अपने कई खास उपदेशों, विचारों और धर्म की रक्षा के प्रति अपना जज्बा कायम रखने वाले गुरु तेग बहादुर सिंह (biography of guru tegh bahadur) जी का सिख धर्म में अद्वितीय स्थान है। वे गुरु हर गोविंद सिंह जी के पांचवें पुत्र थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा मीरी-पीरी के मालिक गुरु-पिता गुरु हरि गोविंद साहब की छत्र छाया में हुई। मात्र 14 वर्ष की उम्र में ही अपने पिता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर मुगलों के हमले के खिलाफ हुए युद्ध में अपना साहस दिखाकर वीरता का परिचय दिया और उनके इसी वीरता से प्रभावित होकर गुरु हर गोविन्द सिंह जी ने उनका नाम तेग बहादुर यानी तलवार के धनी रख दिया।
उन्होंने इसी समयावधि में गुरुबाणी, धर्मग्रंथों के साथ-साथ अस्त्र-शस्त्र और घुड़सवारी आदि की शिक्षा प्राप्त की। सिखों के 8वें गुरु हरिकृष्ण राय जी की अकाल मृत्यु के बाद गुरु तेग बहादुर जी को नौवां गुरु बनाया गया था। रणनीति, आचार-नीति, राजनीति, कूटनीति, शस्त्र, शास्त्र, संघर्ष, वैराग्य और त्याग आदि कई संयोग एक ही ज्योत में समाने वाले मध्ययुगीन साहित्य व इतिहास में बिरला नाम रखने वाले गुरु तेग बहादुर सिंह में निष्ठा, समता, करुणा, प्रेम, सहानुभूति, त्याग और बलिदान जैसे विशेष गुण विद्यमान थे। उन्होंने अपने जीवन काल में 15 रागों में 116 शबद यानी श्लोकों सहित उनकी रचित बाणी आज भी श्रीगुरु ग्रंथ साहिब में संकलित हैं।
गुरु तेग बहादुर जी 24 नवंबर 1675 को शहीद हुए थे और सिख धर्म में नौवें गुरु, गुरु तेग बहादुर की पुण्यतिथि को ही शहीदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार वे 11 नवंबर 1675 को शहीद हुए थे। माना जाता है कि 4 नवंबर 1675 को गुरु तेग बहादुर जी को दिल्ली लाया गया था, जहां मुगल बादशाह ने गुरु तेग बहादुर से इस्लाम या मौत दोनों में से एक चुनने के लिए कहा।
जब मुगल बादशाह औरंगजेब चाहता था कि गुरु तेग बहादुर जी सिख धर्म को छोड़कर इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लें, लेकिन जब गुरु तेग बहादुर जी ने इस बात से इनकार कर दिया तब औरंगजेब ने गुरु तेग बहादुर जी का सिर कटवा दिया था। ऐसे वीरता और साहस की मिसाल थे गुरु तेग बहादुर सिंह जी। विश्व इतिहास में आज भी उनका नाम एक वीरपुरुष के रूप में बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाता है।