शैव संप्रदाय के उप संप्रदाय : भारत में वैदिक, वैष्णव, शैव, शाक्त, स्मार्त पंथ के साधुओं के अलावा भी इनके कई उप पंथों की साधु परंपरा और साधना सदियों से चली आ रही है। इतिहासकार यह मानते हैं कि कापालिक पंथ से शैव, शाक्त, महेश्वर, कौल आदि मार्ग का प्रचलन हुआ। लेकिन कुछ इतिहासकारों अनुसार शैव के शाक्त, नाथ, दसनामी, नाग आदि उप संप्रदाय हैं। महाभारत में माहेश्वरों (शैव) के 4 संप्रदाय बतलाए गए हैं- शैव, पाशुपत, कालदमन और कापालिक। इसके अलावा एक कश्मीरी शैव संप्रदाय, लकुलीश, कालमुख शैव, वीरशैव संप्रदाय, तमिल शैव, शिवाद्वैत धर्म अथवा लिंगायत भी है।
वीरशैव संप्रदाय, तमिल शैव, शिवाद्वैत धर्म अथवा लिंगायत दक्षिण भारत में प्रचलित है। कालमुख आंध्रा में तो लकुलीश संप्रदाय गुजरात में प्रचलित है। लेकिन फिर भी मोटे तौर पर साधना के दो मार्ग बताए गए हैं एक दक्षिण मार्ग और दूसरा वाममार्ग।
वाममार्ग के कठिन मार्ग : वाममार्ग में तंत्र साधना, कापालिक साधना, अघोर साधना, शव साधना, पिशाचिनी साधना आदि साधनाओं का उल्लेख मिलता है। यामुन मुनि के आगम प्रामाण्य, शिवपुराण तथा आगम पुराण में विभिन्न तांत्रिक संप्रदायों के भेद दिखाए गए हैं। वाचस्पति मिश्र ने चार माहेश्वर संप्रदायों के नाम लिए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि श्रीहर्ष ने नैषध में समसिद्धान्त नाम से जिसका उल्लेख किया है, वह कापालिक संप्रदाय ही है।
कापालिकों के ईष्ट : शिव के 10 अवतारों की तंत्र शास्त्र में साधना होती है। 1. महाकाल, 2. तारा, 3. भुवनेश, 4. षोडश, 5. भैरव, 6. छिन्नमस्तक गिरिजा, 7. धूम्रवान, 8. बगलामुखी, 9. मातंग और 10. कमल नामक अवतार हैं। इसके अलवा 11 रुद्रावतार हैं- 1. कपाली, 2. पिंगल, 3. भीम, 4. विरुपाक्ष, 4. विलोहित, 6. शास्ता, 7. अजपाद, 8. आपिर्बुध्य, 9. शम्भू, 10.चण्ड तथा 11. भव का उल्लेख मिलता है। कापालिक साधनाओं में महाकाली, भैरव, चांडाली, चामुंडा, शिव तथा त्रिपुरासुंदरी जैसे देवी-देवताओं की साधना होती है।
क्यों कहते हैं कापालिक : तंत्र शास्त्र के अनुसार कापालिक संप्रदाय के लोग शैव संप्रदाय के अनुयायी होते हैं। ये लोग मानव खोपड़ियों (कपाल) के माध्यम से खाते-पीते हैं, इसीलिए इन्हें ‘कापालिक’ कहा जाता है। कापालिक संप्रदाय को महाव्रत-संप्रदाय भी माना जाता है। इसे तांत्रिकों का संप्रदाय माना गया है। नर कपाल धारण करने के कारण ये लोग कापालिक कहलाए। कुछ विद्वान इसे नहीं मानते हैं। उनके अनुसार कपाल में ध्यान लगाने के चलते उन्हें कापालिक कहा गया। पुराणों अनुसार इस मत को धनद या कुबेर ने शुरू किया था।
शैव सम्प्रदाय की पाशुपत शाखा के अनुयायियों का कापालिक कहा जाता है। बौद्ध तांत्रिकों और हठ-योग में ऐसा साधक, जिसने डोबी की साधना पूरी कर ली हो उसे भी कापालिक कहा गया है।
कापालिक सिद्ध संत : बौद्ध आचार्य हरिवर्मा और असंग के समय में भी कापालिकों के संप्रदाय विद्यमान थे। सरबरतंत्र में 12 कापालिक गुरुओं और उनके 12 शिष्यों के नाम सहित वर्णन मिलते हैं। गुरुओं के नाम हैं- आदिनाथ, अनादि, काल, अमिताभ, कराल, विकराल आदि। शिष्यों के नाम हैं- नागार्जुन, जड़भरत, हरिश्चन्द्र, चर्पट आदि। ये सब शिष्य तंत्र के प्रवर्तक रहे हैं। वसुगुप्त ने 9वीं शताब्दी के उतरार्ध में कश्मीरी शैव संप्रदाय का गठन किया था। वसुगुप्त के दो शिष्य थे कल्लट और सोमानंद। इन दोनों ने ही शैव दर्शन की नई नींव रखी।
क्यों रखते हैं साथ में कपाल : कापालिक साधु इंसानी खोपड़ी में ही खाते और पीते हैं और हमेशा कपाल अपने पास ही रखते हैं। माना जाता है कि इससे उन्हें हर समय यह भान रहता है कि यह शरीन नश्वर है। इससे वैराग्य की भावना बलवती होती है। यह भी की जो मस्तक कभी आदर का पात्र था उसकी कैसी दुर्गती हुई। तब मिट्टी के पात्र तथा कपाल में कोई फर्क नहीं रह जाता है। कापालिक साधु जीवन और मृत्यु का समान समझते हैं।
कापालिक साधना : कापालिक साधु मंत्र साधना और तप के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करते हैं। पहले के समय में कापालिक साधु भक्ति के मार्ग में सबसे मुश्किल और कठोर तपस्या करने वाले माने जाते थे। हालांकि आज भी नेपाल और तिब्बत के पर्वतों पर कई कापालिक साधु सालों से तपस्या करते हुए देखे जा सकते हैं। ये साधु कुंभ और सिंहस्त के दौरान ही नजर आते हैं। अगर कोई व्यक्ति कापालिक बनने की राह पर निकल लेता है तो वह फिर कभी वापस परिवार की तरफ मुड़कर नहीं देखता है। ना ही फिर कभी अपने लिए धन और ना ही अन्य चीजों को जोड़ता है।
दूसरों का दुख हरने वाले : कापालिक साधुओं के बारे में यह जनश्रुति प्रचलित है कि अगर आपको कोई असली कापालिक साधु मिल गया और वह आपसे प्रसन्न हो गया तो समझों आपकी किस्मत बदल जाएगी। वह आपकी सभी बीमारियां और दु:ख खुद ले लेता है और बाद में खुद तपस्या कर इनको खत्म कर देता है।
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वाममार्ग का विरोध : आदि शंकराचार्य ने कापालिक संप्रदाय में अनैतिक आचरण एवं घृणास्पद कर्म का विरोध किया, जिससे इस संप्रदाय का एक बहुत बड़ा हिस्सा नेपाल के सीमावर्ती इलाके में तथा तिब्बत मे चला गया। यह संप्रदाय तिब्बत में लगातार गतिशील रहा, जिससे की बौद्ध कापालिक साधना के रूप मे यह संप्रदाय जीवित रह सका।
रामचरित मानस में विरोध : अंगद-रावण संवाद में अंगदजी कहते हैं कि
कौल कामबस कृपिन बिमूढ़ा। अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा॥1॥
सदा रोगबस संतत क्रोधी। बिष्नु बिमुख श्रुति संत बिरोधी॥
तनु पोषक निंदक अघ खानी जीवत सव सम चौदह प्रानी॥2॥
इस चौपाई में तुलसीदासजी ने कौल मार्ग का विरोध किया है। वाममार्गी को उस दौर में कौल कहा जाता था। कौल मार्ग अर्थात तांत्रिकों का मार्ग। कापालिक संप्रदाय के लोग भी इससे जुड़े हैं। जादू, तंत्र, मंत्र और टोने टोटको में विश्वास करने वाले भी कौल हो सकते हैं। हालांकि इसके अर्थ को और भी विस्तृत किया जा सकता है।
कौल या वाम का अर्थ यह कि जो व्यक्ति पूरी दुनिया से उल्टा चले। जो संसार की हर बात के पीछे नकारात्मकता खोज ले और जो नियमों, परंपराओं और लोक व्यवहार का घोर विरोधी हो, वह वाममार्गी है। ऐसा काम करने वाले लोग समाज को दूषित ही करते हैं। यह लोग उस मुर्दे के समान है जिसके संपर्क में आने पर कोई भी मुर्दा बन जाता है।