भारतीय राजनीति में उत्तरप्रदेश का हमेशा से ही बड़ा महत्व रहा है। यहां के राजनीतिक समीकरणों और परिदृश्य पर पूरे देश की निगाहें इसलिए भी हैं क्योंकि इस चुनाव में कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी, सपा के युवा चेहरे अखिलेशसिंह और बसपा की महारानी मायावती के बीच मुकाबला है।
भाजपा की संन्यासिन उमा भारती के इस मुकाबले में आने से रोमांच अपने चरम पर पहुंच गया। कुछ राजनैतिक पंडित इस चुनाव को 2014 में होने वाले लोकसभा चुनावों का सेमीफाइनल बता रहे हैं तो कुछ आंकने में लगे हैं कि क्या अन्ना के आंदोलन से कांग्रेस को नुकसान हुआ है।
सात चरणों में मतदान के बढ़े प्रतिशत को देखकर कई सर्वेक्षणों में कयास लगाए जा रहे हैं कि मायावती की सोशल इंजीनियरिंग इस बार फीकी पड़ती नजर आ रही है। सर्वेक्षणों के अनुसार राजनीति के युवा खिलाड़ी सपा के अखिलेशसिंह की दागी उम्मीदवारों को मौका न देकर छवि सुधारने की कवायद ने समाजवादी पार्टी को उप्र में सबसे अधिक सीटों का आंकड़ा देकर निकट भविष्य के राजनीतिक समीकरणों की चकरी को और तेज कर दिया है।
'युवराज, नहीं तो गवर्नर राज' : किसी एक पार्टी के बहुमत में आने की संभावना को नकारे जाने के बाद ही से उप्र में एक नारा गूंज रहा है कि 'युवराज, नहीं तो गवर्नर राज'। इसे आने वाले समय में राष्ट्रपति शासन का भी स्पष्ट संकेत माना जा रहा है।
कांग्रेस कतई नहीं चाहेगी कि उत्तरप्रदेश में उसके दखल के बिना कोई सरकार बने। राहुल गांधी के लिए उप्र प्रतिष्ठा का प्रश्न बना हुआ है। चुनाव प्रचार में राहुल ने आश्चर्जनक आक्रामकता दिखाई, लेकिन सात चरणों का मतदान खत्म होते-होते कांग्रेस के तेवर भी ढीले पड़ने लगे थे और पार्टी में कहा जाने लगा है कि अगर अपेक्षाकृत सफलता नहीं मिली तो राहुल जिम्मेदार नहीं होंगे। राहुल और कांग्रेस महासचिव दिग्विजयसिंह उप्र में खुद को किंगमेकर की भूमिका में देखना चाहते हैं और वह तभी संभव है जब उनके पास 80-100 सीटें हों।
सांप्रदायिक ताकतों को उप्र में रोकने के लिए और हाथी को काबू में करने के लिए दिल्ली और इटावा की गलियों में केंद्र के बदले राज्य में समर्थन का गणित समझाया जा रहा है। लाभ और हानि के इस गुणा-भाग में अनुमान लगाया जा रहा है कि समाजवादी पार्टी अपने दम पर 175 या इससे ज्यादा सीटें हासिल करती है तो निर्दलीय नेताओं को मिलाकर सरकार बनाई जा सकती है, लेकिन सर्वेक्षण के मुताबिक 175 का आंकड़ा सपा के लिए मुश्किल है और उसे कांग्रेस का 'हाथ' थामना ही पड़ेगा। मुलायमसिंह सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि उन्हें कांग्रेस का साथ लेने में कोई हर्ज नहीं, लेकिन बाद में उन्होंने इस बयान को बदल दिया था।
कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच तल्खी बढ़ने के बीच बसपा और भाजपा के गठजोड़ की संभावनाएं बन रही हैं। बहुजन समाज पार्टी ने 2009 के विधानसभा चुनाव में सारे सर्वेक्षणों को धता-बताते हुए 207 सीटें जीत सरकार बनाई थी। लेकिन इस बार अंदर की खबर बताती है कि हाथी कमजोर हुआ है। बदलते परिदृश्य में बसपा-भाजपा गठजोड़ बन सकता है। लेकिन भाजपा और बसपा के पिछले अनुभव खटास से भरे हैं।
पल-पल बदलते समीकरणों में छोटे दल और निर्दलीय उम्मीदवार महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। किसी भी दल द्वारा स्पष्ट बहुमत न पाने की स्थिति में उप्र में राष्टपति शासन लगाए जाने के कई परिणाम हो सकते हैं। इस बड़े प्रदेश में दोबारा चुनाव करवाना भारी चुनौती है, जिसे स्वीकार करने लिए सभी दल सौ बार विचार करेंगे। जनता भी एक और चुनाव कतई स्वीकार नहीं करेगी।
सभी समीकरणों में पंजाब, उत्तराखंड और गोवा के नतीजे भी एक महत्वपूर्ण कारक रहेंगे। बहुमत की नाउम्मीदी में अधिक संभावना किसी गठजोड़ की ही बन रही है, बस अब देखना यह है कि सत्ता का सेहरा किसके सिर बंधता है।