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रमेश सिन्हा नसीम1.
बे का जान ए दोस्ती बे का जाने प्यार
एक हाथ में फूल है दूजे में तलवार
का उपजत है कोख में अब ये देखा जाए
बेटा है तो ख़ैर है बेटी जनम न पाए
नीम करेला हो गए जिन लोगन के बोल
दाता उनकी जीभ पे कुछ तो मीठा घोल
चल गोरी बा देस में आँख हरी हो जाए
ऐसे में कैसे रहें पेड़ दाँतरू खाए
गाँव छोड़ के मैं चला पल पल मन घबराए
जैसे आगे पग धरूँ एड़ी मुड़-मुड़ जाए
माँ बाँटी दो भाग में दिल पे गाढ़े तार
बड़ा रहे इस पार तो छोटा है उस पार
हर दिन माटी खोद के ऐसे भए निहाल
सारा जीवन खा गए लकड़ी आटा दाल
समय बड़ा बलवान है छोड़े ऐसे तीर
सोने में तोले कभी कर दे कभी फ़क़ीर
दया-धरम को आज तो दिया सभी ने छोड़
नस-नस में से ख़ून को हँस-हँस लिया निचोड़
सुनकर मेरी बात को ख़ून गया था खोल
नीम-करेला हो गए साँचे साँचे बोल
क़र्ज़ बक़ाया बाप का था बेटे के नाम
काट अँगूठा ले गया बेटा बना ग़ुलाम
दरदों की दीवार पर नासूरी ऐ फूल
हर दिन शबनम आँख की धोती रहती धूल।
ग़ज़ल
कभी-कभी वो सोते-सोते हँसता भी है रोता कुछ
हाथ उठाकर पैर चलाकर गूँ गूँ करता बच्चा कुछ
झूठ-झूठ ही कहते-कहते लोग तो सारे चले गए
तेरी झूठ को मैं ने माना लेकिन सच्चा-सच्चा कुछ
बातें उसकी कड़वी-कड़वी लेकिन कुछ हैं मीठी भी
कड़वा-कड़वा भूल गया हूँ याद रहा बस मीठा कुछ
यादों की परतों से छनकर सोया माज़ी जाग उठा
प्यारी-प्यारी बातें उसकी भोला-भाला चेहरा कुछ
आँखों की पलकों पर वो तो आते-आते सरक गई
नींद ने शायद ढूँढ लिया है दूजा रैन-बसेरा कुछ
चाँदी की ये सड़क तो जाती सरक-सरक कर चंदा तक
रोज़ रात में देखा करता बैठा-बैठा बच्चा कुछ
उबले जो अल्फ़ाज़ ज़ेहन में लिख डाले सब काग़ज़ पर
कैसा हसीं ये गीत हुआ है ताज़ा ताज़ा ताज़ा कुछ
फ़ाक़ों के वो दिन तो सारे जाने कब के हवा हुए
हर दिन पेट को मिलता रहता रूखा-सूखा बासा कुछ
दिल ने दिल से बातें कीं तो तार जिस्म के झनक उठे
साँसें सारी महकी-महकी दिल भी नाचा-कूदा कुछ।