निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 29 जून के 58वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 58 ) के पिछले एपिसोड में अक्रूरजी जरासंध की चेतावनी वाला लेख पढ़कर सभा में सुनाते हैं और यह लेख पढ़कर महाराज शूरसेन को लेखपत्र सौंप देते हैं। महाराज शूरसेन सभी से पूछते हैं इस विषय में हम आप सबका मत जानना चाहते हैं।
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अक्रूरजी उठकर कुछ कहने वाले रहते हैं तभी श्रीकृष्ण उन्हें रोक देते हैं। तब एक सरदार कहता है यह संधिपत्र नहीं एक आज्ञा पत्र है और आज्ञा यह है कि युद्ध से पहले ही उनके चरणों में अपना सिर रख दो। दूसरा कहता है कि क्या हमनें हाथों में चुढ़ियां पहन रखी हैं जो हम आत्मसर्पण कर दें?
फिर वसुदेवजी खड़े होकर कहते हैं, महाराज हमारे सामने दो ही रास्ते हैं। एक जीने का और एक मरने का। यदि अपमान से भरा जीवन जीना चाहते हो तो उस आततायी के चरणों में अपना मस्तक रख दो जिसे वह जब और जैसा चाहे ठोकरें मारता रहे और यदि अपने देश और यादवकुल का कुछ मान समझते हो तो क्षात्रधर्म एक ही बात कहता है कि अपने देश की आन के लिए अपना बलिदान कर दो।
फिर एक सरदार विकद्रू उठकर कहता है कि इस तरह का बलिदान देना व्यर्थ है जो जोश में दिया जाए। शास्त्र कहता है कि यदि एक प्राणी के बलिदान से कुल की रक्षा हो सकती है तो उसका बलिदान दे देना चाहिए।... यह सुनकर श्रीकृष्ण बलराम की ओर देखते हैं बलराम समझ जाते हैं। तब वह सरदार आगे कहता है कि इसी प्रकार एक गांव को बचाने के लिए एक कुल का और एक राष्ट्र को बचाने के लिए एक नगर का बलिदान करना चाहिए। इस समय वैसी ही परिस्थिति है। वह सरदार कहता है कि जरासंध के पत्र में जो मूल बात है उस पर किसी ने अपना मत व्यक्त नहीं किया। उसकी मांग स्पष्ट है कि कृष्ण और बलराम उसे दे दो तो बाकि सबको वह छोड़ देगा।
यह सुनकर सभी स्तब्ध रह जाते हैं। फिर वह सरदार कहता है कि वीरता और बलिदान की बड़ी-बड़ी बातें छोड़कर हमें केवल एक बात पर विचार करना चाहिए कि हम कृष्ण और बलराम का बलिदान कर सकते हैं या नहीं? शूरसेन और वसुदेव ये सुनकर चौंक जाते हैं। फिर वह सरदार श्रीकृष्ण की ओर देखकर कहता है कि सर्वप्रथम में श्रीकृष्ण से ये पूछना चाहता हूं कि इस विषय में दोनों भाइयों का क्या मत है?
तब श्रीकृष्ण उठकर कहते हैं कि मैं महामना विकद्रू की बात से सहमत हूं। यह सुनकर शूरसेन, वसुदेव और अक्रूरजी चौंक जाते हैं तब श्रीकृष्ण आगे कहते हैं- यदि हम दोनों के बलिदान से मथुरा की समस्त प्रजा की रक्षा हो सकती है तो अवश्य हम दोनों का बलिदान कर देना चाहिए। हम दोनों इस बलिदान के लिए तैयार हैं।
यह सुनकर अक्रूरजी खड़े होकर कहते हैं, परंतु हम इस मत से सहमत नहीं है महाराज। इस बात का निर्णय लेना इतना आसान नहीं है। जरासंध उसका बलिदान मांग रहा है जिसने मथुरा की प्रजा को कंस जैसे आततायी से मुक्ति दिलाई है। यदि श्रीकृष्ण नहीं होते तो हम आज भी उस पापी के चंगुल में फंसे हुए होते। अब एक पापी के पंजे से निकले हैं तो श्रीमान विकद्रू का कहना है कि दूसरे महापापी के यमपाश में अपनी गर्दन स्वयं डाल दें। नहीं महाराज नहीं, ये किसी वीर जाति को शोभा नहीं देता। हम प्राण दे देंगे परंतु श्रीकृष्ण और बलराम को नहीं देंगे।
तब विकद्रू कहता है कि अच्छा होता कि ये निर्णय लेने के पहले एक बार जनता से पूछ लिया जाता। तब अक्रूरजी कहते हैं कि जनता तो श्रीकृष्ण की पूजा करती है। हमारे प्रजाजन इतने कृतघ्न नहीं है महाशय की अपने तारणहार को स्वयं अपने हाथों से बलि की वेदी पर चढ़ा दें। मैं यहां दूसरे सभासदों से पूछता हूं कि क्या और कोई विकद्रू की बातों से सहमत है?...सभी कहते हैं नहीं, कदापि नहीं। यह सनुकर शूरसेन और वसुदेवजी प्रसन्न हो जाते हैं।
शूरसेनजी कहते हैं हम आपकी बात से सहमत हैं अक्रूरजी। तब वसुदेवजी पूछते हैं महाराज तो फिर जरासंध को क्या उत्तर दिया जाए? तब शूरसेनजी कहते हैं कि जरासंध को केवल एक ही उत्तर लिखकर भेज दो कि यादवों के सिर कट सकते हैं लेकिन झुक नहीं सकते।
उधर, यह संदेश सुनकर जरासंध भड़क जाता है और कहता है तो यही सही। मथुरा अब रक्त से भरा तालाब होगा और उसमें उद्दंड यादवों के सिर तैर रहे होंगे। सेनापति वर्धक कूच का डंका बजा दो। और फिर जरासंध की सेना को एक जगह एकत्रित किया जाता है मथुरा की ओर कूच करने के लिए।
इधर, अक्रूजी सेना को एकत्रित कर सभी में जोश भरते हैं। दूसरी ओर जरासंध अपनी सेना के राजाओं के बताता है कि कौन किसी द्वार से हमला करेगा। वह कहता है कि याद रहे कि उस नगरी में एक भी मकान न रहने पाए सभी महलों और मकानों को ध्वस्त कर दिया जाए।
अक्रूजी को गुप्तचर बताता है कि जरासंध ने अपनी सेना को चार भागों में बांटकर मथुरा को चारों ओर से घेरकर हमला करने का आदेश दे दिया है और आज शाम से पहले वे मथुरा पहुंच जाएंगे। जरासंध अपनी सेना को लेकर नगर के दक्षिण द्वार की ओर निकल पड़ता है।
महल की गैलरी से श्रीकृष्ण और बलराम देखते हैं कि अक्रूरजी नगर के द्वार बंद करवा रहे हैं और सैनिकों के हथियारों पर धार तेज करवा रहे हैं। एक कड़ाहे में तेल को गरम किया जाता है। नगर और महल की दीवार परकोटों के चारों कड़े इंतजाम किए जाते हैं। यह देखकर श्रीकृष्ण और बलराम मुस्कुरा देते हैं।
जरासंध की सेना मथुरा के चारों द्वार पर एकत्रित हो जाती है। सभी देखते हैं कि मथुरा के द्वार और दीवार पर खड़े सैंकड़ों सैनिक तैयार हैं। द्वार पर खड़ा एक सेनापति चीखकर भीतर खड़े अक्रूरजी को बताता है कि जरासंध रुक गए हैं।...जरासंध अपने सेनापति को कहता है कि दरवाजा तोड़ने की आवश्यकता नहीं नगर के चारों और सूखी घास बिछाकर उसे जला दिया जाए। यह सुनकर महाराज शल्य कहते हैं कि महाराज जनता को मारना उचित नहीं। जनता को तो मालूम ही नहीं है कि क्या हो रहा है और आपका क्या प्रस्ताव था। यदि आप आज्ञा दें तो मैं जनता तक यह संदेश पहुंचा देता हूं। जरासंध कहता है अच्छी बात है जाइये और जनता को बताइये।
उधर, द्वार के ऊपर खड़ा सेनाति भीतर अक्रूजी को बताता है कि कुछ परामर्श चल रहा है।
फिर जरासंध के सैनिक एक संदेश तीर में लपेटकर शल्य के आदेश पर नगर की ओर छोड़ने की पोजिशन लेते हैं। द्वार के ऊपर खाड़ा सेनापति यह सब देख रहा होता है। बहुत सारे तीर छोड़े जाते हैं जो दीवार के उस पार जाकर नागरिकों के घरों पर गिरते हैं। नागरिक उस तीर को निकालकर उसमें लिपटे कपड़े पर लिखे संदेश को पढ़ते हैं। जिसमें लिखा होता है जरासंध का संदेश निर्दोष जनता की प्राण रक्षा का उपाय। हमने महाराज को लिखा था कि हम मथुरा की जनता का संहार नहीं चाहते सो यदि तुम कंस के हत्यारे कृष्ण और बलराम को हमारे हवाले कर दो तो हम सबको क्षमा कर देंगे। लेकिन ये बात तुम्हारे राजा की समझ में नहीं आ रही है क्योंकि उन्हें अपनी निर्दोष प्रजा के प्राणों की चिंता नहीं है। वह अहंकारी राजा है।
जनता में इस संदेश को लेकर विरोधाभाषी विचार और मतभेद रहते हैं। एक कहता है यदि कृष्ण भगवान है तो वह अपना रक्षा स्वयं कर लेगा हमें उसकी नहीं अपने बाल-बच्चों की रक्षा की चिंता करना चाहिए। वैसे भी यदि किसी एक की बलि से देश बच सकता है तो कालधर्म यही कहता है कि उसे एक का बलिदान कर देना चाहिए।
इधर, विक्रदू सभा में कहता है कि सारी प्रजा में इस बात की चर्चा है और प्रजा का बहुमत इस बात में ही है महाराज को जरासंध से संधि करके उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लेना चाहिए। तब अक्रूरजी खड़े होकर क्रोध में कहते हैं कि और अपने भगवान को उनके हवाले कर दें? तब विकद्रू कहता है कि इसका उत्तर भी प्रजा ने दे दिया है कि यदि कृष्ण भगवान है तो उसकी रक्षा की चिंता हम क्यों करें? वो अपनी रक्षा स्वयं कर लेंगे।
कृष्ण और बलराम यह सुनकर मुस्कुराभर देते हैं। तब श्रीकृष्ण खड़े होकर कहते हैं महाराज मैं प्रजा की बात से पूर्णत: सहमत हूं। यह समय तर्क-वितर्क का नहीं और ना ही भावुकता का है। यह समय है बुद्धि और नीति से काम लेने का। और, राजनीति भी यही कहती है कि यदि एक की बलि से लाखों के प्राण बच सकते हैं तो उस एक को अवश्य बलिदान करना चाहिए।...यह सुनकर शूरसेन, वसुदेव और अक्रूरजी निराश हो जाते हैं लेकिन विकद्रू प्रसन्न हो जाता है।
फिर श्रीकृष्ण कहते हैं महाराज जरासंध को यह संदेश भेज दिया जाए कि कल प्रात: सूर्योदय होते ही हम दाऊ भैया के साथ जाकर आत्मसमर्पण कर देंगे। अब हमें आज्ञा दीजिये महाराज। यह कहकर श्रीकृष्ण बलराम की ओर देखते हैं तो बलरामजी हां में गर्दन हिला देते हैं। फिर दोनों उठकर महराज को प्रणाम करके चले जाते हैं।
रात्रि को ही एक कपड़े में संदेश लिखकर उसे तीर में लपेटकर जरासंध की सेना की ओर संधान कर दिया जाता है। वह तीर जरासंध के सैन्य शिविर में जाकर गिरता है। यह तीर लेकर सैनिक सेनापति को देते हैं। सेनापति उसे संदेश को पढ़ता है और कहता है वाह युद्ध किए बिना ही विजय मिल गई। सेनापति उस संदेश को लेकर जरासंध के पास जाता है।
सेनापति वह संदेश जरासंध को देते हुए कहता है, सम्राट को बधाई हो। शत्रु ने अपनी हार स्वीकार कर ली है। यह पढ़ और सुनकर सभी में हर्ष व्याप्त हो जाता है। जरासंध कहता है वाह मित्र वाह...तुम्हारी योजना तो सचमुच सफल हो गई। कल प्रात: कृष्ण और बलराम मथुरा के दक्षिण द्वार से बाहर निकलकर हमारे सामने आत्मसमर्पण कर देंगे। यह कहकर वह हंसने लगता है। सभी वहां नारे लगाते हैं...सम्राट की जय हो। जय श्रीकृष्ण।
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा