निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 28 सितंबर के 149वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 149 ) में कुरक्षेत्र में जब अपनों के देखकर अर्जुन युद्ध करने से इनकार कर देता है तब श्रीकृष्ण उसे गीता के सांख्य योग का ज्ञान देते हैं। आज के एपिसोड में भी यही ज्ञान जारी रहता है।
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
अर्जुन कहता है कि हे केशव! यदि सभी के प्रारब्ध में मरना लिखा है तो मैं क्यों अपने हाथों से उन्हें मारूं। मैं अपने भीष्म पितामह को क्यों मारूं जब वे मर ही जाएंगे तो? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अच्छा तो तुम अपने हाथों से भीष्म पितामह को नहीं मारना चाहते हो, परंतु तुम ये तो बताओ कि कौन है तुम्हारे भीष्म पितामह और कहां है? यह सुनकर अर्जुन कहता है- ये क्या कह रहे हो, भीष्म पितामह कहां है और कौन हैं, तुम्हें दिखाई नहीं देते क्या? वो सामने ही तो खड़े है भीष्म पितामह।
तब श्रीकृष्ण अंगुली उठाकर कहते हैं- वो! वो जो रथ के उपर खड़ा है? यह सुनकर अर्जुन कहता है- हां वही तो। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- पर जो रथ के उपर खड़ा दिखाई दे रहा है पार्थ वह तो केवल भीष्म पितामह का शरीर है। मैं पूछता हूं कि असली भीष्म पितामह कौन है, कहां हैं? यह सुनकर अर्जुन कहता है- हे कृष्णा तुम्हारी बात मेरी समझ में नहीं आ रही है। वो जो दिख रहा है वो भीष्म पितामह नहीं है केवल शरीर है इसका अर्थ है कि भीष्म पितामह कोई और है?
तब श्रीकृष्ण कहते हैं- अवश्य यही तो समझा रहा हूं मैं। देखो ध्यान से, देखो उस शरीर में जो प्रकाश है वही तो भीष्म पितामह है। मैं तुम्हें दिव्य चक्षु प्रदान करता हूं। फिर श्रीकृष्ण दिव्य चक्षु प्रदान करते हैं और कहते हैं- इन दिव्य चक्षुओं से देखो उस आत्मा को, वो उस शरीर के अंदर जो प्रकाश है वही है उनकी असली आत्मा। दिखाई दे रही है उनकी आत्मा? यह सुन और देखकर अर्जुन कहता है- हां केशव एक प्रकाशरूपी आत्मा दिखाई दे रही है। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- बहुत अच्छे। अब देखो सुदर्शन चक्र से मैं उनके शरीर को काट दूं तो केवल उनका शरीर ही मरेगा, परंतु उनकी आत्मा का प्रकाश नहीं बुझेगा। देखो मैं तुम्हारे इन दिव्य चक्षुओं को ये दृश्य सजीव करके दिखाता हूं।
फिर श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र उनकी अंगुलियों पर घर्र-घर्र करने लगता है और तब श्रीकृष्ण उसे जाने का संकेत करते हैं। सुदर्शन चक्र तक्षण ही जाकर भीष्म पितामह के दो टूकड़े करके पुन: लौट आता है। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- देख लिया अर्जुन मेरे सुदर्शन से केवल उस शरीर का नाश हुआ है उसकी आत्मा का दीया अब भी उसी प्रकार जल रहा है।
संजय यह बात धृतराष्ट्र को बताता है तो धृतराष्ट्र कहता है- क्या पितामह का वध, युद्ध शुरू होने से पहले ही। संजय कृष्ण ने तो इस युद्ध में शस्त्र न धारण करने का वचन दिया था। फिर उसने सुदर्शन चक्र कैसे धारण किया? ये अधर्म है, ये युद्ध के नियम के विरूद्ध है। तब संजय कहता है- महाराज वासुदेव ने सचमुच पितामह का वध नहीं किया है वह तो केवल उदाहरण देते हुए पितामह के शरीर के टूकड़े करके शरीर के अंदर की आत्मा को दर्शा रहे हैं। ये तो वासुदेव श्रीकृष्ण की लीला है। तब धृतराष्ट्र कहता है- लीला नहीं संजय ये कृष्ण की माया है माया, ये कृष्ण बड़ा मायावी है। नि:संदेश वह अर्जुन को भ्रमित कर रहा है। वह उसे युद्ध के लिए प्रेरित कर रहा है।
फिर श्रीकृष्ण आत्मा की अमरता की बातें करते हैं। यह सुनकर संजय और धृतराष्ट्र के बीच श्रीकृष्ण की राजनीति और शांतिदूत बनने की बातें होती हैं। अंत में धृतराष्ट्र कहता है- यह कृष्ण एक कुटिल राजनीतिज्ञ है। उसकी दार्शनिक बातों में मत जाओ संजय, शांतिदूत बनना तो उसका नाटक था, उसकी चाल देखो चाल। वह इस युद्ध में कौरव और पांडव दोनों की शक्तियों का विनाश कराना चाहता है ताकि इसके बाद वह भरतक्षेत्र का एकछत्र सम्राट बन जाए।
फिर श्रीकृष्ण आत्मा और शरीर के अलग-अलग होने की बात करते हैं। फिर श्रीकृष्ण जन्म, जीवन और मृत्यु के चक्र की बात करते हैं। फिर जब माता पार्वती को श्रीकृष्ण की यह बात समझ में नहीं आती है कि प्रभु एक ही जन्म में कई शरीरों की ये क्या बात कर रहे हैं तो तब भगवान शिव समझाते हैं।
धृतराष्ट्र संजय से कहता है- ये कृष्ण अर्जुन की बुद्धि भेदन करके ही छोड़ेगा। ना किसी के मरने का दुख मनाओ और ना किसी के जन्म की खुशी मनाओ, भला ये भी को बात हुई। मनुष्य सुख-दु:ख के अनुसार प्रतिक्रिया प्रकट नहीं करेगा तो फिर जियेगा कैसे। फिर किसी मनुष्य में और किसी पत्थर की मूर्ति में अंतर ही क्या रह जाएगा।
फिर जब अर्जुन यह पूछता है कि जब आत्मा नित्य और अमर है तो फिर प्राणी को जब दुख होता है या मान होने में जो आनंद आता है उसमें तो शरीर को कोई चोट नहीं पहुंचती। वो मानहानी का दुख और वो अपकीर्ति की पीड़ा तो आत्मा को ही होती है ना? यह सुनकर श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं- ये आत्मा का काम नहीं है ये तो मन की शरारत है।.. फिर भगवान मन क्या है और उसका जाल क्या है इसके बारे में विस्तार से बताते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि मन व्यक्ति को इतनी फुर्सत नहीं देता कि वह अपनी आत्मा को पहचाने।
फिर धृतराष्ट्र कहता है- संजय अपनी आत्मा और परमात्मा का दर्शन तो मैं भी करना चाहता हूं। मुझे क्यों नहीं होता इसका दर्शन। तब संजय कहता है कि कैसे होगा महाराज। अपने प्रभु के दर्शन के लिए तन की नहीं मन की आंखों की आवश्यता होती है परंतु आपने तो अपने अंतर चक्षु बंद कर रखे हैं। फिर आपको प्रभु का साक्षात्कार कैसे हो सकता है। फिर मन की आंखें खुली ना हो और प्रभु सामने भी हो तो भी दर्शन नहीं होते हैं।
यह सुनकर माता पार्वती शिवजी से कहती हैं- प्रभु ये संजय कैसी उलझी-उलझी बातें कर रहा है जो उसके मन में है उसे स्पष्ट रूप से क्यों नहीं कहता? तब शिवजी कहते हैं- देवी संजय ईश्वर पर आस्था रखता है। वह भगवान श्रीकृष्ण का भक्त है और दूसरी ओर वह महाराज धृतराष्ट्र का सेवक भी है। इसलिए उसे अपनी भक्ति और अपना सेवा धर्म दोनों ही निभाना पड़ रहा है। ना तो वह अपने भगवान के प्रभुत्व के विरूद्ध कुछ कह सकता है और ना अपने स्वामी महाराज धृतराष्ट्र की इच्छा के विरूद्ध। इसलिए वह खुलकर कुछ कहना नहीं चाहता। यह सुनकर माता पार्वती कहती हैं- इस दुविधा के होते हुए भी संजय ने बड़ी चतुराई से बड़ी सच बात कह दी कि भगवान के दर्शन के लिए तन से कहीं अधिक मन की आंखों की आवश्यकता होती है और महाराज धृतराष्ट्र तन और मन दोनों आंखों से अंधे हैं।
उधर, धृतराष्ट्र कहते हैं कि संजय तुम्हारी बातें भी श्रीकृष्ण की बातों की तरह गोलमोल है। मेरी समझ में नहीं आती, तुम मुझे बताओ की इस समय कुरुक्षेत्र में क्या हो रहा है। जय श्रीकृष्णा।
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