UNESCO: भारत की पारम्परिक कलाओं की अमूल्य विरासत सहेजने के प्रयास

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शुक्रवार, 3 मई 2024 (12:48 IST)
Efforts to save the invaluable heritage of Indian traditional arts : भारत स्थित यूनेस्को के आजीविका कार्यक्रम के तहत देश के पश्चिम बंगाल और राजस्थान प्रदेशों में पारम्परिक कलाओं को जीवित करने के प्रयास किए जा रहे हैं। इससे न केवल समुदायों की महिलाओं को रोज़गार मिल रहा है बल्कि लुप्त होती कलाओं को सहेजने में भी मदद मिल रही है।

भारत के ओडिशा व पश्चिम बंगाल प्रान्त में कपड़े की चादरों पर रंगीन तस्वीरें उकेरते कलाकार, पट्टचित्र जैसी पारम्परिक चित्रकला के ज़रिए लोकप्रिय कहानियों का चित्रण करते हैं। लोक गीतों में इन चित्रों का इस्तेमाल करके धार्मिक कथाएं कही जाती हैं।

भारत में जीवन्त सांस्कृतिक प्रथाओं और स्थानीय ज्ञान का बड़ा भंडार पाया जाता है। इनमें हस्तशिल्प, हथकरघा, लोक व प्रदर्शन कला, खादी एवं ग्रामोद्योग समेत कला की एक विस्तृत श्रृंखला शामिल है। ग्रामीण क्षेत्रों में उनके भौगोलिक विस्तार, स्थानीय जानकारी, सहकारी प्रकृति और जनसांख्यिकीय लाभांश के कारण, वो स्थानीय सतत विकास के लिए एक प्रमुख संरचनात्मक इकाई हैं।

भारत स्थित यूनेस्को पश्चिम बंगाल और पश्चिमी राजस्थान में पर्यटन को मज़बूत करने के लिए, ग्रामीण शिल्प और सांस्कृतिक केन्द्र कार्यक्रम (RCCH) जैसी अमूर्त सांस्कृतिक विरासत आधारित पहलों को साकार करने में लगा हुआ है। इन परियोजनाओं के ज़रिए, महिलाओं को सशक्त बनाने के साथ-साथ सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा करने में सफलता प्राप्त हो रही है।

कला का विस्तार: इसमें पश्चिम बंगाल में शिल्पकला, कांथा कढ़ाई, ढोकरा, सबाई और मदुर बुनाई जैसी कलाएं शामिल हैं, जिन्हें प्रोत्साहन देकर, महिलाओं को सतत विकास की राह प्रशस्त करने का आत्मविश्वास प्रदान जा रहा है।

इन्ही शिल्पकारों में से एक है, पुरुलिया की दीपाली। दीपाली बताती हैं, “चूंकि गांव में हम पूरे दिन घर पर ही रहते थे, इसलिए हम अपने घरों के लिए सबाई रस्सियों के छोटे-छोटे उत्पाद बनाते थे। लेकिन इस परियोजना के ज़रिए मुझे उत्पादों में विविधता लाने और विपणन का प्रशिक्षण मिला। अब मैं भारत के विभिन्न क्षेत्रों और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी कला का प्रदर्शन करने के लिए जाती हूं। यह मेरे लिए केवल आजीविका मात्र नहीं है, बल्कि इससे मुझे एक पहचान मिली है”

हाल ही में भारत स्थित यूनेस्को कार्यालय में महिलाओं द्वारा कला एवं विरासत के सतत संरक्षण की सफलता का जश्न मनाया गया।

राज्य सरकार के साथ साझेदारी में ग्रामीण उद्योगों में स्थाई आजीविका के निर्माण के लिए यह पहल, पिछले एक दशक से जारी है, वर्तमान में यह परियोजना 20 ज़िलों में 35 आईसीएच मूल्य श्रृंखलाओं तक फैली हुई है, जिससे लगभग 50 हज़ार प्रतिभागियों को लाभ पहुंच रहा है।

2023 तक इस परियोजना के तहत 25 से अधिक ICH इकाईयों को सफलतापूर्वक समर्थन दिया जा चुका है। पश्चिम बंगाल सरकार के निवेश की मदद से 14 ग्रामीण कला केन्द्रों और सामुदायिक संग्रहालयों की स्थापना की गई। साथ ही, समुदाय के सदस्यों द्वारा संचालित 50 से अधिक नए ग्रामीण उद्यमों की स्थापना की गई।

इसका उद्देश्य पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाक़ों में कुछ चुनी हुई कलाओं को लाभदायक बनाने के लिए "उनकी पहचान, आलेखन, अनुसन्धान, संरक्षण, सुरक्षा, प्रचार एवं विस्तार करने में मदद देना शामिल है– ख़ासतौर पर औपचारिक व गैर-औपचारिक शिक्षा व विरासत को पुनर्जीवित करके”

इससे पारम्परिक कला और शिल्प में महिलाओं की भागेदारी बढ़ी है। परियोजना के लाभार्थियों में 58% महिलाएं हैं, जिससे महिला मज़बूती की दिशा में क़दम आगे बढ़े हैं।

परियोजना के तहत कलाकारों को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी कला का प्रदर्शन करवाने पर भी ज़ोर दिया जाता है, जिससे न केवल ज़िला एवं राज्य स्तर पर, बल्कि अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर भी कलाकारों को अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर मिलता है।

दक्षिण एशिया के लिए यूनेस्को कार्यालय के निदेशक टिम कर्टिस कहते हैं, “महिलाएं जीवित विरासत के अभ्यास, प्रसार और संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। आमतौर पर महिलाएं अपनी जीवित विरासत का ज्ञान व कौशल अगली पीढ़ियों तक पहुंचाने में सबसे आगे रहती हैं।"

"इस तरह सही मायनों में वो समुदायों की सच्ची संरक्षक मानी जा सकती हैं। इसके अलावा, सांस्कृतिक गतिविधियों में महिलाओं की सक्रिय भागेदारी से, लैंगिक अन्तर पाटने तथा समावेशी, टिकाऊ समाज के निर्माण में भी मदद मिलती है” भारत स्थित यूनेस्को अमूर्त सांस्कृतिक विरासत (ICH) को प्रोत्साहन देकर, ग्रामीण उद्योगों में स्थाई आजीविका के निर्माण के प्रयास कर रहा है।

विरासत संरक्षण का पर्यावरण-अनुकूल नज़रिया: परियोजना के ज़रिए, गांवों के बुनियादी ढांचे में सुधार, आय असमानताओं में कमी, नई चीज़ों का उत्पादन, प्रौद्योगिकी तक पहुंच, नए बाज़ारों का निर्माण और पर्यटकों की संख्या में वृद्धि जैसे कई लाभ मिले है। परियोजना में प्रकृति आधारित समाधान अपनाने पर ज़ोर दिया जाता है और नैतिक उत्पादन विधियां अपनाकर, प्राकृतिक रेशों व अन्य पर्यावरण-अनुकूल सामग्रियों से बने उत्पादों को विकसित करके, पर्यावरणीय स्थिरता की ओर क़दम बढ़ाए हैं।

इससे पटचित्र, डोकरा, छाऊ मास्क, लकड़ी के मुखौटे, मदुर बुनाई और टेराकोटा जैसी कलाओं को विशाल स्तर पर मान्यता प्राप्त हुई है। अपने दसवें वर्ष में प्रवेश कर चुकी, ग्रामीण शिल्प और सांस्कृतिक केन्द्र परियोजना से स्पष्ट होता है कि अगर पारम्परिक कलाओं को तकनीकी, क्षमता बाज़ार और उद्यमिता से जोड़ा जाए, तो ये कलाएं, ग़रीबी उन्मूलन व रोज़गार सृजन का एक शक्तिशाली साधन और माध्यम बन सकती हैं।
Edited by Navin Rangiyal

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