जिज्जी का कारनामा

मैं न तो कोई हास्य-व्यंग्य सुना रही हूँ और न ही ऐसा लिखना मेरी रुचि है। सीधे कहूँ तो मैं व्यंग्यकार नहीं हूँ, किन्तु जो भी कह रही हूँ, अक्षरशः सत्य है। शत-प्रतिशत सही है। अभी, हम लोग कुछ दिनों के लिए भोपाल से बाहर गए थे। जब लौटकर आए तो ज्ञात हुआ, बाई काम छोड़कर चली गई। नए सिरे से काम वाली बाई की खोज शुरू हुई। हमारा प्रयास सफल हुआ।

बाई आई, खुशी हुई। मैंने सोचा पहले इसे काम के और समय के विषय में समझा दूँ, इसकी पगार तय कर दूँ। बाई बोली, "बैनजी पगार क्या तय करना, जो रेट होगा, वही तो माँगूँगी। बस, दिवाली-सावन पर नई साड़ी और चूड़ी-बिन्दी के पैसे और कुछ नहीं। दिवाली पर बर्तन भाण्डे नहीं लूँगी, घर ढेर भरे हैं। एक महीने की तनख्वाह का बोनस दे देना। छुट्टी के पैसे कटेंगे नईं।"

मैं उसके फैसले को सुनकर कुछ चौंकी, पर मुझे लगा काम करते-करते मेरे व्यवहार से खुश रहेगी, तो रुखाई से बात करना भूल जाएगी। मैंने कहा, ''हाँ चलो, तुम्हारी शर्त मंजूर। अब बैठ जाओ बर्तनों के पास।" वह बोली, "अरे बैनजी, हमने अपनी बात अबे कई ही काँ। काम तो हम करेंगे ही, हमरी एक अरजी ओर सुन लेव।" मैंने कहा, "हाँ-हाँ कहो ना।" वह बोली, "अव्वल तो हमें बाई नई कइयो। हमरो नाम शगुनी है।" मैंने कहा, "हाँ सकुनि...।" वह तुरंत बोली, "नई-नई, सकुनि तो महाभारत के मामा आंय। हमरो नाम शगुणी, समझो सबई गुण।"

मैं खुश हुई। बर्तन वाली विदुषी महिला है, अच्छी बात है। फिर वह बोली, "तो नाम लेत जाओ। नई तो जिज्जी भी के सकत हो।" मैंने कहा, "चलो जिज्जी अपनी बात कहो।" वो बोली, "बैनजी, हम चैत्र और कुवार की नवरातन में देवी पूजन अपने गाँव जात हैं। बीना में रेल से उतरकर गाँव बहुतैं दूर है। मानो जाबे के दो दिना, आबे के दो दिना। देवी पूजन के दो दिना। वै सात-आठ दिना लगैं।"

मुझे लगा, क्या बुरा है, सालभर में दो बार आठ-आठ दिन। कोई परेशानी की वजह नहीं है। मैंने सिर हिला दिया। उसे भीतर आने की बात कही। जिज्जी बोली, "अभी बात पूरी तो भई नई। हम के रहे थे, चार इतवार तो हमारी पूरी छुट्टी चायने। गरीब आदमी, हफ्ता के लावें, हफ्ता को खावें। हाट बाजार को दिन महँगो-सस्तो मिल जावे।" मुझे यह सौदा भी मंजूर हुआ। "अब तो चलो भीतर...," बोलती हुई मैं कमरे में आ गई। वह वहीं खड़ी रही, जोर से बोली, "बैनजी! बात पूरी तो सुन लेव। दशहरा-दिवाली की पूरी छुट्टी। एक तनक-सी अरजी और है। मोरी सास मरते मोहे ग्याहरस दे गई थी। ग्याहरस के दिना रोटी पकाने के बर्तन माँज देऊँ, पर खाने की झूठी थाली कटोरी-गिलास नई छूती। बरत टूट जायगो। पाप लगेगो।"

मैंने उसकी यह बात भी मान ली। फिर मैं बोली, "चलो भीतर, मुझे दूसरे काम हैं...।" वह फिर बोली,"बैनजी हमरी बात पूरी तो होन दो। हम माँज देंगे बर्तन, काहे बिलम रही हो।" मैंने कहा, "बोलो", वह बोली,"बैनजी! खुसी को मूरत है। हम छुट्टी लें और तुम दुःखी हों। बात जा है कि हमरी नातिन का लगुन है जै देवउठनी ग्याहरस को। हमरी मोड़ी भात न्यौतने आयेगी। सबई रिश्तेदारन के घर उके संगात जाऊँगी। चार दिना की तब छुट्टी करूँगी, फिर तो मैं छुट्टी लेहूँ ही नईं। कौन मोरे दूध पीते बच्चे हैं? मैं तो रोज बर्तन करवे आऊँगी। बस, नातिन की सादी की दस दिना छुट्टी ली, फिर कौन छुट्टी लूँगी।"

मैंने मन में सोचा, बात तो सही कह रही है। बेटी के घर शादी हो और माँ सम्मिलित न हो! मैंने कहा,"शगुना जिज्जी चलो! बर्तन माँजें।" मैं भीतर आने लगी। वह स्वगत ही बतियाने लगी जोर से, फिर बोली,"बैनजी छुट्टी लेवो को मोहे कौनू शौक नईं। काम पर नईं जाऊँ, तो बदन पिरात है, पर बीमार ही हो जाऊँ तो छुट्टी लेहूँ। बैनजी, जा देख रईं हों ना, आँखन में लाल डोरा हो गए। आँख की बीमारी में छुट्टी मिलत है। दो आँखन के दस दिन जै हो गए।"

आँख की बीमारी सुनकर मैं घबरा गई। मैंने कहा,"ठीक है, आँख आ जाए तो तुम मत आना। जिज्जी ! अब तो शुरू करो काम!" वह साड़ी खोसने का उपक्रम कर रही थी, बोली,"बैनजी, हमारो मोबाइल नम्बर लिख लेव। जब तुम्हें कहीं जाना होय तो बता दियो, नईं तो हम इतनी दूर चलकर आंय और घर पर बड़ो सो तालो लटको मिले। फिर हमारो मूड अपसेट हो जात है। हाँ बैनजी, जो मोबाइल हमरी सुविधा के लाने है। तुम जा पर फोन न करियो कि देर क्यों कर दी, आई क्यों नहीं।"

उसकी यह बात सुनकर मैं भौंचक्क रह गई। मैं कहाँ इसकी बातों में आ गई! भीतर आते-आते बोली,"बैनजी, हमरे माँ-बाप ने तो हमें बड़े लाड़ से पाला है। आदमी की पौआ की आदत ने जा दिना दिखा दिए। नाजुक शरीर है हमरो। सर्दी-गर्मी कछु सहन नई होत। सर्दी में ठंडो पानी में हाथ पड़ते ही हमरी नाक टपकन लगत है। गरम पानी से बर्तन धोऊँगी। बस तुलसी की कड़क चाय एक गिलासिया, फिर तुम्हारी आफत नई पड़ने देऊँ। बासी बचा नई ले जात। किसी का पका नईं खात हूँ। त्योहार पर कच्चो दाल-चावल आटो, माने सीधा दे दियो, बस!"

बर्तनों के पास खड़ी होकर फिर पूछने लगी,"जे हौदी से पानी लेने का? ऊपर टंकी नईं है! हमरी तो कमर पिरारई, हम पानी तो नईं निकाल सकत। हम तो चलते नल में बर्तन धोत हैं। रोज नल नईं आत हैं का? हम तो जै काजे से सिरफ चार घर काम करत हैं, ज्यादा का लालच नईं आय।" फिर बर्तन देखकर कहने लगी,"ज्यादा बर्तन नईं करना, मेहमान के बर्तनों के अलग से पैसे लेऊँगी। मोसे ज्यादा काम नईं बनत...।"

मुझे अपने आप पर खीज आई। गुस्से में मैंने कहा,"सुगना जिज्जी, तेरा घर कहाँ है, चल मैं तेरे घर के बर्तन माँज आऊँ।" वह बड़े ही सहज, भाव से बोली, "नईं, हमरे घर के बर्तन, कपड़ा तो मोरो आदमी और मोड़ई कर लेत हैं। मैं तो अपने शौक के काजे चार पैसा कमान चाहत हूँ।"

मुझे लगा सबसे पहले मैं उन चार घरों में जाऊँगी। वे कितने महान हैं, जिज्जी से काम करवा रहे हैं! मैं चौके में गई, तब तक वह बड़बड़ाते हुए निकल गई, 'अरे हौदी से बार-बार पानी कौन निकालेगा? ऐसे काम तो हम नईं करत। हमरे पास मुलक काम हैं, मुलक घर हैं। बहते पानी में जिनके घर काम मिलेगा, वहीं काम करेंगे। काम की का कमी है...।' बर्तनों का ढेर देखकर मेरे हाथ से कलम खिसक रही है। मुझे बिना शर्त के ही बर्तन मांजना हैं...!

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