राहत को क़रीब तीन दहाइयों से देख रहा हूँ, सुन रहा हूँ और उससे मिल भी रहा हूँ-वो अक्सर दोस्तों और अपने चाहने वालों की भीड़ में घिरा रहता है। उससे हर मेयार के लोग मिलते हैं और वो उनसे उन्हीं के मेयार की गुफ़्तगू करता है। वो सिर्फ़ शायरों और मुशायरों की बातें नहीं करता, तमाम अहम मसाइल पर फ़िक्र अंगेज़ गुफ़्तगू भी करता है। वो ख़ुद भी हँसता है और नए-नए लतीफ़े सुनाकर सबको हँसाता भी रहता है।
वो अक्सर हूँ, हाँ से भी काम चला लेता है और दूर कहीं किसी फ़िक्र की परवाज़ में, किसी सोच की गहराई में डूबा हुआ महसूस होता है। बज़ाहिर वो हर एक से ख़ुश नज़र आता है लेकिन इस समाज और मुआशरे से कितना नाराज़ है। इसका अंदाज़ा नाराज़ के मुतालए से होता है। किताब का नाम 'नाराज़' सुनकर मुझे अजीब सा महसूस हुआ था, लेकिन इसे पढ़कर ऐसा लगा जैसे इससे अच्छा दूसरा नाम हो ही नहीं सकता था। नाराज़ में राहत का असरी कर्ब, सियासी रुजहानात, फ़िक्र और ख़्याल की बलंदी, ख़ुद एतमादी और राहत का जज़्बा ए हुब्बुलवतनी, अपने मुनफ़रिद अंदाज़ में मौजूद है। उसकी नज़र में ज़र्रा भी है और आफ़ताब भी, वो घरों में रहने वाली िचडि़या को भी बग़ौर देखता है और पहाड़ की चट्टान पर बैठे हुए अक़ाब से भी नज़रें मिलाता है। उसके सामने जुगनू भी है और चाँद भी, उसके सामने आँसू की एक बूँद भी है और लहरें मारता हुआ समन्दर भी। वो तूफ़ानी हवाओं से टकराने और रेगिस्तान की गर्म रेत पर आसानी से चलने का हुनर जानता है। उसकी नज़र में शाख़ से जुदा होता हुआ ख़ुश्क पत्ता भी है और रंग-बिरंगे फूलों की ख़ुशबू से महकता हुआ गुलज़ार भी। कभी वो अँधेरों और तूफ़ानों से लड़ता है, कभी समन्दर को चैलेंज देता है और कभी आग उगलते हुए सूरज को ललकारता है। कभी वो मुल्लाओं से मुख़ातिब होता है कभी महनतकशों और मज़दूरों से बातें करता है। ख़ुद्कुशी पर मजबूर किसानों के झोपड़े और खेत भी उसकी नज़र में हैं और बगैर कुछ किए करोड़ों के मालिक बने बैठे सफ़ेदपोशों के महल भी। राहत जितनी गहराई और तीखेपन से शेर कहता है उतनी ही शिद्दत से उसे सुनाता भी है। जब वो शेर सुनाने खड़ा होता है तो ऐसा महसूस होता है िक उसका हर मू ए तन शेर सुना रहा है- लोग उसकी कड़वी, तीखी बातों का बुरा नहीं मानते, वो जानते हैं कि उसका दिल साफ़ है। वो बरबादी नहीं, तामीर चाहता है। वो ख़ौफ़ ओ दहशत नहीं अम्न और सुकून का ख्वाहाँ है। वो आज़ाद हिन्दुस्तान में सबको उनका हक़ दिलाना चाहता है। वो चाहता है उसके वतन का हर बाशिन्दा इज़्ज़त की पुरसुकून ज़िन्दगी जिए। इसीलिए लोग उसकी सख्त बातों को न सिर्फ़ सुनते हैं बल्कि उसे दादओतहसीन से नवाज़ते भी हैं। आइए 'नाराज़' से चन्द मुन्तख़िब अशआर देखें-
कर्ब और बेजारी
मैं बस्ती में आख़िर किससे बात करूँ मेरे जैसा कोई पागल भेजो ना
कई दिन से नहीं डूबा ये सूरज हथेली पर मेरी छाला पड़ा है
ऐ मेरे दोस्त तेरे बारे में कुछ अलग राय थी मगर तू भी
आजिज़ी, मिन्नत, ख़ुशामद, इलतिजा और मैं क्या क्या करूँ मर जाऊँ क्या
मैं सोचता हूँ कोई और कारोबार करूँ किताबें कौन ख़रीदेगा इस गिरानी में
तेरी दुश्मन है तेरी सादालुही मेरी माने तो कुछ दुश्वार हो जा
हक़ शोआरी और हक़ीक़त पसन्दी ----------------- वो मेरी हमदम होने न पाई जो मेरी हमसफ़र कर दी गई है
लोग होंठों पे सजाए हुए फिरते हैं मुझे मेरी शोहरत किसी अख़बार की मोहताज नहीं
है ग़लत उसको बेवफ़ा कहना हम कहाँ के धुले धुलाए थे
आज काँटों भरा मुक़द्दर है हमने भी गुल बहुत खिलाए थे
सियासी रुजहानात ---------- टूट रही है हर दिन मुझमें इक मस्जिद इस बस्ती में रोज़ दिसम्बर आता है
गुज़ारिशों का कुछ उस पर असर नहीं होता वो अब मिलेगा तो लेहजा बदल के देखूँगा
ख़ुदऐतमादी -------------- ख़ूब बातें रहेंगी रस्ते भर धूप से दोस्ताना रक्खा जाए
अपने रस्ते बनाए ख़ुद मैंने मेरे रस्ते से हट गई दुनिया
चाँद-सूरज कहाँ अपनी मंज़िल कहाँ ऐसे-वैसों को मुँह मत लगाया करो
चाँद ज़्यादा रोशन है तो रहने दो जुगनू भैया जी मत छोटा किया करो
रंगे तसव्वुफ़ ------ हर मुसाफ़िर है सहारे तेरे कश्ती तेरी है किनारे तेरे
एक ख़ुदा है एक पयम्बर एक किताब झगड़ा तो दस्तारों का है मौला ख़ैर
अपना मालिक अपना ख़ालिक़ अफ़ज़ल है आती-जाती सरकारों से क्या लेना
इसी से क़र्ज़ चुकाए हैं मैंने सदियों के ये ज़िन्दगी जो हमेशा उधार रहती है
हुब्बुलवतनी ------------ मुझको दुनिया बुला रही है मगर मुझसे हिन्दोस्तान लिपटा है
सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है
'नाराज़' के मुतालऐ से मालूम होता है कि राहत जो देखता है, जो महसूस करता है उसे अपने अन्दाज़ में अशआर का लिबास पहनाता है सिर्फ़ आवाज़ और अन्दाज़े बयाँ के बल पर कोई तवील अरसे तक सबसे ऊँचे मुक़ाम पर क़ायम नहीं रह सकता। कुछ लोग राहत पर इल्ज़ाम लगाते हैं कि वह ऐसा है, वह ऐसा है- वह ये करता है, वह ये करता है- लोग जो कुछ कहते हैं सब दुरुस्त, लेकिन अगर उसके अशआर बेजान होते, अगर उसकी शायरी में दम न होता तो वो इतने लम्बे अरसे तक शोहरत की बलन्दियों पर क़ायम नहीं रह सकता था।
उसकी इज़्ज़त, उसकी शोहरत में रोज़- बरोज़ इज़ाफ़ा हो रहा है। अब वो सिर्फ़ हिन्दोस्तान या एशिया का शायर न होकर दुनिया में जहाँ-जहाँ उर्दू-हिन्दी बोली और समझी जाती है उन तमाम मुमालिक का मक़बूल तरीन शायर बन चुका है।