'जश्न-ए-आज़ादी'

शायर : फ़य्याज़ ग्वालयर

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वो आज़ादी बहिश्तों की हवाएँ दम भरें जिसका
वो आज़ादी फ़रिश्ते अर्श पर चरचा करें जिसका

वो आज़ादी शराफ़त जिसकी ख़ातिर जान तक दे दे
जवानी ज़ीस्त के उभरे हुए अरमान तक देदे

वो आज़ादी, परिन्दे जिसकी धुन में गीत गाते हैं
वो आज़ादी, सितारे जिसकी लौ में जगमगाते हैं

वो आज़ादी, जो सावन की घटाऎं बन के छाती है
वो आज़ादी, हवा में जिसकी खेती लहलहाती है

वो आज़ादी, जो गुलज़ारों में ख़ुश्बू बनके रहती है
वो आज़ादी, कली भी जिस के बल पे, तनके रहती है

वो आज़ादी, मिली हमको बड़ी क़ुरबानियाँ देकर
लुटाकर अपने मोती, लाजपत की पसलियाँ देकर

भगत, ऊधम, सुभाष, आज़ाद क्या खोए नहीं हमने
लहू से सींच दी 'जलियान वाला' की ज़मीं हमने

विदेशी मालकी घर-घर जलाईं होलियाँ हमने
निहत्ते थे, पर आगे बढ़के खाईं गोलियाँ हमने

ज़माने को नया इक रास्ता दिखला दिया हमने
अहिंसा और सत्य के बल पे जीता मोरचा हमने

हमारे दिल से पूछो दिल पे क्या क्या ज़ख़्म खाए हैं
मिला जो कुछ उसी को अब कलेजे से लगाए हैं

वो दिन आया कि अपना देश, आज आज़ाद-ए-कामिल है
नया सिक्का, नई अज़मत, नई तौक़ीर हासिल है

हिमालय की तरह दुनिया में आज ऊँचा है सर अपना
कि राज अपना है, काज अपना है, घर अपना है दर अपना

खड़े होंगे अब अपने पाँव पर, हम अपनी ताक़त से
करेंगे देश को आज़ाद ग़ुरबत से, जहालत से

कोई भारत में अब दुख से तड़पता रह नहीं सकता
ग़ुलामी ऎसी आज़ादी से अच्छी कह नहीं सकता

किसी के सामने अब अपनी गर्दन झुक नहीं सकती
ख़ुदा चाहे तो भारत की तरक़्क़ी रुक नहीं सकती