लाज़िम था के देखो मेरा रस्ता कोई दिन और तन्हा गए क्यों? अब रहो तन्हा कोई दिन और
Aziz Ansari
WD
ये पूरी ग़ज़ल आरिफ़ की जवाँ मौत पर लिखी गई है। ये ग़ज़ल की शक्ल में एक मरसिया है। आरिफ़ जो ग़ालिब को बहुत ज़्यादा अज़ीज़ था, जब उसका भरी जवानी में इंतिक़ाल हुआ तो ग़ालिब ये कहे बग़ैर नहीं रह सके के तुम्हें इतनी जलदी नहीं मरना चाहिए था, कुछ दिन इंतिज़ार करते और मेरे साथ चलते। लेकिन तुम तो अकेले चले गए। अब अकेले चले गए हो तो वहाँ अकेले ही रहो। जब तक मैं इस दुनिया को ख़ैरबाद कहकर न आ जाऊँ।
मिट जाएगा सर गर तेरा पत्थर न घिसेगा हूँ दर पे तेरे नासिया फ़रसा* कोई दिन और---------माथे को रगड़ने वाला
मैं तेरे दर पर अपनी पेशानी बराबर पटक रहा हूँ। अगर तेरे दर का पत्थर नहीं घिसेगा तो मेरा सर ख़त्म हो जाएगा। इसलिए मैं तेरे दर पर बस कुछ ही दिन और अपनी पेशानी को रख पाऊँगा।
आए हो कल और आज ही कहते होके जाऊँ माना के हमेशा नहीं अच्छा कोई दिन और
इस दुनिया में तुम कल ही तो आए हो और आज जाने की बात कर रहे हो। हम ये बात तसलीम किए लेते हैं के दुनिया में हमेशा कोई नहीं रहता है। लेकिन इतनी भी क्या जल्दी है, अब आए हो तो कुछ दिन तो यहाँ और रहो।
जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे क्या ख़ूब क़यामत काहै गोया कोई दिन और
तुम जा भी रहे हो और ये भी कह रहे हो के क़यामत को मिलेंगे। तुम्हारे लिए क़यामत कभी आएगी। मेरे लिए तो यही क़यामत है के तुम जा रहे हो। जिस दिन तुम जा रहे हो मेरे लिए तो यही क़यामत का दिन है।
हाँ हाँ के फ़लक पीर जवाँ था अभी आरिफ़ क्या तेरा बिगड़ता जो न मरता कोई दिन और
ऎ बूढ़े आसमान मेरा आरिफ़ तो अभी जवान था अगर वो कुछ दिन और ज़िन्दगी जी लेता तो तेरा क्या बिगड़ जाता।
तुम माहे-शबे-चार दहम थे मेरे घर के फिर क्यों न रहा घरका वो नक़्शा कोई दिन और
ऎ आरिफ़ तुम तो मेरे घर के चौधवीं के चाँद थे। तुम्हारे जाने से घर की सारी रौनक़ चली गई। घर का वो नक़्शा ही बिगड़ गया तो तुम्हारी मौजूदगी से था। क़ाश ऐसा होता घर का वो नक़्शा कुछ दिन तक तो वैसा ही बना रहता।
तुम कौन से थे ऐसे खरे दाद-ओ-सतद के करता मलाकुलमौत तक़ाज़ा कोई दिन और
ऎ आरिफ़ तुम लेन-देन के ऐसे कौन से खरे थे के जिसने जो माँगा तुमने उसे देक दिया। मौत का फ़रिश्ता तुम्हारे पास आया था तो उसे टाल देना चाहिए था। वो तो फिर आता और तुम से बार बार तक़ाज़ा करता अपने साथ लेजाने के लिए। ऐसा लगता है तुम्हे ही उसके साथ जाने की बहुत जल्दी थी।
मुझ से तुम्हें नफ़रत सही नय्यर से लड़ाई बच्चों का भी देखा न तमाशा कोई दिन और
मैं मानता हूँ तुम मुझे पसन्द नहीं करते थे और नय्यर से भी तुम्हारी लड़ाई थी। लेकिन घर में बच्चे भी थे कम से कम उनका तमाशा उनकी शरारतें ही घर में तुम कुछ दिन तक और देखते।
गुज़री न बहरहाल ये मुद्दत ख़ुश-ओ-नाख़ुश करना था जवाँ मर्ग, गुज़ारा कोई दिन और
ऎ आरिफ़ इस दुनिया में तुम ख़ुश-नाख़ुश रहे और जिस तरह भी ज़िन्दगी गुज़री गुज़ारते रहे, इसी तरह कुछ दिन और यहाँ रह लेते, कुछ दिन और गुज़ारा कर लेते।
नादाँ हो जो कहते हो के क्यों जीते हो ग़ालिब क़िस्मत में है मरने की तमन्ना कोई दिन और
ऎ लोगों! तुम बड़े नादान हो जो ये कहते हो के मैं क्यों जी रहा हूँ जबके जवाँ आरिफ़ अब यहाँ नहीं है। ऎ लोगो मैं इसलिए नहीं मर सका के मुझे अभी मरने की तमन्ना करना कुछ और दिनों के लिए मेरी क़िसमत में लिखा है।