासुर जोर-जोर से हंसने लगता है।
तभी वहां पर प्रद्युम्न द्वारा त्रिशूल से फेंका गया विकटासुर का अकेला मुंड आकर कहता है- स्वामी, स्वामी।.. यह देखकर संभरासुर, मायावती और कुंभकेत अचंभित हो जाते हैं। तब वह मुंड कहता है- स्वामी प्रद्युम्न अजेय है, प्रद्युम्न तुम्हारा काल है। प्रद्युम्न के हाथों तुम्हारी मृत्यु निश्चित है। विकटासुर ही क्या बल्कि आप भी प्रद्युम्न का बाल भी बांका नहीं कर सकते स्वामी।
यह सुनकर संभरासुर क्रोधित होकर कहता है- विकटासुर तुमने मेरा और मेरी मायावी शक्तियों का अपमान किया है। तब विकटासुर का मुंड कहता है- क्षमा करें महाराज। मैं आपको वास्तविकता बताना चहता था। मुझे खेद है कि मैं आपकी आज्ञा का पालन नहीं कर सका। मुझे दुख है महाराज कि मैं आपकी सेवा पूरी तरह से नहीं कर सका।..
यह सुनकर संभरासुर कहता है कि फिर भी तुम मुझे अपना मुंह दिखाने का साहस कर रहे हो। यह सुनकर विकटासुर कहता है- क्षमा कीजिये स्वामी मैं यहां आना नहीं चाहता था। यह सुनकर संभरासुर कहता है कि फिर भी तुम अपनी हार की कहानी मुझे सुनाने चले आए हो। यह सुनकर विकटासुर कहता है कि मुझे प्रद्युम्न ने विवश किया स्वामी प्रद्युम्न ने। यह सुनकर संभरासुर कहता है फिर से तुम मेरे सामने शत्रु की प्रशंसा कर रहे हो।
इस पर विकटासुर कहता है कि क्षमा करें स्वामी मैं आपको वास्तविकता बताना चाहता हूं कि प्रद्युम्न ने मेरा वध करके मेरा सिर आपके पास भेज दिया है।....यह सुनकर संभरासुर अचंभित रह जाता है तब विकटासुर कहता है ये उसकी माया है माया। जब तक मैं प्रद्युम्न की जीत का समाचार आप तक नहीं पहुंचाता तब तक मेरे प्राण मेरे मुंड में अटके रहेंगे, स्वामी अटके रहेंगे। स्वामी मेरा अंतिम प्रणाम स्वीकार करें। ऐसा कहते हैं कि विकटासुर का मुंड भस्म हो जाता है। यह देखकर संभरासुर अचंभित और भयभित हो जाता है।
उधर, भानामति अपने पुत्र प्रद्युम्न की आरती उतारती है और तिलक लगाती है तब प्रद्युम्न कहता है कि माताश्री मैं धर्मयुद्ध आरंभ करने जा रहा हूं। आप मुझे आशीर्वाद दीजिये। भानामति उसे विजयीभव: पुत्र कहकर आशीर्वाद देती है और फिर युद्ध का उपदेश देकर कहती है कि शत्रु के घर में आचानक घुसकर उसे आश्चर्य चकित करो पुत्र। धर्मयुद्ध में जीत हमेशा धर्म की ही होती है। फिर भानामति कहती है कि संभरासुर के घमंड का प्रतीक है उसका विजय स्तंभ। तुम अपने अंतरचक्षुओं से देखो तो तुम्हें अवश्य नजर आएगा।
फिर उधर, संभरासुर को अपने विजयी स्तंभ के पास खड़ा हुआ बताया जाता है जहां पर वह खड़ा होकर अपने सभी पुत्रों को युद्ध के लिए एक-एक करके तलवार भेंट कर रहा होता। तलवार भेंट करते वक्त वह विजयी स्तंभ की ओर देखकर ही तलवार भेंट करता है।.. प्रद्युम्न अपने अंतरचक्षु से यह सब देख रहा होता है।
तब संभरासुर कहता है मेरे वीर पुत्रों हमारा ये विजय ध्वज और ये विजय स्तंभ हमारे लिए हमारे प्रणों से भी अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि यह हमारी विजय और हमारी सत्ता का प्रतीक है। इसलिए हम इस विजयी स्तंभ की सुरक्षा दिन-रात करते रहते हैं। परंतु अब मैं चाहता हूं कि इस विजयी स्तंभ की सुरक्षा का मेरे चारों वीर पुत्र अपने सर लें। चारों पुत्र कहते हैं- अवश्य पिताश्री। तब संभरासुर कहता है कि तुम लोग ये बात भलिभांति समझ लो की चाहे महाप्रलय आ जाए परंतु इस विजय स्तंभ पर तनीक भी खरोच नहीं आनी चाहिये।
फिर इधर, भानामति कहती है- पुत्र तुमने त्रिलोक के सांप और उसके चारों सपोलों के साथ विजयी स्तंभ को भी देख लिया है। तुम्हें इस विजय स्तंभ को तोड़ना है परंतु उससे पहले तुम्हें संभरासुर का घमंड तोड़ना है। इसके लिए तुम्हें उसके घर में जाकर उसे भयभित करना है और उसे युद्ध के लिए ललकारना है। इस पर प्रद्युम्न कहता है- अवश्य माताश्री। अब मुझे आज्ञा दीजिये। मैं शत्रु के घर में घुसकर उसे ललकारने जा रहा हूं।
फिर उधर, राजदरबार में अपने सभी पुत्रों और दरबारियों से संभरसुर कहता है कि मेरा एक शत्रु चूहे की भांति बिल में छुपा बैठा है। फिर संभरासुर बताता कि प्रद्युम्न रसायन विद्या से युवा बन बैठा है और छल से उसने मेरे असुरों का वध कर दिया है। त्रिलोक पर आक्रमण करने से पहले हमें उसका वध करना अति आवश्यक है। इसलिए यदि वो पातल में भी छुपा बैठा हो तो उसे ढूंढ निकालो क्योंकि वह कायर कभी भी सामने से आक्रमण करने वाला नहीं है।
तभी वहां पर कुछ सैनिक गिर पड़ते हैं तो संभरासुर क्रोधित होकर कहता है सैनिकों ये क्या कर रहे हो। तभी वहां पर द्वार के बाहर से कुछ और सैनिक फेंके जाने लगते हैं। संभरासुर कहता है ये सब क्या हो रहा है? किसने सैनिकों को फेंककर हमारा अपमान किया है, हमारे दरबार का अपमान किया है? यह सुनकर एक सैनिक कहता है- क्षमा करें महाराज! कोई सिरफिरा युवक है जो अंदर आना चाहता था जब हमने उसे रोकने की कोशिश की तो उसने हमें उठाकर यहां फेंक दिया है। यह सुनकर संभारासुर कहता है कि अवश्य ही उसकी मृत्यु उसे यहां खींच लाई है जाओ उसे इसी क्षण बंदी बनाकर हमारे सामने प्रस्तुत करो।
तभी वहां पर प्रद्युम्न खुद ही द्वार पर आ धमकता है और कहता है- हे दैत्यराज।....सभी उसकी ओर देखने लगते हैं। फिर प्रद्युम्न चलकर सभा के बीच में उपस्थित हो जाता है तो संभरासुर उसे उपर से नीचे तक देखता है तब प्रद्युम्न कहता है- मुझे कहीं भी जाने से और कहीं भी आने से कोई भी रोक नहीं सकता।
यह सुनकर संभरासुर कहता है- अच्छा तो बड़ा गुमान है तुम्हें अपने बाहुबल पर। सैनिकों ले जाओ इसे और डाल तो कारागार में। चार सैनिक प्रद्युम्न का हाथ पकड़ लेते हैं परंतु वह उसे खींच नहीं पाते हैं। प्रद्युम्न एक ही जगह खड़ा-खड़ा मुस्कुराता रहता है और फिर वह चरों सैनिकों को जब उठाकर फेंक देता है तो संभरासुर के चार पुत्र तलवार निकालकर उसके पास पहुंचते हैं तो संभरासुर कहता है- रुको। चारों पुत्र पुन: अपने सिंहासन पर बैठ जाते हैं।
तब संभरासुर कहता है- हे युवक मेरे पुत्र तुम पर मृत्यु बनकर टूट पड़े थे फिर भी तुम्हें भय नहीं लगा। तब प्रद्युम्न कहता है कि मृत्यु से भय कैसा, अपनी मृत्यु से तो कायर डरते हैं। यह सुनकर संभरासुर कहता है- वाह तुम्हारी बहादुरी ने तो हमारा दिल जीत लिया। तब प्रद्युम्न कहता है- जीत तो मेरा भाग्य है असुरेश्वर, जिसे कोई बदल नहीं सकता। तब संभरासुर कहता है- हे तेजस्वी वत्स! अपना परिचय नहीं दोगे हमें? कौन हो तुम और हमारी इस सभा में क्यूं आए हो? इससे पहले तो हमने अपने साम्राज्य में तुम्हें पहले कभी नहीं देखा।
इस पर प्रद्युम्न कहता है कि मैं एक योद्धा हूं और आप ही के साम्राज्य में रहता हूं। मेरा नाम, मेरी पहचान मेरी शक्ति और विद्याएं हैं। मैंने सभी विद्याएं ग्रहण की है और उनका प्रदर्शन करने के लिए ही मैं आपकी सभा में उपस्थित हुआ हूं। यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं उनका प्रदर्शन करूं। यह सुनकर संभरासुर मायावती की ओर देखता है तो महाराजी मायावती कहती है- आज्ञा है।
फिर प्रद्युम्न अपनी माया से वहां पर बादल पैदा कर देता है और उन बादलों में बिजली भर देता है। भयानक बिजलियां कड़कने लगती है। ये देखकर सभी घबरा जाते हैं। फिर प्रद्युम्न भूमि पर आग का गोला प्रकट कर देता है तो सभी अपने-अपने सिंहासन से उठकर दूर खड़े हो जाते हैं। सभी में भय व्याप्त हो जाता है। संभरासुर और मायावती ये देखकर भयभित और अचंभित रह जाते हैं। फिर प्रद्युम्न अपनी माया से वहां वर्षा उत्पन्न कर देता है। उस वर्षा से आग बुझ जाती है और फिर सबकुछ पहले जैसा हो जाता है। संभरासुर ये देखकर अवाक् रह जाता है। फिर प्रद्युम्न अपनी माया से अदृश्य हो जाता है।
फिर वहां पर अपनी माया से वह भानमति और उसके हाथ में छोटा-सा बालक सभा में उपस्थित कर देता है। बालक हाथ में लेकर भानामति कहती है- महाराज महाराज।.. ये देखकर संभरासुर और मायावती अचंभित हो जाते हैं। भानामति रोते हुए अपने बालक को अपने हाथ में लेकर संभरासुर के पास पहुंचती है और कहती है- महाराज..महाराज मेरे बच्चे की रक्षा कीजिये महाराज। मेरे पुत्र की रक्षा कीजिये महाराज। मेरे प्रद्युम्न की रक्षा कीजिये।...यह देखकर संभरासुर को कुछ समझ में नहीं आता कि ये हो क्या रहा है तभी वहां पर भानामति अदृश्य हो जाती है और विशाल काया में प्रद्युम्न प्रकट होकर जोर-जोर से हंसता और फिर कहता है और माया दिखाऊं असुररेश्वर?
भयभित खड़ा असुरेश्वर संभरासुर पूछता है- कौन हो तुम? यह सुनकर प्रद्युम्न जोर-जोर से हंसने लगता है तो संभरासुर क्रोधित होकर कहता है- कौन हो तुम बताते क्यों नहीं? यह सुनकर प्रद्युम्न पुन: जोर-जोर से हंसने लगता है तो संभरासुर कहता है कि तुम मेरा उपहास कर रहे हो। जानते हो संभरासुर ऐसे लोगों को मृत्युदंड देता है मृत्युदंड। यदि तुम समझते हो कि संभरासुर तुम्हारी माया के प्रभाव में आ गया होगा तो ये तुम्हारी भूल है। मैं स्वयं महान मायावी हूं। यदि मैं चाहूं तो तुम्हें इसी पल मृत्यु के हवाले कर सकता हूं।
यह सुनकर प्रद्युम्न पुन: जोर-जोर से हंसते हुए कहता है परंतु आप ऐसा नहीं कर सकते असुरेश्वर। यह सुनकर संभरासुर कहता है- क्यों, क्यों नहीं कर सकता? तब प्रद्युम्न कहता है- क्योंकि आप ही ने तो मुझे अभय दिया है। इस पर संभरासुर कहता है- मैंने अभय दिया है तुम्हें! कब अभय दिया है तुम्हें? तुम्हें तो आज मैं पहली बार देख रहा हूं। हे मायावी युवक तुम मुझे भ्रमित करने का प्रयास मत करो।
यह सुनकर प्रद्युम्न कहता है कि मैं आपको भ्रमित नहीं कर रहा हूं असुरेश्वर बल्कि आपका भ्रम तोड़ने का प्रायास कर रहा हूं। मैं आपको स्मरण करा देना चाहता हूं कि मेरी और आपकी भेंट पहले भी हो चुकी है। आप ही ने तो मुझे अपने हाथों में लेकर मुझे सीने से लगाया था और आपने ही मेरा नामकरण भी किया है। यह सुनकर संभरासुर और मायावती चौंक जाते हैं। फिर भी संभुरासुर आश्चर्य से पूछता है- मैंने तुम्हारा नामकरण किया है? यह सुनकर प्रद्युम्न कहता है कि हां असुरेश्वर और जब युवराज कुंभकेतु जब मेरा वध करने आया था तब आप ही ने मुझे अभय दिया था। यह सुनकर संभरासुर, मायावती और कुंभकेतु आश्चर्य चकित और भयभित हो जाते हैं। जय श्रीकृष्णा।
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा