तख़रीब की घटाएँ घनघोर छा रही हैं सनकी हुई हवाएँ तूफ़ाँ उठा रही हैं नाख़्वास्ता बलाएँ दुनिया पे आ रही हैं ऐसी हमा-हमी में मैं लुत्फ़ क्या उठाऊँ मैं ईद क्या मनाऊँ
लाखों मकाँ हैं ऐसे जिनके मकीं नहीं हैं जो मरकज़े-नज़र थे वो अब कहीं नहीं हैं वो हमनवा नहीं हैं, वो हमनशीं नहीं हैं साज़े-हयात के अब नग़मे किसे सुनाऊँ मैं ईद क्या मनाऊँ
इंसानियत जहाँ में पामाल हो रही है रूहानियत भी अपने माज़ी को रो रही है सच्ची ख़ुशी अदम के झूलों में सो रही है झूटी ख़ुशी मनाकर कब तक फ़रेब खाऊँ मैं ईद क्या मनाऊँ