सवाल-क्या बच्चों को सुधारने के नाम पर उनकी पिटाई की जानी चाहिए?
जवाब- कतई नहीं, यह तर्क ही गलत है। बच्चों को स्कूल में शिक्षा के साथ ही अनुशासन का पाठ पढ़ाने की जिम्मेदारी भी शिक्षकों की ही है। पिटाई, बच्चों को सुधारने का विकल्प नहीं है। काउंसलर्स की सलाह को अमल में लाने के साथ ही उन्हें पढ़ाई व होमवर्क करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
सवाल-पिटाई से बच्चों पर क्या फर्क पड़ सकता है?
जवाब- किसी भी सभ्य समाज की पहचान इससे है कि उसमें बच्चे कितना खुश रहते हैं और उन्हें आगे बढ़ने की कितनी आजादी है। यदि बच्चे स्कूल में ही खौफ का शिकार होंगे तो उनका स्वाभाविक विकास रुक जाएगा। कठोर सजा बच्चों के कोमल मस्तिष्क पर बुरा असर डाल सकती है और उन्हें कुंठित बना सकती है। इससे उनमें आपराधिक प्रवृत्ति भी पनप सकती है।
एक स्कूल में छः वर्षीय अनमोल को उसकी शिक्षिका ने इतना मारा उसके हाथ की हड्डी खिसक गई और उसे ऑपरेशन की पीड़ा झेलनी पड़ी। उसका कसूर सिर्फ इतना था कि उसने अंग्रेजी का एक अक्षर गलत बताया था।
यह घटना क्या बयान करती है, क्या हमारे शिक्षक इतने क्रूर हो गए हैं। जब भी हम अपने गुरुजन को याद करते हैं तो एक कड़क किन्तु नर्म दिल इंसान की छवि उभरती है। फिर क्या आज के शिक्षक ऐसे हैं या पहले से अभिभावक और शिष्य नहीं रहे? सवाल ये भी है कि क्या कड़े कानून बना देने से बच्चों की शिक्षा व्यवस्था से दण्ड समाप्त हो जाएगा?
गौरतलब है कि विद्यालय में बच्चों को दंडित करने के लिए नाना प्रकार के तरीके अपनाए जाते हैं जिसमें उन्हें मारना, कक्षा में खड़े रखना, प्रार्थना सभा में शर्मिंदा करना, धूप में खड़ा करना आदि सामान्य है।
बार-बार किए जा रहे सर्वे और अध्ययन इस बात की ओर इशारा करते हैं कि बच्चों को अभी भी पीटा जाता है। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने देशव्यापी सर्वेक्षण कराया था जिसमें 13 राज्यों के 5-18 साल के 12 हजार 447 बच्चों को शामिल किया गया था। सर्वेक्षण से चौंकाने वाली तस्वीर उभरी है- चार में से तीन बच्चों के साथ मारपीट या शारीरिक दुर्व्यवहार किया जाता है। परेशान करने वाली बात यह है कि 88.6 फीसदी बच्चों को परिवार में उनके माता-पिता ही मारते-पीटते हैं।
शिक्षाविदों, शिक्षकों और बच्चों से हुई बातचीत में एक बात तो साफ निकलकर आई कि दण्ड किसी भी सूरत में ठीक नहीं है। अब रही बात कि दण्ड की व्यवस्था को कैसे समाप्त किया जाए तो कुछ शिक्षाविदों का मानना है कि बच्चों के लिए पढ़ाई सरल, सरस और स्कूल का वातावरण बेहतर बनाने के साथ-साथ शिक्षकों की समस्याओं पर भी सोचा जाना चाहिए। शिक्षकों को भी उचित वेतन, सेवा शर्तें और पद की गरिमा प्रदान की जानी चाहिए। ताकि वे अपनी कुंठा बच्चों पर न निकालें।
एजुकेशनल रिसर्च सेंटर के 13 साल तक चले राष्ट्रव्यापी अध्ययन से पता चला कि सजा पाने के बाद 30 फ़ीसदी बच्चे शिक्षक को नापसंद करने लगे। 20 प्रतिशत बच्चों को सदमा लगा और वे बीमार पड़े। 50 प्रतिशत पिता और 70 प्रतिशत माताएं बच्चों को दी जाने वाली सजा को अस्वीकार करती हैं।