निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 3 अगस्त के 93वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 93 ) में अर्जुन द्वारा सुभद्रा हरण के बाद फिर अर्जुन और सुभद्रा का विवाह समारोह बताया जाता है जिसमें सभी पांडव और यादवगण उपस्थित रहते हैं। फिर रामानंद सागरजी श्रीकृष्ण के विराट रूप के दर्शन के बारे में बताते हैं कि उन्होंने कब-कब इस रूप का प्रदर्शन किया था। वे बताते हैं कि श्रीमद्भागत पुराण और हरिवंश पुराण में इसका वर्णन मिलता है।
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
फिर रामानंद सारगर श्रीकृष्ण की तीन पत्नियां रुक्मिणी, जामवंती और सत्यभामा के बारे में बताते हैं। सत्यभामा को अपनी सुंदरता, वैभव और धक का अहंकार था जिसके चलते वह दूसरी रानियों को कमतर समझती थी। जामवंती कहती है बहन सत्यभामा तुम्हारे रूप की चर्चा तो मथुसुदन सदैव करते रहते हैं। यह सुनकर रुक्मिणी कहती हैं हां जामवंती बहन।...दोनों सत्यभाभा की तारीफ करती हैं।
फिर सत्यभामा को इस बात पर क्रोध आ ताजा है कि एक दासी सबसे पहले जामवंती के पैरों में अलखटक लगाती है उसके नहीं तो वह रुष्ट होकर वहां से चली जाती है। जामवंती रुक्मिणी से पूछती है कि सत्यभामा को किस बात का बुरा लगा? इस पर रुक्मिणी कहती हैं कि तुम्हारी दासी ने सबसे पहले उसे अलखटक क्यों नहीं लगाया। तब जामवंती कहती है- उसमें इस बिचारी का क्या दोष इसने सबसे पहले अपने स्वामिनी को लगाना उचित समझा परंतु आपने तो इसका बुरा नहीं माना? यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- वह अपने आप को सर्वश्रेष्ठ मानती है।
सत्यभामा को इसका भी अहंकार था कि वह एक वैभवशाली राजा सत्राजित की पुत्री थी। सत्राजित ने तपस्या करके स्यमन्तक नाम की मणि प्राप्त की थी। उस मणि को जब वह प्रतिदिन सूर्य के सामने रखकर मंत्रोच्चार करता था तो उसमें से सोना बरसता था। कहते हैं कि उस मणि से प्रतिदिन 20 मण सोना प्राप्त होता था। इससे वह सबसे वैभवशाली राजा बन गया था। सत्राजित के इस वैभव की चर्चा द्वारिका के यादवों की सभा में अक्सर होती थी। एक बार उनके वैभव का रहस्य खुल गया कि उनके पास एक मणि है। तब सात्यकि ने अक्रूरजी आदि के सामने कहा कि यह मणि तो राजकोष में होना चाहिए क्योंकि यह मणि भूमि से ही प्राप्त है। इस पर अक्रूरजी कहते हैं कि द्वारिकाधीश ही इस राज्य के सम्राट है अत: भूमि के नीचे की संपदा भी उन्हीं की होना चाहिए। तब एक कहता है कि परंतु प्रजा भूमि से जो अन्न प्राप्त करती है उस पर तो प्रजा का अधिकार होता है तो उसे राजकोष में क्यों नहीं जमा कराया जाता?.. इस तरह सभी में इसको लेकर वाद-विवाद होता है। अंत में अक्रूरजी कहते हैं कि सत्राजित के पास मणि के होने से राज्य में रक्तपात हो सकता है अत: यह मणि तो राजकोष में ही होना चाहिए। इस पर एक यादव कहता है कि परंतु सत्राजित को यह बात समझाएगा कौन?
फिर अक्रूरजी और सात्यकि उनके पास जाकर उन्हें समझाते हैं तो सत्राजित भड़क जाता है और कहता है यह मणि सिर्फ मेरी संपत्ति है मेरी। इस पर सात्राजित का भाई कहता है कि सत्राजित और प्रसेनजित दोनों भाई कायर नहीं है जो अपनी मणि की रक्षा न कर सकें। और फिर यह मणि तो मेरे भाई को भूमि से प्राप्त हुई है तो इसे किसलिए हम द्वारिकाधीश को दे दें? इस पर अक्रूरजी भड़क जाते हैं और कहते हैं कि इसमें पूरी द्वारिका का हित है। इससे जो सोना निकलेगा वह नगरजनों के हित में प्रयोग किया जाएगा।
लेकिन वह दोनों भाई नहीं मानते हैं तो सात्यकि और अक्रूरजी वहां से चले जाते हैं और यह बात बलरामजी को बताते हैं तो बलरामजी कहते हैं कि सात्रजित का इतना साहस कि वह द्वारिकाधीश को चुनौती दे। मेरे ही राज्य में रहेगा और मेरी ही निंदा करेगा। चलो उसे राजा के अधिकारों से परिचित कराने का समय आ गया है चलो। तभी वहां श्रीकृष्ण आ जाते हैं और पूछते हैं- किसे क्या परिचित कराने जा रहे हो दाऊ भैया? तब बलामजी और अक्रूरजी श्रीकृष्ण को स्यमन्तक मणि के बारे में बताते हैं और कहते हैं कि हमें उसे समझाने गए थे कि वह मणि द्वारिकाधीश को भेंट कर दें परंतु सत्राजित ने हमारी बात नहीं मानी। बलरामजी कहते हैं- मैं उसे स्वयं हस्तगत करने जा रहा हूं।
तब श्रीकृष्ण कहते हैं- क्या बलपूर्वक दाऊ भैया? क्या ये एक राजा के अधिकार का दुरुपयोग नहीं होगा दाऊ भैया? उस मणि को उसी के अधिकार में रहने देना चाहिए वह हमारी संपत्ति कदापि नहीं है। यह सुनकर अक्रूरजी, सात्यकि और बलराम तीनों ठंडे पड़ जाते हैं।
दूसरे दिन सत्राजित का भाई जब वह शिकार खेलने जा रहा था तो वह सुरक्षा की दृष्टि से अपने साथ स्यमन्तक मणि को अपने साथ ही ले गया। वहां जंगल में एक शेर ने उस पर हमला किया तो वह मारा गया। शेर उसको खींचकर ले जाता है। उसका धनुष और बाण वहीं रह जाता है।
उधर, सत्राजित की पत्नी सत्राजित को सत्यभामा के सामने समझाती है कि मेरी राय में तो आप व्यर्थ का विवाद बढ़ा रहे हैं और यदुकुल के राजवंश को रुष्ठ कर रहे हैं। तब सत्राजित कहते हैं कि तुम ये चाहती हो कि मैं दूसरों के लिए अपनी संपत्ति दान कर दूं। इस पर उसकी पत्नी कहती है कि दूसरों के लिए नहीं, परंतु अपनी पुत्री के लिए तो कर सकते हैं। हमारे जमाता के रूप में श्रीकृष्ण से बढ़कर और कौन उपयुक्त वर हो सकता है? यह सुनकर सत्यभामा प्रसन्न हो जाती है और सत्राजित कहता है- अरे तुम तो बड़ी बुद्धिमति हो गई हो। एक स्यमन्तक मणि का दहेज देकर अपनी पुत्री को द्वारिकाधीश जैसा दामाद मिल जाए तो उसके लिए इससे बढ़कर सुख क्या हो सकता है। प्रसेनजित को आने दो मैं उसे भी इस प्रस्ताव के लिए सहमत कर लूंगा।
तभी सत्राजित को प्रसेनजित के घोड़े की आवाज सुनाई देती है। बाहर जाकर देखता है तो पता चलता है कि प्रसेनजित नहीं है बस उसका घोड़ा ही लौट आया है। तभी वहां उसके सभी सेवक एकत्रित होकर कहते हैं- क्या हुआ राजन? सत्राजित कहता है कि प्रसेनजित लौटकर नहीं आया है मुझे तो भय लगा रहा है कि कहीं कोई दुर्घटना नहीं हो गई हो। स्यमन्तक मणि भी उसके पास है।...फिर सभी उसकी खोज में जंगल में चले जाते हैं वहां उन्हें उसका धनुष और बाण मिलता है और कुछ आगे उसका तरकश भी मिलता है।
फिर सभी आपस में बात करते हैं कि किसने प्रसेनजित पर हमला किया होगा। कोई कहता है कि किसी हिंसक जानवर ने तो कोई कहता है कि किसी हिंसक मनुष्य ने हमला किया होगा। फिर एक कहता है कि यहां कहीं स्यमन्तक मणि भी तो दिखाई नहीं दे रही इसका मतलब किसी मनुष्य ने ही हमला किया होगा। कई तरह की शंका के बाद यह तय होता है कि हो ना हो यह मणि द्वारिकाधीश ने हस्तगत करवाई होगी। यह सुनकर सत्राजित लगभग रोते हुए कहता है कि मैं तो द्वारिकाधीश के साथ अपनी पुत्री का विवाह करके यह मणि उन्हें ही सौंपना चाहता था परंतु द्वारिकाधीश आपने बहुत शीघ्रता कर दी।
यह खबर नगर में फैल जाती है कि सत्राजित की मणि के लिए द्वारिकाधीश ने प्रसेनजित की हत्या करवा दी और मणि को हासिल कर लिया है। नगर में चर्चा रहती है कि सत्राजित ने द्वारिकाधीश पर जो आरोप लगाया है क्या वह सत्य हो सकता है? इस पर कुछ लोग कहते हैं कि मेरे विचार से ये आरोप सत्य नहीं हो सकता क्योंकि द्वारिकाधीश ऐसा नहीं कर सकते। परंतु यदि ऐसा हुआ है तो फिर धर्म और अधर्म का प्रश्न ही कहां रहा? इस पर एक कहता है कि यह धन का लालच कुछ भी करवा सकता है।
यह खबर बलराम के पास पहुंचती है कि सत्राजित ने द्वारिकाधीश पर अपने भाई के वध और स्यमन्तक मणि की चोरी का आरोप लगाया है तो बलरामजी भड़क जाते हैं और कहते हैं कि हमें प्रसेनजित के वध का दुख है परंतु कोई द्वारिकाधीश पर झूठा आरोप लगाए ये हमें मंजूर नहीं। अब हमें इसका उसे दंड देना चाहिए। सात्यकि और अक्रूरजी भी इस पर भड़कर कर कहते हैं कि हमें इस पर अब विचार करना चाहिए की हमें क्या करना है। फिर सभी मैं ये राय कायम होती है कि सत्राजित को दंड देने से पहले द्वारिकाधीश का मत ले लेना चाहिए।
सभी श्रीकृष्ण के पास जाते हैं तो वे ध्यान में बैठे रहते हैं। इस पर बलरामजी कहते हैं- लो देखो, कन्हैया तुम यहां ध्यान लगाए बैठे हो और वहां प्रजा तुम्हारे बारे में न जाने क्या-क्या कहे जा रही है। श्रीकृष्ण पूछते हैं कि क्या कहे जा रही है दाऊ भैया?...यही कि तुमने प्रसेनजित का वध करवाकर स्यमन्तक मणि का हरण किया है। फिर सात्यकि कहता है कि हम लोगों ने सत्राजित को दंड देने का निश्चय किया है।
फिर श्रीकृष्ण कई तरह के उपदेश की बात करके कहते हैं कि उसके आरोप के पीछे उसके न्याय मांगने की पुकार को क्यों नहीं सुनते दाऊ भैया? आखिर उसका भाई मरा है और उसकी अमूल्य मणि की चोरी हुई है। यदि हम सत्राजित को दंड देंगे तो लोग चर्चा करना बंद कर देंगे? नहीं दाऊ भैया उसे दंडित करने से लोग पुष्टि कर देंगे कि कृष्ण ने ही मणि के कारण प्रसेनजित की हत्या कराई है। दंड देने से तो उसका आरोप और प्रबल हो जाएगा।... बलराम कहते हैं कि तो फिर तुम क्या करोगे कन्हैया? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि हम मणि की खोज करेंगे। मणि कहीं न कहीं तो होगी।
फिर श्रीकृष्ण अक्रूरजी और सात्यकि के साथ जंगल में जाते हैं तो लोग बताते हैं कि यहीं पर उसका धनुष मिला था, वहां उसका तरकश मिला था और उधर उसकी पगड़ी मिली थी। वहां श्रीकृष्ण ध्यान से देखते हैं तो उन्हें शेर के पंजे के निशान दिखाई देते हैं। वे अक्रूजी को बताते हैं- देखिये अक्रूरजी ये रहे शेर के पंजों के निशान। फिर सभी उसके पंजों के निशान का पीछे करके वो एक गुफा के पास पहुंच जाते हैं। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं कि देखिये अक्रूरजी निश्चय ही प्रसेनजित को किसी सिंह ने खा लिया होगा और स्यमन्तक मणि भी इसी गुफा में ही होगी। क्योंकि सिंह के निशान भी इसी गुफा तक ही मिले हैं। आप लोग यहीं ठहरिये मैं गुफा में जाता हूं सत्य को उजागर करने के लिए ये आवश्यक है।
यह सुनकर अक्रूरजी कहते हैं- द्वारिकाधीश मेरी आपसे विनति है कि आप इस अंधेरी और भयानक गुफा में मत जाइये। यह सुनकर सात्यकि भी कहता है सिंह के पैरों के निशान भी तो हमें मिले हैं, मैं भयभित हो रहा हूं। हमें जल्द से जल्द किसी सुरक्षित स्थान पर चले जाना चाहिए। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि आप लोग सुरक्षा की चिंता ना करें। भय को मन से निकाल दें। मैं गुफा में जाता हूं। यह कहकर श्रीकृष्ण गुफा में चले जाते हैं।
गुफा में कुछ भीतर जाने के बाद उन्हें प्रसेनजित के वस्त्र दिखाई देते हैं। वे उसे उठाकर देखते हैं तभी उन्हें किसी स्त्री के गाने की आवाज सुनाई देती है। वह आवाज की दिशा में गमन करते हैं। गुफा के अंदर एक दूसरी गुफा में एक सुंदर युवती एक झुले में बैठकर स्यमन्तक मणि को हाथ में लिए गाना गा रही होती है। श्रीकृष्ण उसे देखकर प्रसन्न हो जाते हैं।
तभी उस सुंदर स्त्री के हाथ से मणि भूमि पर गिर जाती है और श्रीकृष्ण उस मणि के पास पहुंच जाते हैं और उसे उठाने के प्रयास करते हैं तभी वह युवती उस मणि का उठाकर अपने पिता को जोर-जोर से पुकारती है- पिताश्री..पिताश्री।...तभी उस गुफा के एक दूसरे हिस्से से जामंवतजी निकालकर बाहर आते हैं और श्रीकृष्ण को क्रोधपूर्वक देखने लगते हैं। श्रीकृष्ण भी उन्हें देखकर आश्चर्य करने लगते हैं। फिर जामवंतजी पास आकर कहते हैं- कौन हो तुम, यहां किसलिए आए हो?
तब श्रीकृष्ण कहते हैं- मैं हूं देवकी पुत्र श्रीकृष्ण और मैं इस मणि की खोज में आया हूं। तब जामवंतजी कहते हैं- कौन कृष्ण? तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम अभी और इसी क्षण यहां से लौट जाओ। लौट जाओ यहां से ये मणि तुम्हारी नहीं है। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि परंतु यह जिसकी है उसी को लौटाना है, इसीलिए तो आया हूं। इस पर जामवंतजी कहते हैं- परंतु इसे तो मैंने सिंह को मारकर प्राप्त किया है। तुम्हारा इस पर क्या अधिकार? अब ये मेरी पुत्री का आभूषण है और मैं इसे नहीं दे सकता।
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि मणि तो देनी होगी। चाहे सहमति से या असहमति से। यह सुनकर जामवंतजी कहते हैं- तो क्या तुम जामवंत को युद्ध का आमंत्रण दे रहे हो वो भी जामवंत को? इस पर श्रीकृष्ण हंसते हुए कहते हैं- आप जैसा समझे। मुझे तो ये मणि प्राप्त करनी है।.... इसके बाद जामवंतजी कहते हैं कि पहले वार करने का अधिकार तुम्हारा है क्योंकि तुम मेरे यहां आए हो। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं जामवंत पहले वार करने का अधिकार तुम्हारा है क्योंकि तुमने ही मुझे युद्ध का आमंत्रण दिया है। यह सुनकर जामवंतजी कहते हैं- अच्छा तो नीति कुशल भी हो तुम। मेरी पुत्री ही हमारी जय और पराजय की निर्णायक होगी...समझे। मुझे भगवान राम और लक्ष्मण के अतिरिक्त कोई दूसरा युद्ध में नहीं हरा पाता है। पहले ये एक बार सोच लो, मैं तुम्हें एक अवसर और देता हूं। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- सब सोच लिया है जामवंत। तब जामवंतजी कहते हैं- तो फिर ठीक है।
फिर दोनों में घमासान मल्ल युद्ध होता है। जामवंत की पुत्री यह सब देख रही होती है कि किस तरह श्रीकृष्ण जामवंतजी को पटक-पटक कर मार रहे होता हैं और अंत में जामवंत की छाती पर पैर रख देते हैं। फिर जामवंत घबराकर कहते हैं- सच बताओ की कौन हो तुम? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- कह तो दिया देवकी पुत्र श्रीकृष्ण। जय श्रीकृष्णा।
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