- डॉ. उमरावसिंह चौधरी ज्ञान के दुर्गम मार्ग पर अग्रसर होते रहने की चेतना और अनुभूति के समय यदि शिक्षक का हाथ छात्र की पीठ पर है तो सफलता उसे पास ही खड़ी हुई दिखाई देती है। शिक्षक का यह प्रोत्साहन ही वह प्राणवायु है, जो ज्ञान-पिपासा की ज्योति को बुझने से बचा सकती है।
हिटलर के यातना शिविर से जान बचाकर लौटे हुए एक अमेरिकी स्कूल के प्राचार्य ने अपने शिक्षकों के नाम पत्र लिखकर बताया कि 'शिविरों में जो कुछ मैंने अपनी आँखों से देखा, उससे शिक्षा को लेकर मेरा मन गंभीर संदेह से भर गया।'
प्राचार्य ने पत्र में लिखा- 'प्यारे शिक्षकों, मैं एक यातना शिविर से जैसे-तैसे जीवित बचकर आने वाला व्यक्ति हूँ। वहाँ मैंने जो कुछ देखा, वह किसी को नहीं देखना चाहिए। वहाँ के गैस चैंबर्स विद्वान इंजीनियरों ने बनाए थे। बच्चों को जहर देने वाले लोग सुशिक्षित चिकित्सक थे। महिलाओं और बच्चों को गोलियों से भूनने वाले कॉलेज में उच्च शिक्षा प्राप्त स्नातक थे। इसलिए, मैं शिक्षा को संदेह की नजरों से देखने लगा हूँ। आपसे मेरी प्रार्थना है कि आप अपने छात्रों को 'मनुष्य' बनाने में सहायक बनें। आपके प्रयास ऐसे हों कि कोई भी शिक्षार्थी 'शिक्षित दानव' नहीं बने। पढ़ना-लिखना और गिनना तभी तक सार्थक है, जब तक कि वे हमारे बच्चों को 'अच्छा मनुष्य' बनाने में सहायता करते हैं।'
यातना शिविर का दूसरा शिकार अनाथ बच्चों को पढ़ाने वाला एक उच्च मानवीय सरोकारों से ओतप्रोत डॉक्टर (चिकित्सक) है। 'हम जानते हैं आप अच्छे डॉक्टर हैं, आपके लिए त्रेब्लीन्का जाना जरूरी नहीं है', गेस्टापो के एक अफसर ने उससे कहा। 'मैं अपने ईमान का सौदा नहीं करता' यह यानुश कोर्चाक का जवाब था। यानुश कोर्चाक पौलैंड की वर्तमान राजधानी वारसा की यहूदी बस्ती के अनाथालय में बच्चों का पालन और शिक्षण करते थे। हिटलर के दरिन्दों ने इन अभागे बच्चों को त्रेब्लीन्का मृत्यु शिविर की भट्टियों में झोंकने का फैसला करलिया था। जब यानुश कोर्चाक से यह पूछा गया कि वे क्या चुनेंगे : 'बच्चों के बिना जिंदगी या बच्चों के साथ मौत?' तो कोर्चाक ने बिना हिचक और दुविधा के तुरंत कहा कि वे 'बच्चों के साथ मौत' को ही चुनेंगे।
नैतिक सौंदर्य के धनी यानुश कोर्चाक ने वीरोचित भाव से मौत का आलिंगन इसलिए किया था कि वे जीवन के अंतिम क्षण तक सच्चे शिक्षक की तरह बच्चों के साथ रहकर उन्हें धीरज बँधाते रहें। कहीं बच्चे घबरा न जाएँ और उनके नन्हे एवं कोमल हृदयों में मौत के इंतजार काकाला डर समा न जाए। यानुश कोर्चाक का नैतिक बल और अंतःकरण की अनन्य निर्मलता आज के शिक्षक के लिए प्रेरणा ही नहीं, एक बेजोड़ मिसाल है।
पिछले दिनों कुंभकोणम के एक स्कूल में सुरक्षा व्यवस्था के अभाव में लगभग सौ बच्चे आग का ईंधन बन गए। प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि आग की लपटों से बचने के लिए दीवार पर चढ़ने की कोशिश में कुछ बच्चों ने अपने नाखून तोड़ लिए और उनकी अँगुलियाँ लहूलुहान हो गईं।
संचालकों और शिक्षकों की लापरवाही तथा निर्ममता के शिकार वे बच्चे, ज्वाला के ग्रास बनते समय, उनके मन-मस्तिष्क में अपने शिक्षकों की छबि और स्मृति कितनी क्रूर एवं दाहक रही होगी? क्या उनके शिक्षकों को बच्चों से विमुख होकर पलायन करने के बजाए यानुश कोर्चाक की तरह उनके पास नहीं होना था? क्या मृत्यु के काले डर से उनकी रक्षा करते हुए उन्हें उनके साथ स्वाहा नहीं हो जाना था? बच्चों के बिना जीवित रहकर, क्या कुंभकोणम के शिक्षकों ने शिक्षक जाति के मस्तक पर कलंक का टीका नहीं लगा दिया है?
कहा गया है कि 'सच्चा शिक्षक' बनने के लिए मनुष्य का जो आत्मिक स्तर होना चाहिए, उसकी जो विलक्षण शिक्षण-संस्कृति होनी चाहिए, उसका सबसे निर्णायक लक्षण है बच्चों से गहरा लगाव, उनके प्रति माता जैसी अनुरक्ति और आसक्ति। शिक्षक के लिए आवश्यक अनेक गुणों में सबसे पहला है बालक के अंतःकरण के स्तर तक ऊँचा उठना, न कि उसे कृपा-दृष्टि से देखना। बच्चे के आंतरिक जगत में, उसके मन की दुनिया में पैठने की क्षमता ही व्यक्ति को उच्च कोटि का शिक्षक बनाती है। शिक्षक बनने वाले व्यक्ति को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि वह खुद भी कभी बच्चा और किशोर था। यानुश कोर्चाक ने पोलिश भाषा में छपी मटमैले आवरण वाली अपनी छोटी-सी पुस्तक : जब मैं फिर छोटा हो जाऊँगा में भावना से भींगे ऐसे तमाम विचार प्रस्तुत किए हैं, जो आज भी प्रेरक और प्रासंगिक हैं।
बच्चों के जीवन में प्राथमिक कक्षाओं के शिक्षकों की भूमिका इतनी आत्मीय और विशद है कि उसकी तुलना केवल माता की वत्सलता से ही की जा सकती है। बच्चों के साथ शिक्षक का स्नेह निष्कपट होने के साथ-साथ उसमें माता-पिता की वांछनीय सख्ती और दृढ़ता भी होनी चाहिए। नन्हा छात्र अध्यापक में कितनी अटूट आस्था रखता है, शिक्षक और शिक्षार्थी का एक-दूसरे पर कितना विश्वास है, बच्चा अपने शिक्षक में इंसानियत का कैसा आदर्श देखता है- ये ही हैं शिक्षण के, चरित्र निर्माण के वे बुनियादी और जटिल नियम, जिन्हें समझ लेने पर, आत्मसात करलेने पर अध्यापक वास्तव में 'सच्चा शिक्षक' बन जाता है। ऐसा शिक्षक जो बाल-आत्मा को सर्दी, गर्मी, आँधी-तूफान तथा आतंक-अत्याचार से बचाने के लिए स्नेहिल सुरक्षा प्रदान कर सके और इस प्रकार आत्मसम्मानपूर्वक अपनी लड़ाई स्वयं लड़ने के लिए उसे समर्थ बना सके।
रूसी शिक्षाविद् वसीली सुखोम्लीन्स्की कहते हैं कि 'बच्चों को सब कुछ नहीं बताया जा सकता। नन्हे बच्चों पर चित्रों और बिम्बों की तैयारी की बौछार नहीं की जानी चाहिए, उनके हृदय को निरंतर झकझोरा नहीं जाना चाहिए। बच्चों को थोड़ी-सी बात ही बताइए, लेकिन इस तरहकि वे इसमें नैतिक मूल्यों का सौंदर्य देख लें। बच्चों के मनोमस्तिष्क में जो भावनाओं और विचारों का बवंडर उठता है, उस पर उन्हें सोचने दीजिए। बच्चों के हृदय में बात उतर जाने दीजिए।' शिक्षक का उतावलापन बच्चों को अपनी शक्ति आजमाने के एहसास और आत्मविश्वास सेवंचित कर देता है। आत्मसम्मान की भावना कुचल देने से अधिक अनैतिक बात भला और क्या हो सकती है?
ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया में मानव गरिमा और गर्व की अनुभूति करना प्रत्येक छात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। शिक्षक का काम छात्रों को केवल परिवेश और दुनिया का ज्ञान प्रदान करना नहीं है। बच्चों या छात्रों को यह एहसास भी कराया जाना चाहिए कि वे इस संसार के रचयिता, सृजनकर्ता हैं। शिक्षक केवल दरवाजा खोलता है, प्रवेश तो स्वयं छात्रों को ही करना चाहिए। शिक्षा चाहे समूह में संपन्ना होती हो, ज्ञान के मार्ग पर तो हर कदम स्वयं बच्चे ही उठाते हैं।
बौद्धिक श्रम एक नितांत व्यक्तिगत प्रक्रिया है, जो न केवल छात्र की योग्यता बल्कि उसके चारित्रिक रुझानों तथा अन्य ऐसी बहुत-सी परिस्थितियों पर भी निर्भर करती है, जो सामान्यतः दिखाई नहीं देती। बच्चा यह कभी सहन नहीं कर सकता कि कोई उसे आलसी या निकम्मा समझे।अच्छी तरह पढ़ने की उसकी इच्छा उस ज्योति के समान होती है, जो बच्चों की दुनिया को आलोकित करती है। यह ज्योति कटुता या उदासीनता के जरा-से झोंके से बुझ सकती है। बच्चा असीम विश्वास के साथ शिक्षक के पास आता है, यदि शिक्षक उसकी अभिलाषा को अनदेखा करता है तो इसका आशय यही होगा कि शिक्षक अपने छात्रों के वर्तमान और भविष्य के प्रति एक नैतिक उल्लास और दायित्व से रिक्त है।
ज्ञान के दुर्गम मार्ग पर अग्रसर होते रहने की चेतना और अनुभूति के समय यदि शिक्षक का हाथ छात्र की पीठ पर है तो सफलता उसे पास ही खड़ी हुई दिखाई देती है। शिक्षक का यह प्रोत्साहन ही वह प्राणवायु है, जो ज्ञान-पिपासा की ज्योति को बुझने से बचा सकती है।