5 सितंबर देशभर में शिक्षक दिवस के रूप में धूमधाम से मनाया जाता है। शिक्षा का प्रसार करने वालों से लेकर शिक्षा का व्यापार करने वाले तक इस दिन बड़े प्रसन्न नजर आते हैं।
शिक्षकों की शान में बड़े-बड़े भाषण और कविताएँ रची जाती है। दिन ढलते ही शिक्षक दिवस भी समाप्त हो जाता है और अगले ही दिन सबकुछ अपने पुराने ढर्रे पर लौट आता है।
शिक्षक, शिक्षा और विद्यार्थी इन तीनों को एक-दूसरे से अलग कर के नहीं देखा जा सकता है। शिक्षक दिवस हमे एक अवसर प्रदान करता है कि हम इन तीनों के अंर्तसंबंधों पर गहराई से विचार करे।
‘एजुकेशन’ शब्द का अँग्रेजी में अर्थ होता है, टू ड्रा आउट। यानी कि मनुष्य के भीतर छिपी प्रतिभा और क्षमताओं को निखारकर बाहर लाना। क्या सही मायनों में हम शिक्षा के निहितार्थ को पूरा कर पा रहे है?
आज हम और हमारी शिक्षा पद्धति, शिक्षा के असली अर्थ से विपरित दिशा में चल रहे है। हर ओर से सूचनाएँ बच्चों पर लादी जा रही है, ज्ञान के नाम पर उन्हें रट्टू तोतों में तब्दील किया जा रहा है।
ये तो सिक्के का केवल एक पहलू हैं। जिसमें समाज के मध्यम और उच्चमध्यम वर्ग के बच्चो, अभिभावकों और शिक्षकों की जमात शामिल है। सिक्के का दूसरा पहलू देश के अंदरूनी गाँवों, कस्बों और शहरों के पिछडे़ इलाकों के सरकारी स्कूलों में छिपा है। जहाँ स्कूल की दीवारों से बारिश का पानी टपकता है और तमाम और विसंगतियों को झेलते हुए कुछ शिक्षक भविष्य के कर्णधारों को लिखना-पढ़ना सिखाने की कोशिश करते हैं।
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शिक्षा के क्षेत्र में यह खाई दिन प्रतिदिन और गहरी होती जा रही है। इस खाई के तल और ऊपरी हिस्से के मध्य कुकुरमुत्तों के रूप में भी शिक्षा की कुछ गुमटियाँ उगी हुई है जिनके लिए शिक्षा एक उत्पाद है, जो उनकी दुकानों पर बिकती है।
जर्मनी के एक महान शिक्षाविद् ईवान इलिच ने अपनी प्रख्यात पुस्तक ‘दी स्कूलिंग सोसाइटी’ में लिखा था कि ‘स्कूलिंग, समाज को यह सोचने पर बाध्य करती है कि ज्ञान स्वच्छ, शुद्ध, पसीने की गंध रहित ऐसी वस्तु है जिसका उत्पादन मानव मस्तिष्क करता और जिसका भण्डारण किया जा सकता है।’
आज ज्ञान की यह धारा एकांगी होती जा रही है। बालक को शिक्षित बनाने की इस प्रक्रिया में स्वयं बालक की भागीदारी भी होनी चाहिए।
बच्चो के अंत:करण में झाँकने की बात हम एक बार छोड़ भी दे तब भी कम-से-कम बच्चे से इतना तो पूछें- कि वो क्या पढ़ना चाहता है? क्या खेलना चाहता है? क्या करना चाहता है?
शिक्षित करने की प्रक्रिया एकमार्गी नहीं बल्कि द्विमार्गी होनी चाहिए, तभी हम सही मायने में बच्चों को शिक्षित बना पाएँगे।