मीर तक़ी मीर के मुनफ़रीद अशआर

गुरुवार, 15 मई 2008 (13:46 IST)
पेशकश : अजी़ज़ अंसारी

WDND
मस्जिद में आज इमाम हुआ आके वहाँ से
कल तक तो यही मीर खराबात नशीं था

नाम आज कोई याँ नहीं लेता है उन्हों का
जिन लोगों के कल मुल्क ये सब ज़ेर-ए-नगीं था

आया तो सही वो कोई दम के लिए लेकिन
होंटों पे मेरे जब नफ़स-ए-बाज़-ए-पसीं था

मुँह तका ही करे है जिस तिस का
हैरती है ये आईना किस का

दिल की वीरानी का क्या मज़कूर है
ये नगर सो मरतबा लूटा गया

सख्त काफ़िर था जिसने पहले मीर
मज़हब-ए-इश्क़ इख्तियार किया

इबतिदा-ए-इश्क़ है रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या

बुलबुल ग़ज़ल सराई आगे हमारे मत कर
सब हमसे सीखते हैं अन्दाज़ गुफ़्तगू का

शरीफ-ए-मक्का रहा है तमाम उम्र ऐ शेख
ये मीर अब जो गदा है शराबखाने का

मुझको शायर न कहो मीर कि साहब मैंने
दर्द-ओ-ग़म कितने किए जमआ तो दीवान किया

वस्ल में रंग उड़ गया मेरा
क्या जुदाई में मुँह दिखाऊँगा

मीर साहब ज़माना नाज़ुक है
दोनों हाथों से थामिए दस्तार

कहता है कौन तुझको याँ ये न कर, तू वो कर
पर हो सके तो प्यारे दिल में भी टुक जगह कर

मीर जी ज़र्द होते जाते हो
क्या कहीं तुमने भी किया है इश्क़

बेकली बेखुदी कुछ आज नहीं
एक मुद्दत से वो मिज़ाज नहीं

मत सेह्ल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों
तब खाक के परदे से इंसान निकलते हैं

गिरया-ए-शब से सुर्ख हैं आँखें
मुझ बलानोश को शराब कहाँ

होगा कसू दीवार के साए में पड़ा मीर
क्या काम मोहब्बत से इस आराम तलब को

हस्ती अपनी हुबाब की सी है
ये नुमाइश सुराब की सी है

शादी-ओ-ग़म में जहाँ की एक से दस का है फ़र्क़
ईद के दिन हँसिए तो दस दिन मोहर्रम रोइए

मीर अमदन भी कोई मरता है
जान है तो जहान है प्यारे

मेरे तग़यीर-ए-हाल पर मत जा
इत्तेफ़ाक़ात हैं ज़माने के

सरहाने मीर के आहिस्ता बोलो
अभी टुक रोते-रोते सो गया है

सह्ल है मीर का समझना क्या
हर सुखन उसका इक मक़ाम से है

यरान-ए-देर-ओ-काबा दोनों बुला रहे हैं
अब देखें मेरा अपना जाना किधर बने है

मर्ग-ए-मजनूँ से अक़्ल गुम है मीर
क्या दिवाने ने मौत पाई है

आगे कसू के क्या दें दस्त-ए-तमादराज़
वो हाथ सो गया है सराहने धरे हुए

पैदा कहाँ हैं एसे परागन्द तबआ लोग
अफ़सोस तुमको मीर सोहबत नहीं रही

सब मज़े दरकिनार आलम के
यार जब हमकिनार होता है

मेरा शेर अच्छा भी ज़िद से
कसू और का ही कहा जानता है

कोहकन क्या पहाड़ तोड़ेगा
इश्क़ ने ज़ोर आज़माई की

फिरते हैं मीर ख्वार कोई पूछता नहीं
इस आशिक़ी में इज़्ज़त-ए-सादात भी गई

हम कभू ग़म से आह करते थे
आसमाँ तक सियाह करते थे

दिल गया, रुसवा हुए, आखिर को सौदा हो गया
इस दो रोज़ह ज़ीस्त में हम पर भी क्या क्या हो गया

आने के वक़्त तुम तो कहीं के कहीं रहे
अब आए तुम तो फ़ाएदा हम ही नहीं रहे

उन ने देखा जो उठ के सोते से
उड़ गए आईने के तोते से