निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 13 जून के 42वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 42 ) में वसुदेवजी गर्ग मुनि से दोनों बालकों का यज्ञोपवीत संस्कार करने और उन्हें शिष्य बनाने के लिए कहते हैं। यह सुनकर गर्ग मुनि प्रसन्न होकर कहते हैं कि ये दोनों यदि अपने भक्त को गुरुपद प्रदान करना चाहते हैं तो यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है। मैं आपका यह संकल्प अवश्य पूरा करूंगा। मेरे विचार से परसों ही ऐसा शुभ मुहूर्त है कि यह कार्य सम्पन्न किया जाना चाहिए। आप पुरोहित सत्यकजी से इसकी तैयारी करने का कहिये।
फिर दोनों कुमारों का यज्ञोपवीत संस्कार किया जाता है। यज्ञोपवीत संस्कार में उग्रसेन, रोहिणी, देवकी और वसुदेव सहित सभी कुल परिवार के लोग उपस्थित रहते हैं। यज्ञोपवीत के बाद दोनों कुमार ऋषि गर्ग के शिष्य बन जाते हैं। फिर वे ब्राह्मण बनकर अपने की परिवार के लोगों से भिक्षा मांगते हैं। माता रोहिणी और देवकी मैया उन्हें भिक्षा देती हैं।
फिर गर्ग मुनि कहते हैं कि अब तुम दोनों को विधिवत शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरु आश्रम जाना होगा। वसुदेवजी पूछते हैं गुरुदेव कौनसे आश्रम में जाना होगा? तब गर्ग मुनि बताते हैं कि उन्हें महर्षि सांदीपनि के आश्रम में जाना होगा। तब वसुदेवजी कहते हैं कहां हैं उनका आश्रम? गर्ग मुनि बताते हैं कि महाकाल की नगरी अवंतिका में। यह सुनकर वसुदेवजी कहते हैं यह तो बड़े हर्ष की बात है क्योंकि हमारी बड़ी बहन इस समय अवंतिका की राजमाता है। इस प्रकार से इन्हें कई प्रकार की सुविधाएं मिल जाएगीं।
यह सुनकर गर्ग मुनि कहते हैं कि नहीं कुमार वसुदेव अब इनका अवंतिका की राजमाता से कोई संबंध नहीं होगा क्योंकि आज भिक्षा मांगने के पश्चात अब ये राजकुमार नहीं रहे। केवल एक भिक्षुक ब्रह्मचारी हो गए हैं। अत: जब तक ये आश्रम में रहेंगे तब तक इन्हें आश्रम के नियमों अनुसार जीवनयापन करना होगा। फिर गर्ग मुनि गुरु आश्रम के नियम और दिनचर्या के बारे में बताते हैं और आश्रम के कार्यों के बारे में विस्तार से बताते हैं, जिसमें भिक्षा मांगकर लाने का भी उल्लेख होता है।
फिर दोनों कृष्ण और बलराम अकेले ही पैदल महर्षि सांदिपनि के आश्रम की ओर निकल पढ़ते हैं। कई दिनों की यात्रा कर वे महाकाल की नगरी अवंतिका पहुंचते हैं।
महाकाल के दर्शन पश्चात वे महर्षि सांदीपनि के आश्रम के द्वार पर कंधे पर समिधा लेकर खड़े हो जाते हैं। वे देखते कि वहां कई बालक महर्षि के साथ यज्ञ कर रहे हैं। फिर वे यज्ञ वाले स्थान पर पहुंच जाते हैं। यज्ञ समाप्ति पर सभी बालक खड़े होकर यज्ञ अग्नि को नमस्कार करते हैं तो वे दोनों भी सभी बालकों के पीछे खड़े होकर नमस्कार करके सभी बालकों के साथ ही बैठ जाते हैं। फिर सभी बालक दंडवत करते हैं तो वे भी दंडवत हो जाते हैं। महर्षि अपने कमंडल से जल लेकर एक-एक बालकों पर छिड़कते हैं। जिन बालकों पर जल का छिड़काव हो जाता है वे उठकर चले जाते हैं। उसी समय सांदिपनी आश्रम की गुरुमाता वहां आ जाती है और वह यज्ञ की सामग्री को समेटने लगती है।
सभी बालक चले जाते हैं लेकिन वे दोनों ही रह जाते हैं तो वे दोनों उठकर खड़े हो जाते हैं। तभी ऋषि सांदिपनि और उनकी पत्नी की नजरें उन पर पड़ती हैं। दोनों ही उनकी छवि को देखकर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। फिर वे उनके पास जाकर पूछते हैं कि कौन हैं आप लोग?
श्रीकृष्ण सांदीपनि ऋषि के चरणों में समिधा रखकर घुटने के बल बैठकर हाथ जोड़कर कहते हैं भगवन! में वृष्णिवंशी वसुदेव का पुत्र कृष्ण आपके चरणों में प्रणाम करता हूं। फिर वे साष्टांग दंडवंत करते हैं। बलरामजी भी ऐसा ही करते हैं।
सांदिपनि ऋषि पूछते हैं, यहां आने का कारण? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि भगवन हम पर अनुग्रह करके इन श्रीचरणों में बैठकर विद्या अध्ययन करने का सौभाग्य प्रदान करें तो ये जीवन सफल हो जाएगा। इसी आशा को संजोकर हम दोनों मथुरा से यहां तक आएं हैं। यह सुनकर ऋषि कहते हैं इतनी दूर से? कृष्ण कहते हैं जी, हम गुरुदेव की आज्ञा पाकर आपसे भिक्षुक बनकर विद्या का दान मांगने आए हैं।
तब ऋषि सांदिपनि कहते हैं कि कौन है आपके गुरु? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं ब्रह्माजी के साक्षात पुत्र महर्षि गर्ग। यह सुनकर सांदिपनि के चेहरे पर आश्चर्य और हर्ष व्याप्त हो जाता है और कहते हैं कि वो तो मेरे ईष्ट भगवान शिव के परम शिष्य हैं और आप उनके शिष्य है। फिर सांदिपनि ऋषि आसमान में देखते हुए कहते हैं, हे महाकाल! आपने अपने परम शिष्य के शिष्यों को मेरे यहां भेजकर
मेरा जो मान बढ़ाया है उसके लिए आपका कोटिश: धन्यवाद। फिर वे दोनों से कहते हैं कि अब मैं समझा कि आप दोनों को देखकर मेरे मन में सहसा एक ज्योति क्यों प्रकाशमान हो गई थी। आप दोनों का इस आश्रम में स्वागत है। यह सुनकर दोनों कहते हैं, 'हम धन्य हुए गुरुदेव।'
फिर ऋषि सांदीपनि अपनी पत्नी की ओर देखकर कहते हैं कि देवी इन दोनों के आवास, रहन-सहन और देखरेख का उत्तरदायित्व में आपको सौंपता हूं। ऋषि पत्नी उन्हें मां की तरह गले लगा लेती हैं। फिर दोनों को आश्रम का भ्रमण कराया जाता है। दोनों ही गौशाला सहित आश्रम में कार्य कर रहे बालकों को देखते हैं। तभी ऋषि माता सुदामा को रोककर कहती हैं सुदामा सुनो! सुदामा रुकते ही कहता है गुरु माता आज मुझे याद है कल आपने कहा था पानी कम हो गया है तो आज मैंने आपकी रसोई में पांच घड़े पानी रख दिए हैं। गुरुमाता कहती हैं कि बहुत अच्छा किया। मैंने तुम्हें यह पूछने के लिए बुलाया है कि तुम्हारी कुटिया में और कितने ब्रह्मचारी हैं?
सुदामा कहते हैं जब से पांडुरंग और सबल चले गए हैं मैं बिल्कुल ही अकेला रह गया हूं। गुरुमाता कहती हैं अच्छी बात है तो अब से ये दोनों भी तुम्हारे साथ रहेंगे। सुदामा दोनों को देखकर कहता है जी अच्छा। फिर गुरुमाता कहती हैं ये बलराम है और इसका नाम है कृष्ण। तुम इन दोनों को अपने साथ अपनी कुटिया में ले जाओ। तब तक इन दोनों के लिए मैं कुछ बनाकर ले आती हूं।
सुदामा दोनों को अपनी कुटिया में ले जाते हैं। सुदामा अपनी चटाई बिछाने के बाद उनकी चटाई बिछाने ही वाला रहता है कि श्रीकृष्ण कहते हैं रहने दो हम अपनी चटाई स्वयं ही बिछा लेंगे। यह सुनकर सुदामा कहते हैं आज नहीं कल से बिछा लेना। तब श्रीकृष्ण पूछते हैं क्यों आज क्यों नहीं। इस पर सुदामा कहता है कि आज तक यह कुटिया मेरी थी और तुम दोनों पहली बार मेरी कुटिया में एक अतिथि की तरह आए हो। सो अतिथि को भगवान समझकर मैं आपका भगवान की तरह स्वागत करूं। अत: इस समय मुझे अपनी सेवा करने दो।
श्रीकृष्ण यह सुनकर प्रसन्न हो जाते हैं और कहते हैं अच्छी बात है। सुमामा चटा बिछाने के बाद श्रीकृष्ण और बलराम के चरण धोते हैं। फिर वह उन्हें आसन पर बिठाकर उनके लिए भोजन की पत्तल और पानी की व्यवस्था करते हैं और कहते हैं लो थोड़ा जल पियो। तब श्रीकृष्ण जल पीकर कहते हैं वाह तुम्हारे जल से ही तृप्ति हो गई मित्र। यह सुनकर सदामा कहते हैं मित्र? तुमने मुझे मित्र कहा इतनी जल्दी ही? यह सुनकर कृष्ण कहते हैं क्यों इतनी जल्दी मित्र नहीं कहना चाहिए क्या? तब सुदामा कहते हैं कि नहीं, गुरुदेव कहते हैं किसी को अतिशीघ्र मित्र नहीं बना लेना चाहिए। क्योंकि मित्र कहने पर मित्रता को निभाना पड़ता है और मित्रता का उत्तरादायित्व बहुत कठिन है। इसलिए किसी को पूरी तरह परखे बिना उसे मित्र नहीं बना लेना चाहिए। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि हमनें तो तुम्हें परख लिया इसीलिए मित्र कह दिया।
यह सुनकर सुदामा कहते हैं कि इतनी जल्दी कैसे परख लिया? तुम तो मुझे जानते भी नहीं। देखों मैं एक साधारण ब्राह्मण कुमार हूं। यदि तुम्हें किसी भी तरह की आवश्यकता आ पड़ी तो मैं मित्रता का उत्तरदायित्व कैसे निभा पाऊंगा? तब कृष्ण कहते हैं कि मैंने मित्र कहा है ना, सो मित्रता का उत्तरदायित्व निभाना मेरा ही काम होगा। कभी आवश्यकता आ पड़ी तो इस मित्रता को मैं ही निभाऊंगा। मैं वचन देता हूं तुम्हारी मित्रता की परीक्षा मैं कभी नहीं लूंगा। अब बोलो? मुझे अपना मित्र बनाओगे कि नहीं?
यह सुनकर सुदामा प्रसन्न हो जाते हैं और कहते हैं तुम तो सचमुच भगवान की तरह ही उदार हो। आज जीवन में पहली बार किसी को मित्र बनाने का आनंद पाया है मित्र। जय श्रीकृष्णा।
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