निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 23 सितंबर के 144वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 144 ) में श्रीकृष्ण के निवेदन पर भगवान शंकर अर्जुन का गुरु बनने के पूर्व किरात का भेष बदलकर उसकी परीक्षा लेते हैं कि वह श्रेष्ठ धनुर्धर और साहसी है या नहीं। अर्जुन शिवजी से युद्ध करता है और जब हार के कगार पर रहता है तब वह किरात से कहता है कि युद्ध अभी समाप्त नहीं हुआ है परंतु अब मैं शिवजी की पूजा करने के बाद युद्ध करूंगा। अंत में शिवजी प्रकट होकर उसे अपना शिष्य बनाते हैं और पाशुपतास्त्र की शिक्षा देते हैं।
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उधर, कर्ण, शकुनि और दुर्योधन बाते करते हैं कि आज पांडवों का बारह वर्ष का वनवास समाप्त हो रहा है इसलिए अब उन्हें एक वर्ष का अज्ञातवास काटना ही होगा। अब हमें उन्हें ढूंढ निकालना होगा ताकि वे पुन: 12 वर्ष के लिए वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास काटने पर मजबूर हो जाएं। दुर्योधन अपने गुप्तचरों को उन्हें ढूंढ़ने का आदेश देता है।
गुप्तचर चारों दिशाओं में उन्हें ढूंढने निकल पड़ते हैं परंतु गुप्तचर उन्हें ढूंढने में नाकाम रहते हैं तो दुर्योधन बैचेन हो जाता है। शकुनि भी क्रोधित होकर कहता है- अब क्या करें? कर्ण कहता है- मित्र मुझे तो लग रहा है कि पांडवों को उन्हें उनका राज्य वापस सौंपना ही पड़ेगा।
इधर, दुर्योधन और उसके गुप्तचर जिन पांडवों को चप्पे-चप्पे पर ढूंढ रहे थे वो पांडव विराट नगर के राजा के महल में भेष बदलकर उनके दास बनकर रह रहे थे। सम्राट युधिष्ठिर कंकभट्ट के नाम से राजा के साथ रहकर चौसर खेलकर उनका मनोरंज करते थे तो भीम बल्लव नाम का रसोईया बनकर भोजन तैयार करता था। उर्वशी के श्राप के अनुसार अर्जुन एक साल के लिए नपुंसक होकर वृंहन्नला नाम का नर्तक बनकर राजकुमारी उत्तरा को नृत्य की शिक्षा दे रहा था। नकुल तंतिपाल बनकर घुड़साल में घोड़ों की चंपी करता था और सहदेव तंतीक के नाम से गौशाला में काम करता रहता। दूसरी ओर द्रौपदी सैरंधी बनकर महारानी के केशों का श्रृंगार करती रहती थी।
उधर, रुक्मिणी पूछती है- क्या बात है प्रभु आज आप अति प्रसन्न हो रहे हैं तो श्रीकृष्ण कहते हैं कि हां देवी, आज पांडवों की तेरह वर्ष की प्रतीक्षा का अंत हो रहा है ना इसलिए प्रसनन हूं। देवी अज्ञातवास के बाद जब पांडव विराट के दरबार में प्रकट होंगे तब राजा विराट की क्या दशा होगी इस विचार से ही मुझे आनंद आ रहा है। वो देखो महाराज विराट अपनी रानी सुदेशणा और राजकुमारी उत्तरा के साथ युवराज की प्रशंसा कर रहे हैं ये समझकर की उसी ने युद्ध में कौरवों को मार भगाया है।
विराट कहते हैं- अपने पुत्र उत्तर को वाह युवराज वाह। तुमने कौरवों को पशुओं की भांति रणभूमि में खदेड़ दिया है। इस पर युवराज उत्तर कहता है- पिताश्री ये सत्य नहीं है। यह सुनकर राजा विराट कहते हैं- ये सत्य नहीं है, तो फिर सत्य क्या है? तब युवराज कहता है कि ये गौरवशाली विजय हमें पांडु पुत्र अर्जुन द्वारा प्राप्त हुई है। यह सुनकर विराट नगर के राजा चौंक जाते हैं। फिर उत्तर बताता है कि पांचों पांडवों ने हमारे यहां ही भेष बदलकर अज्ञातवास काटा है। फिर उत्तर बताता है कि कौन क्या बनकर रहा था। तब विराट कहता हैं कि वो कंकभट्ट तो सम्राट युधिष्ठिर थे जिनका गोटी फेंककर मैंने अपमान किया था। अब मैं उन्हें क्या मुंह दिखाऊंगा। तब उत्तर कहता है कि चिंता मत कीजिये पिताश्री मैंने महाराज युधिष्ठिर को आपके सिंघासन और अन्य पांडवों को दूसरे सिंघासन पर विराजमान कर दिया है।
फिर विराट अपने परिवार सहित खुद के ही दरबार में हाथ जोड़े उपस्थित होता है। सैरंधी बनी द्रौपदी सुदेशणा और उत्तरा को अपने गले लगा लेती हैं और युधिष्ठिर महाराज विराट को इसके लिए धन्यवाद देते हैं कि हम आपके राज्य में आपकी छत्र-छाया में रहे। तभी एक सेवक आकर सूचना देता है कि महाराज द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण आपसे मिलने के लिए पधारे हैं। यह सुनकर द्रौपदी और पांचों पांडव सहित विराट राजा भी प्रसन्न हो जाते हैं।
फिर सभी द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण का स्वागत करते हैं। सभी श्रीकृष्ण के चरण स्पर्श करते हैं। फिर श्रीकृष्ण अपने साथ आए अभिमन्यु से कहते हैं- अरे अभिमन्यु तुम पीछे क्यों खड़े हो, आगे आओ। यह सुनकर अर्जुन चौंक जाता है। उत्तर अभिमन्यु को देखकर मोहित हो जाती है। फिर अभिमन्यु अपने पिता अर्जुन सहित सभी पांडवों के चरण स्पर्श करता है।
फिर सभी मिलकर श्रीकृष्ण को सिंहासन पर विराजमान करते हैं। फिर वहां कई तरह की बातें होती है। अंत में विराट नगर के राजा विराट कहते हैं कि मैं आपका उपकार कभी नहीं चुका सकता परंतु यदि आप मेरी बेटी उत्तरा को चक्रवर्ती परिवार में स्वीकार कर लें तो, मेरी पुत्री उत्तरा अर्जुन से नृत्य की शिक्षा लेती रही हैं यदि उन दोनों का विवाह हो जाए तो अच्छा रहेगा। अर्जुन कहता है- परंतु मुझे ये प्रस्ताव स्वीकार नहीं क्योंकि मैंने उत्तरा को नृत्य सिखाया है इसलिए मैं उसका गुरु हूं और धर्म के अनुसार गुरु अपनी शिष्या के लिए पिता के समान होता है इसलिए यह विवाह उचित नहीं है।
तब श्रीकृष्ण कहते हैं- अर्जुन ठीक कह रहा है कि यह विवाह उचित नहीं है परंतु इसमें निराश होने की कोई बात नहीं। यदि महाराज विराट और महाराज युधिष्ठिर को स्वीकार हो तो राजकुमारी उत्तरा का अर्जुन पुत्र अभिमन्यु से विवाह हो सकता है। यह सुनकर सभी प्रसन्न हो जाते हैं और दोनों का विवाह तय हो जाता है।
उधर, धृतराष्ट्र और गांधारी के समक्ष दुर्योधन आश्चर्य से कहता है- अभिमन्यु का विवाह और मुझे निमंत्रण। मामाश्री लगता है पांडव पागल हो गए हैं। तब शकुनि कहता है- भांजे पांडव तो सदा से ही पागल ही थे। अरे भला कोई अपने शत्रु को निमंत्रण भेजता है? फिर दोनों जोर-जोर से हंसते हैं।.. फिर गांधरी कहती है- उनके वनवास के बाद अब हमें उनका राजपाट लौटा देना चाहिए। यह सुनकर दुर्योधन कहता है- नहीं कदापि नहीं। मैं इंद्रप्रस्थ देकर मेरे राज्य का फिर से बंटवारा नहीं होने दूंगा। यदि पांडवों ने हमसे उलझने की कोशिश की तो युद्ध अवश्य होगा।
उधर, पांडवों और श्रीकृष्ण के समक्ष राजा द्रुपद की सभा में द्रुपद अपनी तलवार निकाल कर कहता है- यदि दुर्योधन की तलवार युद्ध के लिए उत्सुक है तो मेरी तलवार भी उससे युद्ध करने के लिए तड़प रही है। कौरवों ने भरी सभा में मेरी पुत्री द्रौपदी के साथ जो अपमान किया उसके प्रतिशोध लेने के लिए पांचाल राज्य की हर तलवार तेरह वर्ष से सोई नहीं है। महाराज युधिष्ठिर आप युद्ध की तैयारियां कीजिये। पांचाल राज्य की सेना आपने नेतृत्व में युद्ध करेगी। यह सुनकर सभी में जोश आ जाता है और सभी अपनी प्रतिज्ञा बताते हैं।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह समय अपने क्रोध को व्यर्थ में गवांने का नहीं यह समय तो अभिमन्यु और उत्तरा के विवाह का है और यदि आप सब चाहें तो युद्ध से बचने के लिए मेरे पास एक उपाय है शांति प्रस्ताव। तब युधिष्ठिर कहते हैं कि तो ठीक है कि पहले विवाह हो जाए इसके बाद हम दूत को अपनी मांग लेकर हस्तिनापुर भेजेंगे।
फिर उत्तरा और अभिमन्यु का विवाह होता है। फिर उधर शकुनि दुर्योधन को बताता है कि इस विवाह में आमंत्रित सभी राजा और महाराजाओं की सूची देखकर मेरी आंखें फटी की फटी रह गई। भांजे इसका अर्थ ये है कि ये राजे-महाराजे इस विवाह समारोह में सम्मलित होकर इस बात का प्रमाण और आश्वासन दे रहे हैं कि वो अब भी युधिष्ठिर को ही अपना सम्राट मान रहे हैं। भांजे अब इन वनवासी पांडवों को निर्बल समझना बहुत बड़ी भूल होगी भूल। तब दुर्योधन कहता है कि मामाश्री आप व्यर्थ ही चिंतित हो रहे हैं। पांडव चाहे जितना ही बलवान हो जाएं परंतु उनका बल हमारे छल का सामना नहीं कर सकता।
यह सुनकर मामाश्री शकुनि कहता है कि इसी भ्रम में रहकर तो दशानन रावण भी मारा गया था। पांडवों ने वन की आड़ में युद्ध की तैयारी करते हुए हमारे साथ कुटिल चाल चली है भांजे। अब पांडवों ने विवाह संपन्न होते ही विराट नगर के पूरोहित को अपना दूत बनाकर भेजा है। तुम्हारे महामंत्री विदुर उस दूत को सभा में लाने के बजाय सीधे महाराज धृतराष्ट्र के पास लेकर चले गए हैं। यदि अब भी तुम समय गवांओगे तो मुझे डर है कि महाराज धृतराष्ट्र पांडवों को उनका राज्य वापस करने की भूल ना कर बैठें। यह सुनकर दुर्योधन चौंक जाता है। जय श्रीकृष्णा।
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