निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 7 जून के 36वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 36 ) में श्रीकृष्ण कहते हैं कि मुझे भी पीड़ा है। फिर श्रीकृष्ण सभी को समझाकर मार्ग से उठाते हैं और उन्हें ज्ञान की बात, कर्तव्य की बात बताकर उनसे नि:स्वार्थ प्रेम की बात करते हैं। सभी सखियां उनकी बात समझकर उन्हें वहां से हाथ जोड़कर विदा करती हैं और फिर विरह गीत गाती हैं। फिर रास्ते में एक जगह उन्हें दूर खड़ी राधा दिखाई देती है राधा उन्हें प्रणाम करती हैं।
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
कुछ दूर जाने के बाद रथ के आसपास कुछ घुड़सवार एकत्रित हो जाते हैं। कृष्ण पूछते हैं ये सब कौन है अक्रूरजी? अक्रूजी कहते हैं ये सब अपने ही साथी हैं। सुरक्षा के लिए अपने साथ आएं हैं। कृष्ण पूछते हैं सुरक्षा किससे? अक्रूरजी कहते हैं कंस के सैनिकों से। उसकी नियत में खोट है। हो सकता है कि उसके सैनिक मथुरा पहुंचने से पहले ही रास्ते में हमें घेरकर मार डालें। इसीलिए हमनें उससे भी बचने का प्रबंध कर लिया है। फिर अक्रूरजी अपनी योजना बताते हैं।
श्रीकृष्ण मुस्कुराकर कहते हैं मान गए हम आपकी सुरक्षा प्रणाली को, सचमुच आप यादवों के सरदार हैं। आपकी जितनी प्रशांसा की जाए कम है। बलराम भी कहते हैं हां सचमुच। अक्रूरजी कहते हैं राजकुमार कृष्ण हमें तो अपनी प्रशंसा या किसी पदवी की चिंता नहीं है। चिंता तो केवल आपकी सुरक्षा की है। कृष्ण ये सुनकर बलराम की ओर देखकर मुस्कुरा देते हैं। फिर अक्रूरजी कहते हैं कि ये हमारा दुर्भाग्य है कि हम स्वयं आपको एक हत्यारे के पास लेकर जा रहे हैं और हमारी आत्मा इसे स्वीकार नहीं कर रही है।
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि तो फिर आप क्या करेंगे? अक्रूरजी कहते हैं कि इसी धर्म संकट का निर्णय करना है कि हम क्या करें। एक ओर स्वामी की आज्ञा है तो दूसरी ओर हमारे साथियों का आग्रह है कि मथुरा में प्रवेश करने से पहले ही आपको भगाकर राज्य के किसी सुरक्षित स्थान पर ले जाएं। यह सुनकर श्रीकृष्ण पूछते हैं कि तो आपने कोई निर्णय लिया? अक्रूरजी कहते हैं नहीं। इसी धर्म संकट में फंसा हुआ हूं। वो भी धर्म है ये भी धर्म है।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं आप निर्णय नहीं कर सकते अक्रूरजी, परंतु मैं निर्णय कर चुका हूं। अक्रूरजी आश्चर्य से पूछते हैं क्या? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि आपके सामने दो विरोधी कर्तव्य है। आप एक राजनीतिक धर्म निभा रहे हैं परंतु में पुत्र का कर्तव्य निभा रहा हूं। एक पुत्र होने के नाते मेरा केवल एक ही धर्म है और वह है अपने पिता के दिए हुए वचन को झूठा ना होने दूं। मेरे पिताश्री ने कंस को जो वचन दिया है उसका मुझे पालन करना होगा। यही पुत्र का धर्म है। इसीलिए इस समय आपका एक ही कर्तव्य है कि आप अपने स्वामी की आज्ञा अनुसार मुझे लेजाकर कंस के हवाले कर दीजिये।
यह सुनकर अक्रूरजी द्रवित होकर कहते हैं ये भाग्य की कैसी विडंबना है प्रभु। अच्छी बात है यदि भाग्य में हजारों यादव वीरों का रक्तपात लिखा है तो ऐसा ही सही। यह सुनकर श्रीकृष्ण पूछते हैं हजारों यादव वीरों का रक्तपात वो क्यूं? तब अक्रूरजी कहते हैं कि तो आप क्या समझते हैं आपको कंस के हवाले करके अपने राजकुमार की हत्या का तमाशा देखते रहेंगे? यह सुनकर कृष्ण और बलराम मुस्कुराते हैं। अक्रूरजी आगे कहते हैं नहीं राजकुमार नहीं, एक बार मैं आपको उसके सामने खड़ा कर दूं इतने में ही अपने स्वामी का वचन पूरा हो जाता है। तत्पश्चात उसकी तलवार निकलने से पहले ही हमारे छुपे हुए यादवों की तलवार एक साथ लपक पड़ेंगी। फिर जो घमासान युद्ध होगा उसमें केवल लाशें ही लाशें होंगी। परंतु हमारे यादव वीर आप दोनों को निकाल ले जाएंगे। इसका मुझे पूर्ण विश्वास है और आप भी इसका विश्वास कीजिये।
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि अक्रूरजी मुझे तो आपकी वीरता पर पूर्ण विश्वास है। आपकी राजभक्ति पर भी पूर्ण विश्वास है परंतु आपको हम पर विश्वास नहीं। यह सुनकर अक्रूरजी कहते हैं आप पर? तब कृष्ण कहते हैं अक्रूरजी जितना आपको आपकी शक्ति पर विश्वास है उतना ही विश्वास यदि आप हमारी शक्ति पर कर लें तो फिर ये चिंता करने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।
यह सुनकर अक्रूरजी गौर से श्रीकृष्ण को देखकर कहते हैं, राजकुमार कृष्ण यही बात एक बार मुझे महामुनि गर्ग ने भी कही थी। परंतु हम कर्मयोगी हैं अंधविश्वासी नहीं। हमारा जो कर्तव्य है उसी का पालन करना हमारा धर्म है। वही हमें करने दीजिये। इसी में हमारी सहायता कीजिये प्रभु। यह सुनकर श्रीकृष्ण हाथ जोड़कर कहते हैं ठीक है हम वचन देते हैं हम वही करेंगे जो आप कहेंगे।
फिर रथ यमुना के तट पर जाकर रुक जाता है। कुछ लोग अक्रूरजी के पास आते हैं तो अक्रूरजी दोनों भाइयों से कहते हैं कि आप लोग यहीं विश्राम कीजिये मैं अभी आता हूं। श्रीकृष्ण कहते हैं अच्छा काका। अक्रूरजी रथ से उतरकर उन गुप्चचर लोगों के पास जाकर पूछते हैं क्या सूचना है। गुप्तचर बताते हैं कि हमारी चौथी टूकड़ी के घुड़सवार अभी यमुना के उस पार नहीं पहुंचे हैं। अक्ररजी कहते हैं पहुंच चुके होंगे केवल प्रकट नहीं हुए। योजना अनुसार हम जब इशारा करेंगे तब सभी प्रकट होंगे। उस इशारे के लिए हमें यमुनाजी में स्नान करना होगा। जब हम चौथी डूबकी लगाएंगे तब सभी समझ जाएंगे कि कार्रवाई का समय आ गया है। दूर से यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं वाह बड़ी सुंदर चाल है आपकी काका। तब अक्रूरजी कहते हैं ये रणनीति है राजकुमार आप नहीं समझोगे।
यह सुनकर कृष्ण मुस्कुराकर कहते हैं जी इसे तो आप ही अच्छी तरह समझते हैं।
फिर अक्रूरजी कहते हैं सारथी हमारे स्नान करने के कपड़े ले आओ। सारथी कपड़े ले आता है। फिर श्रीकृष्ण बलरामजी से कहते हैं अक्रूरजी ने तो बड़ी लंबी चौड़ी योजना बना रखी है दाऊ भैया। बलरामजी कहते हैं कि मुझे तो इन पर दया आ रही है बेचारे थक जाएंगे। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं थकने दो, अहंकार में तो यही होता है। तब बलरामजी कहते हैं नहीं नहीं नहीं, ये आपके परमभक्त हैं प्रभु, इन पर दया कीजिये। अब इनका उद्धार कर ही दीजिये। यह सुनकर कृष्ण कहते हैं जैसी आपकी आज्ञा।
उधर, अक्रूरजी कपड़े उतारकर यमुना तट पर स्नान करने के लिए जाते हैं। वे अपने सभी साथियों से कहते हैं कि आप लोग यहीं रुकिये मैं गुप्त संकेत देकर आता हूं। यह कहकर वे नदी में उतर जाते हैं। वे सूर्य को अर्ध्य देते हुए नदी में पहली डूबकी लगाते हैं। डूबकी लगाते ही उन्हें नदी के भीतर श्रीकृष्ण की आवाज सुनाई देती है। वे देखते हैं कि श्रीकृष्ण और बलराम तो नदी के भीतर एक पत्थर पर बैठे हैं। श्रीकृष्ण पूछते हैं आप यहां क्या कर रहे हैं अक्रूरजी? बोलिये ना क्या कर रहे हो? यह सुन और देखकर अक्रूरजी घबरा जाते हैं और नदी के बाहर अपना सिर निकालकर देखते हैं तो उन्हें रथ पर सवार बलराम और श्रीकृष्ण दोनों मुस्कुराते हुए दिखाई देते हैं।
रथ पर ही बैठे श्रीकृष्ण पूछते हैं, काका क्या बात है? क्या देख रहे हो?...अक्रूरजी कुछ समझ नहीं पाते हैं कि ये कैसा चमत्कार है। वे कहते हैं कुछ नहीं। ऐसा कहते हुए वे दूसरी डूबकी लगाते हैं तो उन्हें नदी के भीतर एक सिंहासन पर श्रीकृष्ण बैठे नजर आते हैं। बलराम उनके सेवक बने खड़े रहते हैं। श्रीकृष्ण पूछते हैं काका आपने हमारी बात का उत्तर नहीं दिया। आप इस स्थान पर क्या करने आए हो? बोलिये न काका, कुछ तो उत्तर दीजिये। अक्रूरजी जल के भीतर उन दोनों को गौर से देखकर आश्चर्य करते हैं। श्रीकृष्ण हंसने लगते हैं।
अक्रूरजी अपना भ्रम मिटाने के लिए नदी के भीतर ही चलकर श्रीकृष्ण और बलराम के पास जाते हैं और उन्हें गौर से देखते हैं दोनों पुन: अदृश्य हो जाते हैं। तब वे घबराकर पुन: जल के बाहर आकर देखते हैं तो उन्हें रथ पर बैठे श्रीकृष्ण और बलराम मुस्कुराते हुए नजर आते हैं।
तब श्रीकृष्ण उन्हें देखकर कहते हैं काका इतने घबराए हुए क्यूं हो? क्या बात है? अक्रूरजी कुछ समझ और कह नहीं पाते हैं यह देखकर श्रीकृष्ण हंसने लगते हैं। फिर वो तीसरी डूबकी लगाते हैं। जल के भीतर जाते ही उन्हें इस बार श्रीकृष्ण शेषनाग पर बैठे हुए नजर आते हैं जिसकी स्तुति और आरती सभी देवता कर रहे होते हैं। यह देखकर अक्रूरजी आश्चर्य चकित रह जाते हैं। वो गौर से देखते हैं तो शेषनाग में उन्हें बलरामजी नजर आते हैं। वह इस अद्भुत माया को देखकर चकित होकर सभी देवताओं के पास जाकर उन्हें देखते हैं। सभी देवताओं द्वारा श्रीकृष्ण की आरती उतारते देखकर चकित खड़े रहते हैं। वह श्रीकृष्ण को गौर से देखते हैं तो उन्हें विष्णु भगवान के सभी अवतार नजर आते हैं। अक्रूरजी हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं और यह अद्भुत लीला देखते रहते हैं। फिर हाथ जोड़े वे धीरे-धीरे वे देवताओं के बीच से होते हुए श्रीकृष्ण की ओर बढ़ते हैं और उनके पास जाकर खड़े हो जाते हैं।
तब श्रीकृष्ण कहते हैं, हे महात्मा हम तुमसे अतिप्रसन्न हैं। बहुत काल से हमारी सुरक्षा की चिंता के कारण तुम्हारे हृदय में केवल हमारा ही ध्यान और हमारा ही चिंतन था। ये अवस्था बड़े-बड़े योगियों को भी सहज में प्राप्त नहीं होती कि उनके हृदय में प्रतिक्षण केवल हमारा ही अखंठ ध्यान रहे। यह सुनकर अक्रूरजी की आंखों में आंसू आ जाते हैं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह अवस्था तुम्हें अपने पूर्व जन्मों की तपस्या और गुरु कृपा से प्राप्त हुई है, जिसके फलस्वरूप तुम्हें हमारे दुर्लभ दर्शन प्राप्त हुए हैं। हम तुम्हें हमारी सहज भक्त प्रदान करते हैं। यह देख और सुनकर अक्रूरजी रोने लगते हैं। अक्रूरजी रोते हुए कहते हैं प्रभु आपकी असीम कृपा से आज में कृत-कृत हो गया। अक्रूरजी ये कहते हुए उन्हें दंडवत प्रणाम करते हैं। जैसे ही वे दंडवत प्रणाम करके उठते हैं वैसे ही सारे दृश्य लुप्त हो जाते हैं।
फिर वे हाथ जोड़े जल से बाहर निकलते हैं। श्रीकृष्ण और बलराम उन्हें रथ पर बैठे मुस्कुराते हुए नजर आते हैं। अक्रूरजी आंखों में आंसू भरे उन्हें नमस्कार करते हैं। वे हाथ जोड़े ही नदी के बाहर निकलते हैं तो उनके साथी कहते हैं कि स्वामी आप चौथी डूबकी लगाना भूल गए। अक्रूजी हाथ जोड़े ही कहते हैं अब चौथी डूबकी लगाने की आवश्यकता ही नहीं रही। तब सेवक दूसरे किनारे की ओर हाथ बताकर कहता है परंतु वो लोग... अक्रूरजी बीच में ही रोककर कहते हैं परंतु कुछ नहीं सारे काम ठीक हो गए। ठीक हो गए सारे काम। सुनो अब सब साथियों से कह दो कि अब चिंता करने की बात नहीं। फिर अक्रूरजी श्रीकृष्ण की ओर देखकर हाथ जोड़कर कहते हैं जो सबकी रक्षा करता है उसकी रक्षा करने की हमें आवश्यकता नहीं। हमें चिंता नहीं करनी चाहिए। हमें चिंता नहीं करनी चाहिए। कृष्ण मुस्कुरा रहे होते हैं।
फिर अक्रूरजी श्रीकृष्ण के पास आकर हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं। फिर वो उनके चरणों में अपना सिर रखकर रोने लगते हैं। यह देखकर श्रीकृष्ण कहते हैं काका ये आप क्या कर रहे हैं? अक्रूरजी रोते हुए कहते हैं कि मैं अब तक आपको नहीं पहचान सका मुझे क्षमा कर दो।...फिर श्रीकृष्ण उन्हें अपने चरणों से उठाते हुए कहते हैं अक्रूरजी हम तो केवल आपकी चिंता दूर कर रहे थे। अक्रूरजी श्रीकृष्ण को चकित होकर बस देखते ही रह जाते हैं।
चाणूर आकर कंस को बताता है कि अभी-अभी सूचना मिलती है कि आज प्रात: ही अक्रूरजी कृष्ण को लेकर गोकुल से चल पड़े हैं। यह सुनकर कंस प्रसन्न होकर कहता है अतिसुंदर, देखो मार्ग में ध्यान रखना कहीं वे इधर-उधर न हो जाएं। यह सुनकर चाणूर कहता है आपका संदेह ठीक है महाराज। ऐसा भी समाचार है कि अक्रूर के घुड़सवारों का एक दस्ता रथ के पीछे-पीछे आ रहा है। परंतु चिंता की कोई बात नहीं हमारी सेना की एक टूकड़ी जंगल में छिपे-छिपे उन्हें चारों ओर से घेरकर साथ-साथ चल रही है। अब मथुरा आने के सिवाय उनके पास कोई रास्ता नहीं रहा। यहां तक की हमने पुन: गोकुल जाने वाला रास्ता भी अब बंद कर दिया है। यह सुनकर कंस कहता है उत्तम, अति उत्तम। कब तक आ जाएंगे। चाणूर कहता है उन्हें आज शाम तक यहां पहुंच जाना चाहिए। तब कंस कहता है उसके नगर में घुसते ही उसकी हत्या कर दी जाए।
इस पर चाणूर कहता है कि ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि उसके यहां आने से पहले ही नगर में यह खबर फैल गई है कि कृष्ण मथुरा का उत्सव देखने आ रहा है और लोगों को ये सूचना भी न जाने कैसे मिल गई है कि कृष्ण नंद का पुत्र नहीं है बल्कि देवकी का आठवां पुत्र है। बस इस समाचार के मिलते ही जनता में एक नया जोश पैदा हो गया है। जनता उसे तारणहार मानती है। महाराज आप ये मत भुलिये की इस वक्त मथुरा में देश-विदेशों के राजा और सरदार यहां आए हुए हैं उनके अतिरिक्त हजारों लोग उत्सव देखने के लिए मथुरा के बाजारों में घुम रहे हैं। उनके यहां रहते, उनकी आंखों के सामने हम मथुरा वासियों का कैसे दमन करेंगे? चारों और उपद्रव फैल जाएगा। यह सुनकर कंस कहता है कि फिर हम उसे कैसे मारेंगे?
चाणूर कहता है जरा धीरज से काम लीजिये महाराज। आपके शत्रु को शांति से अंदर आने दीजिये। उसके आते ही मथुरावासी चारों और से उसके दर्शनों के लिए उमड़ पड़ेंगे। उन्हें खुश होने दीजिये। उन सबको उसकी जय-जयकार करने दीजिये। आपकी ओर से भी आपके मंत्री उसका एक राजकुमार की भांति ही स्वागत करें। उसे आज की रात एक सुंदर अतिथिगृह में ठहरा दिया जाए। जनता का जोश घड़ीभर का होता है। उसका इस प्रकार स्वागत सत्कार देखकर मथुरावासी शांत हो जाएंगे और चुपचाप अपने घरों में जाकर सो जाएंगे। कंस पूछता है फिर? चाणूर कहता है फिर तो कई तरीके है महाराजा। यह सुनकर कंस प्रसन्न हो जाता है। जय श्रीकृष्ण।
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