निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 30 जुलाई के 89वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 89 ) में अर्जुन और सुभद्रा दोनों श्रीकृष्ण के कक्ष में प्रवेश करते हैं तो श्रीकृष्ण और रुक्मिणी दोनों उनका स्वागत करते हैं। रुक्मिणी सुभद्रा का हाथ देखकर कहती है अरे ये क्या हुआ, तुम्हारे हाथ पर ये पट्टीका कैसी? इस पर सुभद्रा सारा घटनाक्रम बताती है।
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- सुभद्रा की इस बात पर तुम्हारा क्या मत है पार्थ? तुम दोनों साथ-साथ जंगल में...यह सुनकर अर्जुन सकपकाकर कहता है- बात ये है कन्हैया कि मैं तो पहले ही शिकार पर जा चुका था। मुझे तो जब सुभद्रा की चीखें सुनाई दी तब मुझे पता चला कि सुभद्रा भी अरण्य में है। यह जानकर उस राक्षस का प्रतिकार कर दिया, बस। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- बस! तो फिर सुभद्रा के हाथ में ये पट्टीका किसने बांधी? यह सुनकर अर्जुन फिर सकपका जाता है और कहता है- मैंने। वो तो वन औषधियों से जो भी उपचार हो सकता था मैंने कर दिया। इसके बाद सुभद्रा वहां से शरमाकर चली जाती हैं।
इसके पश्चात सुभद्रा को उसके कक्ष में अर्जुन के ही खयालों में खोया हुआ बताया जाता है तभी वहां रुक्मिणी पहुंची और पूछती है किसके विचार में खोई हुई थी तुम? तब सुभद्रा कहती है किसी के भी विचार में नहीं भाभी सच। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है सुभद्रा मैं सब समझ सकती हूं। अब तुम विवाह के योग्य हो गए हो तो कदाचित अपने पति के बारे में ही सोच रही होंगी। वैसे सुभद्र मैंने तुम्हारे भैया से बोल दिया है कि अब शीघ्र से शीघ्र सुभद्र का विवाह करा दिया जाए। इस पर सुभद्रा कहती हैं ऐसी भी क्या शीघ्रता है भाभी। तब रुक्मिणी कहती हैं अरे तुम युवा हो गई हो और विवाह की उपयुक्त आयु है और कितने ही राजाओं ने पत्र लिखे हैं। वे सब तुमसे विवाह के इच्छूक हैं। वासुदेव वही पत्र पढ़ रहे हैं तो जैसे ही दाऊ भैया हस्तिनापुर से लौट आएंगे तुम्हारा विवाह करा दिया जाएगा। सुभद्रा तुम मुझे ये बताओ की तुम्हें किस देश की महारानी बनना है?
यह सुनकर सुभद्रा कहती हैं मुझे किसी देश की महारानी नहीं बनना है। मुझे विवाह नहीं करना है। इस पर रुक्मिणी कहती है अरे तो क्रोधित क्यों होती हो। मैं वासुदेव को बता दूंगी कि सुभद्रा को विवाह नहीं करना है। वे दो गांडिवधारी अर्जुन के बारे में कुछ सोच रहे थे। यह सुनकर सुभद्रा प्रसन्न होकर पूछती है गांडिवधारी अर्जुन? इस पर रुक्मिणी कहती हैं हां अर्जुन, उनका सखा जो है। मुझसे कह रहे थे कि यदि अर्जुन मेरे बहनोई बन जाए तो ये मिलाप संपूर्ण हो जाए, पर तुम्हें तो विवाह ही नहीं करना तो बात यहीं पर समाप्त हो गई।
यह सुनकर सुभद्रा कहती हैं नहीं..नहीं भाभी, बात कैसे समाप्त हो गई? तब रुक्मिणी कहती है तुम तो विवाह ही नहीं करना चाहती हो ना तो फिर वासुदेव अर्जुन से विवाह की बात कैसे करेंगे?...यह सुनकर सुभद्रा कहती है- अरे भाभी, बात करने दीजिये उन्हें अर्जुन से।... लेकिन तुम्हें तो विवाह करना ही नहीं है ना...ऐसा कहकर रुक्मिणी जाने लगती है तो सुभद्रा कहती है- भाभी रुको...मैं तो उनकी (कृष्ण की) हर आज्ञा का पालन करती हूं। इस पर रुक्मिणी कहती है- अच्छा यदि फिर वो कहे कि मेरे सखा अर्जुन से विवाह कर लो तो कर लोगी? यह सुनकर सुभद्रा शरमा कर कहती है- हां कर लूंगी।
इस पर रुक्मिणी हंसने लगती है और फिर दोनों गले लग जाते हैं और तब रुक्मिणी कहती है- अरे पगली क्या हम नहीं जानते हैं कि तुम्हारे और अर्जुन के बीच क्या चल रहा है। कल रैवतक पर्वत पर उत्सव है ना तो बस मैं अर्जुन से कहूंगी कि तुम्हें साथ लेकर मेले में जाएं। यह सुनकर सुभद्रा गले लगकर कहती है- तुम्हारे जैसी भाभी मुझे हर जनम में मिले।
उधर, बलराम के साथ शकुनि पासे का खेल खेलते हैं। दुर्योधन दोनों के खेल को देखता है। शकुनि कहता है- दाऊजी आपके चार आए हैं। आप जीत गए दाऊजी। लेकिन दाऊ भैया का ध्यान कहीं ओर ही रहता है तो शकुनि कहता है- दाऊजी...दाऊजी। आप अचानक इतने उदास क्यों हो गए, क्या हुआ? तब बलरामजी कहते हैं- मामाजी अब आपसे क्या छिपाना। मुझे हर पल अपनी द्वारिका की याद आ रही है। इतने दिनों तक में अपनी द्वारिका से दूर कभी नहीं रहा। अब मुझे मेरे अपनों की याद आ रही है। यह सुनकर शकुनि कहता है- दाऊजी हम भी तो आपके अपने ही तो हैं।
इस पर बलरामजी कहते हैं- हां हां, सारे कौरव मेरे अपने हैं परंतु हस्तिनापुर नगरी तो मेरी अपनी नहीं है। मेरे अपने परिवार वाले यहां नहीं है। मेरे अपने यादवकुल के लोग यहां नहीं है। यादवों की याद आती है और मेरा मन अशांत हो जाता है। मामाजी कदाचित आप जानते होंगे इन्हीं दिनों में रैवतक पर्वत पर उत्सव मनाया जाता है तब पूरी द्वारिका उस उत्सव में शामिल होती हैं। पूरी द्वारिका इस उत्सव के कारण चेतनामय हो जाती है और इसी उत्सव के दरमियान मैं यहां हस्तिनापुर में हूं।
इस पर शकुनि कहता है- दाऊजी थोड़े ही समय में दुर्योधन की शिक्षा समाप्त हो जाएगी तब आप द्वारिका चले जाइयेगा। तब बलराम कहते हैं- मामाजी दुर्योधन की शिक्षा अधूरी छोड़कर द्वारिका चले जाने का भय आप अपने मन से निकाल दीजिये। परंतु जैसे मैं दुर्योधन की शिक्षा को अधूरी नहीं छोड़ सकता वैसे ही द्वारिका के उत्सव को भी नहीं भूल सकता।
फिर इधर, अर्जुन और सुभद्रा को रैवतक पर्वत के उत्सव में डांडिया नृत्य और गान करते हुए बताया जाता है। नृत्य करते-करते थककर सुभद्रा एक जगह बैठ जाती है और अर्जुन थककर सुभद्रा के चरणों में गिर पड़ते हैं तब वे कहते हैं- लो देवी जैसा तुम्हारी भाभी ने कहा था मैं नाचते-नाचते सचमुच तुम्हारे चरणों में गिर गया। यह सुनकर सुभद्रा कहती है- वो तो मैं देख ही रही हूं कि एक परमयोद्धा संगीत के युद्ध क्षेत्र में घुटने टेककर अपनी हार स्वीकार कर रहा हैं। इस पर अर्जुन कहता है कि मैं तुम्हें एक हरा हुआ योद्धा दिखता हूं? यह सुनकर सुभद्रा कहती है- हां और क्या? तब अर्जुन कहता है कि एक हरा हुआ प्रेमी नहीं दिखता जो किसी के सामने घुटने टेककर प्रेम की भिक्षा मांग रहा है।..यह सुनकर सुभद्रा शरमा जाती है तब अर्जुन कहता है- बोलो भिक्षा मिलेगी? बोलो देवी एक प्रेमी को भिक्षा मिलेगी? यह सुनकर सुभद्रा कहती है- इसका उत्तर मैं नहीं दे सकती क्योंकि भैया-भाभी की अनुमति के बिना मैं हां नहीं कह सकती। यदि आपको भिक्षा मांगनी है तो आपको भैया-भाभी के समक्ष घुटने टेककर भिक्षा मांगनी होगी।
यह सुनकर अर्जुन कहता है- तो उनसे मांगना होगा तो चलें अभी इसी क्षण अपनी झोली फैलाकर तुम्हें मांग लेता हूं। उनसे कहता हूं कि हे प्रभु! संसार की इस सर्वश्रेष्ठ कन्या को मेरी झेली में डाल दो। और मुझे विश्वास है कि वे प्रसन्न होकर कहेंगे कि....तभी सुभद्रा बीच में ही टोककर कहती है- हे बालक तुम्हें तीन दिन पश्चात इसका उत्तर मिलेगा। यह सुनकर अर्जुन कहता है- तीन दिन क्यों? तब सुभद्रा कहती है- क्योंकि हमारी कुलप्रथा के अनुसार भैया इस समय यादवों का वार्षिक यज्ञ आरंभ कर चुके होंगे और इस यज्ञ का ऐसा अनुष्ठान है कि वे तीन दिन तक अपने आसन से नहीं उठेंगे और इस तीन दिन में वो किसी की प्रार्थना ना सुन सकते हैं और न किसी की मांग पूरी कर सकते हैं। इसलिए आपको तीन दिन तक तो प्रतीक्षा करनी ही पड़ेगी। यह सुनकर अर्जुन कहता है- ये तीन दिन कैसे कटेंगे? तब सुभद्रा कहती है- मैं बताऊं कि आप भी यज्ञशाला में जाकर वहीं बैठ जाइये। कुछ वेदमंत्र सुनने को मिलेंगे तो कुछ मन पवित्र होगा और तीन दिन भी कट जाएंगे।
इसके बाद श्रीकृष्ण को पंडितों के साथ यज्ञ करते हुए बताया जाता है। तभी वहां पर एक ब्राह्मण दौड़ता पुकारता हुआ आता है द्वारिकाधीश..द्वारिकाधीश। एक सैनिक उन्हें रोककर कहता है- देखते नहीं ब्राह्मण देवता कि द्वारिकाधीश इस समय प्रजा कल्याण यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं। यह सुनकर वह कहता है- प्रजा कल्याण यज्ञ का अनुष्ठान! वहां प्रजा कष्ट में है मुझे मत रोको। मुझे मत रोको। मेरी विपदा इस यज्ञ से बढ़कर है, मुझे जाने दो जाने दो। लेकिन सैनिक कहता है- ठहरो ठहरो। तभी यह वार्तालाप श्रीकृष्ण सुन लेते हैं और सैनिक से संकेतों में उसे आने का कहते हैं।
ब्राह्मण श्रीकृष्ण के पास आता है तो श्रीकृष्ण कहते हैं- कल्याण यज्ञ मैं आपका स्वागत है ब्राह्मण देव। यह सुनकर ब्राह्मण कहता है कि स्वागत तो उसका होता है जो निश्चिंत हो। मैं विपत्ति का मारा हुआ द्वारिका का एक ब्राह्मण हूं। मेरी रक्षा करो द्वारिकाधीश.. मेरी रक्षा करो। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- पहले आप शांत हो जाएं ब्राह्मण देव। यह सुनकर वह कहता है- शांत कैसे हो जाऊं द्वारिकाधीश...अपने नवजात पुत्रों की अकाल मृत्यु की पीड़ा का दाह लेकर मैं आपके पास आया हूं।.. यह सुनकर वहां बैठा अर्जुन चौंक जाता है।....ब्राह्मण कहता है- मुझे शांति कैसे मिल सकती है। यमराज ने मेरे तीन पुत्रों को धरती का स्पर्श करते ही निगल लिया। अब तो मुझे ऐसा लगता है कि इस द्वारिकापुरी में कोई धनुर्धारि क्षत्रिय नहीं बचा जो हम ब्राह्मणों की रक्षा कर सके।... यह सुनकर वहां बैठे अर्जुन के चेहरे पर क्रोध के भाव आ जाते हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं- ऐसा कैसे हो सकता है ब्राह्मण देव? तब वह ब्राह्मण कहता है ऐसा हो चुका है द्वारिकाधीश! आपके राज्य में माता पिता के जीवित रहते उनके पुत्रों के प्राण हरण हो चुके हैं और आप इस यज्ञ में आहूति देकर धर्मपालन का नाटक कर रहे हैं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये मिथ्या आरोप है ब्राह्मण देव। तब ब्राह्मण कहता है कि मैं आपके राजमल के द्वार पर अपने तीन पुत्रों की लाश को रख चुका है। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- परंतु ऐसा सुनने में नहीं आया। इस पर ब्राह्मण कहता है कि कैसे सुनने में आता द्वारिकाधीश! आपके चाटूकार सेवक इस सत्य को कैसे आप तक पहुंचाते हैं। जानते हैं हिंसक, दुष्चरित्र और अजीतेंद्रीय राजा को अपना स्वामी मानकर मेरे जैसे दुखों का सामना करना पड़ता है। उनके द्वार पर संकटों के पहाड़ खड़े रहते हैं। वही दुख मैं भी भोग रहा हूं द्वारिकाधीश।
इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि आपकी पीड़ा निश्चय ही एक दुर्घटना है। यह सुनकर ब्राह्मण कहता है- दुर्घटना! दुर्घटना कहकर इसे मत टालिये द्वारिकाधीश। बहाने तो वे ढूंढते हैं जो नपुंसक होते हैं। आप इसी क्षण मेरे साथ चलिये। मेरी धर्मपत्नी अपनी चौथी संतान को जन्म देने वाली है। यमदूत मेरे द्वार पर खड़े हैं। कहीं ऐसा ना हो कि उसके भी प्राण हरण करके ले जाएं और मैं पुकार ही करता रह जाऊं।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- परंतु इस समय तो मैं यज्ञ की दीक्षा ले चुका हूं अग्नि को आहूतियां भी समर्पित कर चुका हूं। यह सुनकर ब्राह्मण कहता है कि मैं जानता था द्वारिकाधीश की आप यज्ञ का बहाना लेकर अपने ब्राह्मण रक्षा के धर्म से बचना चाहेंगे, वहीं हुआ। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- परंतु यज्ञ से उठने की अनुमति शास्त्र नहीं देता। तब ब्राह्मण कहता है कि परंतु शास्त्र यह भी तो कहता है कि जिस राजा के राज में प्रजा कष्ट भोगती है वह राजा नरक में जाता है। क्षत्रियधर्म के पालनकर्ता तो तत्काल ही ब्राह्मणों की सहायता के लिए तत्पर हो जाते हैं। आप अभी और इसी क्षण उत्तर दें कि मेरे नवजात पुत्रों की मृत्यु किसके अपराध का प्रतिफल है बताएं?
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- फल तो कर्म का ही निश्चित होता है ब्राह्मण। तब ब्राह्मण कहता है कि परंतु शास्त्रों का तो यही मत है कि राजा के ही कर्मदोष से राज्य में अबोध बालकों की अकाल मृत्यु होती है।... यह सुनकर अर्जुन चौंक जाता है।...मैंने अपने तीनों पुत्रों की मृत्यु पर यमदूतों से यही अनुरोध किया कि ये द्वारिकापुरी है यहां धर्म का राज्य है। मेरी सांतानों के प्राणों का हरण मत करो। परंतु हर बार यमदूतों ने मेरी प्रार्थना को ठुकरा दिया। इसका सीधा अर्थ यही है कि द्वारिका में अधर्म का राज्य है।... यह सुनकर अर्जुन के चेहरे पर क्रोध के भाव आ जाते हैं। फिर ब्राह्मण कहता है कि जिस राजा के राज्य में उसके पिता के सामने उसके पुत्रों की मृत्यु हो जाए वह राजा अधर्मी है, पापी है।
यह सुनकर अर्जुना क्रोध फट पड़ता है और वह उठकर खड़ा हो जाता है और कहता है
अपनी जिव्हा पर अंकुश लगाओ ब्राह्मण। तुम क्रोध के कारण उचित और अनुचित का विवेक खो चुके हो ब्राह्मण। तुम श्रीकृष्ण को पापी नहीं कह सकते। यह सुनकर ब्राह्मण कहता है कहूंगा, हजार बार कहूंगा। तुम कौन होते हो मेरी वाणी पर अंकुश लगाने वाले? इस पर अर्जुन कहता है- मैं द्वारिकापति कृष्ण का सखा हूं। मेरे कान कृष्ण की निंदा सुनने के अभ्यस्त नहीं।
यह सुनकर ब्राह्मण कहता है- हूं सखा.. सखा अर्थात चाटूकार। यह सुनकर अर्जुन कहता है- अब तुम सीमा का उल्लंघन कर रहे हो ब्राह्मण। संभवत: तुम मुझे जानते नहीं। यह सुनकर वह कहता है- तुम्हारे बारे में जानकर क्या करूंगा मैं? कोई मेरी रक्षा करे तो मैं उसे जानूं भी। यह सुनकर अर्जुन कहता है- तो चलो मैं तुम्हारी रक्षा करता हूं। यह सुनकर ब्राह्मदेव कहता है- अरे तुम क्या कर पाओगे मेरी रक्षा। जब कृष्ण ही यज्ञ का बहाना करके अपना मुंह छुपा रहे हैं तो तुम क्या कर पाओगे उन यमदूतों का सामना। मुझे झूठा आश्वासन मत दो। यह सुननकर अर्जुन कहता है कि अच्छा है कि तुम अर्जुन को नहीं जानते वर्ना ये सब नहीं कहते। मैं अपनी इन्हीं भुजाओं से एक बार साक्षात महाकाल भगवान शंकर को भी तृप्त कर चुका हूं ब्राहमण, तो इन यमदूतों की गितनी ही किसमें है। मैं संसार का सबसे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हूं। क्या इतना जानना तुम्हारे लिए पर्याप्त नहीं। यह सुनकर वह ब्राह्मण कहता है- अरे बातें करने वाले तो बहुत होते हैं अर्जन, कोई कार्य सिद्ध कर सके तो मैं उसे जानूं भी।
यह सुनकर अर्जुन कहता है कि मैं तुम्हारी संतान की रक्षा के लिए वचनबद्ध होता हूं ब्राह्मण। मैं करूंगा तुम्हारी सुरक्षा। यह सुनकर वह ब्राह्मण कहता है यदि नहीं कर सके तो तुम क्या करोगे? इस पर अर्जुन कहता है- तो मैं कुंती पुत्र अर्जुन इस यज्ञ की अग्नि को साक्षी मानकर प्रतिज्ञा करता हूं कि यदि मैं इस ब्राह्मण की संतान की रक्षा न कर पाया तो अग्नि में प्रवेश करके अपने प्राण त्याग दूंगा। इस प्रतिज्ञा को सुनकर वहां उपस्थित सभी लोग चौंक जाते हैं।
तब श्रीकृष्ण कहते हैं- काल को अपनी ही घड़ी से चलने तो पार्थ। तब अर्जुन कहता है- नहीं मधुसुदन नहीं। मैं अपने सामने आपकी निंदा नहीं सुन सकता। हां अपने प्राण अवश्य दे सकता हूं। अभी मेरे गांडिव की टंकार त्रिभुवन को कंपित करने की क्षमता रखती है जनार्दन। आप निश्चिंत होकर यज्ञ कीजिये। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- वो तो ठीक है परंतु क्या तुम इस ब्राह्मण की रक्षा कर सकोगे? यह सुनकर अर्जुन कहता है- अवश्य! आप आज्ञा दीजिये। मैं इन ब्राह्मण के घर पर जा रहा हूं।... फिर अर्जुन ब्राह्मण के साथ चला जाता है तो श्रीकृष्ण पीछे से मुक्कुराते रह जाते हैं और यज्ञ पुन: प्रारंभ कर देते हैं।
उधर, सुभद्रा दौड़ती हुई आती है रुक्मिणी के पास और कहती है- भाभी पार्थ को रोक लीजिये। भाभी कुंती पुत्र ने बड़ी कठिन प्रतिज्ञा कर ली है यदि वह उस ब्राह्मण की रक्षा न कर सके तो अनर्थ हो जाएगा। मेरा तो कल्पना करके ही हृदय बैठा जा रहा है।
यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- अच्छा तो मेरी ननदरानी को पार्थ पर विश्वास नहीं है क्या? तब सुभद्रा कहती है- विश्वास तो है भाभी, परंतु ऐसी भीषण प्रतिज्ञा करने की क्या आवश्यकता थी। तब रुक्मिणी कहती है- अरे पगली पार्थ अजेय हैं वे अवश्य ही अपने प्रण के पालन में विजयी होंगे।
उधर, अर्जुन ब्राह्मण के घर जाकर देखता है कि उसकी पत्नी को प्रसव पीड़ा हो रही है। तब वह ब्राह्मण के साथ उसके घर के द्वार पर बाहर खड़ा हो जाता है। वह ब्राह्मण कहता है कि आप रक्षा करें। अर्जुन कहता है- निश्चिंत हो जाओ ब्राह्मण। ऐसा कहकर अर्जुन अपने धनुष पर मंत्र से दिव्य बाण चढ़ाकर उसका ध्यान करता है और उस बाण को द्वार पर छोड़ देता है जिसके चलते उस घर के चारों ओर एक लोहे का पिंजरा निर्मित हो जाता है और वह पिंजरा चमकने लगता है। यह देखकर ब्राह्मण चकित रहा जाता है और अर्जुन मुस्कुरा देता है और फिर कहता है कि मेरे ये बाणों का कवच आपके घर को पूर्ण सुरक्षित रखेगा। ये दिव्यास्त्रों का कवच है जिसे भेदकर कोई शक्ति आपकी पत्नि के प्रसूतिगृह तक नहीं जा सकती है। जहां इस कवच को भेदकर कोई प्रवेश नहीं कर सकता वहीं इसके बाहर भी कोई नहीं आ सकता।
तभी बालक के रोने के आवाज सुनकर अर्जुन कहता है- ब्राह्मण देवता आपकी संतान ने जन्म ले लिया है और वह पूर्ण सुरक्षित भी है। यह सुनकर ब्राह्मण प्रसन्न हो जाता है। तब अर्जुन कहता है कि मैंने कहा था ना कि मैं आपकी संतान की रक्षा करूंगा तो मैंने आपकी रक्षा की है ब्राह्मण देव। जाओ ब्राह्मण देव अपनी संतान के दर्शन तो कर लो।
ब्राह्मण खुश होकर जाने लगता है तभी वह देखता है कि पिंजरा टूट गया है और घर पर व्रजपात जैसा कुछ हुआ है। यह देखकर ब्राह्मण देव और अर्जुन दोनों ही चौंक जाते हैं। वे देखते हैं कि छत में छेद हो गया है। यह देखकर अर्जुन कहता है सावधान! कौन है वहां?
तभी भीतर से ब्राह्मण की पत्नी की चीख सुनाई देती है मेरे बच्चे को यमदूत उठाकर ले जा रहे हैं। अर्जुन देखता है कि उस छत के छेद में से एक बालक निकलकर आसमान की ओर जा रहा है। यह देखकर उस ब्राह्मण के सामने अर्जुन की नजरें झुक जाती है। वह ब्राह्मण अर्जुन को खूब कटुवचन सुनाता है और कहता है ये मेरी पत्नी का रुदन है सुनो! सुनो ध्यान से सुनो। अब तुम्हें कैसे सुनाई देगा कुंतीनंदन। कहां गया तुम्हारा वो गांडिव और कहां गया तुम्हारा वह बाणों वाला कवच? अब कहां गई तुम्हारी प्रतिज्ञा? फिर वह कहता है कि तुम्हारा घमंड ही मेरी संतान को लेकर डूब गया। मैंने तुम्हारे जैसे नपुंसक की बातों में आकर मैंने अपना बालक खो दिया। अच्छा होता यदि मैं द्वारिकाधीश को मनाकर ले आता तो आज मेरे बालक की जान बच जाती। तू पापी है और तेरा को कृष्ण भी पापी है। यहां किसी का कल्याण नहीं हो सकता।
फिर अर्जुन कहता है कि आप मेरा विश्वास कीजिये। मैं आपके पुत्र को निश्चिय ही लौटाकर लाऊंगा। यह सुनकर ब्राह्मण कहता है- फिर वही अहंकार। अरे जिसे प्रारब्ध ने मुझसे छिन लिया, तेरे सामने ही मेरा बच्चा चला गया और तू मुझसे कह रहा है कि मेरा बच्चा वापस लाकर देगा। अरे मुझे! मुर्ख क्या बना रहा है। तब अर्जुन कहता है- निश्चिय मानिये। मैं यमलोक में अथवा जिस भी लोक में आपका बच्चा गया है मैं उसे अवश्य लेकर आऊंगा। यह सुनकर ब्राह्मण कहता है- अरे वार रे छत्रिय तू जा। किसी दूसरे के सामने जाकर अपने मुख से अपनी प्रशंसा सुना।
ब्राह्मण के कटुवचन सुनकर अर्जुन अपना धनुष पुन: निकालकर उस पर मंत्रों से दिव्य बाण चढ़ाता है और उसे आसमान में छोड़ देता है वह बाण सीधा जाकर उस बालक की दिशा को ढूंढ लेता है। फिर अर्जुन आंखें बंद करके हाथ जोड़कर खड़ा होकर ध्यान करता है और ऐसी ही स्थिति में आसमान में गमन करने लगता है। वह यमलोक पहुंच जाता है जहां यम के दूत उसे रोक लेते हैं। तब वह अपने धनुष के बाण से यम के द्वार को तोड़ने के प्रयास करता है लेकिन ऐसा नहीं हो पाता है तब वह ब्रह्मास्त्र का आह्वान करता है जिससे इंद्र का सिंघासन डोलने लगता है। जय श्रीकृष्णा।
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा