ब्रितानी लेखिका व पत्रकार ऐंजेला हथ ने स्वयं के बारे में एक दिलचस्प बात बताई है। वे कहती हैं कि वे दिनों और महीनों को रंग में महसूस करती हैं। जैसे बुधवार तो वे कहेंगी बुधवार लाल है या रविवार पीला है या जुलाई तो हरे रंग का महीना है। सामान्य आदमी के द्वारा समझने के लिए यह थोड़ा जटिल है, क्योंकि यह सिर्फ एक एहसास है, इसे भौतिक रूप से बताया नहीं जा सकता, जो यह बात महसूस करते हैं वही इसे जान सकते हैं।
फिर इसलिए भी आम आदमी के लिए यह समझना मुश्किल है कि दुनिया में यह सिंड्रोम बेहद ही गिने-चुने लोगों को होता है। इस सिंड्रोम का नाम है सिनेस्थेशिया। जिन्हें सिनेस्थेशिया होता है उन्हें दिनों, महीनों, वार में ही नहीं अक्षरों, संगीत की स्वरलहरियों आदि में भी रंगों का बोध हो सकता है। जैसे कि किसी सिनेस्थेटिक व्यक्ति को यह लग सकता है अ यानी नारंगी अक्षर, ब यानी धूसर, स यानी रजत इत्यादि।
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विशेषज्ञ कहते हैं कि यह एक न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर है। मगर सिनेस्थेटिक लोग इसे डिसऑर्डर मानने से इंकार करते हैं। वे कहते हैं- यह तो बहुत ही मजेदार है और जिन्हें ऐसा नहीं होता उन्हें कितना खाली-खाली लगता होगा? इन लोगों की राय से इत्तफाक रखने को मन करता है। इसमें कोई तकलीफ तो है नहीं जो इसे बीमारी मानें! बल्कि थोड़ा दिमाग पर जोर देने पर लगता है कि यह भी क्यों माना जाए कि यह सिंड्रोम दुनिया में बहुत कम लोगों को है।
दरअसल हम सभी कहीं न कहीं अभिव्यक्ति की व समझने की आसानी के लिए जो चीजें भौतिक रूप से दिखती नहीं हैं उन्हें रंगों से जोड़ते हैं। जैसे अंग्रेजी में ईर्ष्या हरे रंग से जुड़ी है। आप एन्वी से ग्रीन होते हैं। वहां ईर्ष्यालु व्यक्ति ग्रीन आईड है। ब्ल्यू का मतलब उदासी है, डिप्रेशन है। क्रोध का रंग हमारे यहां भी लाल है। श्वेत शांति का प्रतीक है। अधिकांश संस्कृतियों में पत्ती वाला हरा रंग उल्लास का प्रतीक है।
त्योहारों के भी रंग हैं। अभी-अभी वसंत पंचमी गई है, इस त्योहार का रंग पीला-केसरिया माना गया है। बहुत से लोग इस दिन पीले-केसरिया रंग के वस्त्र पहनते हैं। घरों में केसरिया भात बनाया जाता है। किसी समय होली के साथ ही सुर्ख पलाश के रंग याद आते थे। फूल के मनमोहक रंग में एक-दूसरे को भिगोया जाता था। मगर आज होली रंगों का नहीं बदरंग, बेमजा होने का त्यौहार है।
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खैर, बात तो यह थी कि हम सभी जीवन में कई बातों को रंगों से जोड़ कर देखते हैं और भावनाओं को रंगों में अभिव्यक्त भी करते हैं। कभी-कभी दो सहेलियाँ कहती हैं आज तो हम दोनों एक जैसे रंग के कपड़े पहनेंगे। ऐसा कहकर वे एक-दूसरे के प्रति लगाव को प्रदर्शित करती हैं, रंग के माध्यम से। कभी-कभी किसी ऑफिस पार्टी या किसी पारिवारिक उत्सव में किसी रंग की थीम दी जाती है तो सभी उस रंग के कपड़े पहन कर आते हैं इससे एक अलग तरह के अपनत्व और जुड़ाव का माहौल बनता है।
आखिर रंगों से ही तो जिंदगी है। उगते सूरज के समय आकाश का रंग, पत्तियों, फूलों और पंछियों के रंग इन सबसे जीवन कितना सुंदर बन जाता है। यदि हम पंछी के ही नहीं उसके गीतों के भी रंग महसूस करने लगें, बच्चों की हंसी में रंगों का अनुभव करने लगें, किसी के दुःख का धूसर रंग पकड़ पाएं तो हमारी संवेदनशीलता में और इजाफा होगा। रंग दुनिया को बेहद हसीन बनाते हैं।
हमारी संवेदनशीलता में इजाफा हो तो हम यह भी समझ पाएंगे कि जो रंग नहीं देख पाते उनकी दुनिया कितनी अधूरी है। यह अनुभव करने के पश्चात शायद हम मृत्योपरांत नेत्रदान अवश्य करने का निर्णय लें। यह अनुभव करने के पश्चात शायद हम किसी विधवा स्त्री से या बुजुर्ग स्त्री-पुरुषों से हर वक्त बेनूर, बेरंग वस्त्र ही धारण करने की अपेक्षा न रखें। रंगों का आनंद लेने का हक सबको है। समाज को इसमें बाधा नहीं बनना चाहिए, न ही अपने तानो-तश्कों से किसी को छलनी करना चाहिए। आपका रंग, आपकी मर्जी। आखिर यह भावना का मामला है।