कभी-कभी इंसान की कही हुई बात बिलकुल सच साबित हो जाती है। जो वह चाहता है वही हो जाता है। ऐसा ही कुछ हुआ था पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के साथ।
एक बार मशहूर साहित्यकार व फिल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास से वे बातें कर रही थीं- कुछ हँसी की, कुछ इधर-उधर की, तभी कौन, कैसे मरना चाहता है, इस विषय पर बात चली। उन्होंने अब्बास साहब से पूछा, 'आप कैसे मरना चाहेंगे?' अब्बास साहब ने जवाब दिया- 'मैं सोते-सोतेमरना चाहता हूँ। रात को सोऊँ और सवेरे जागू ही नहीं'। फिर इंदिराजी बोलीं- 'मैं कैसे मरना चाहती हूँ, बताऊँ?' 'बताइए' -अब्बास साहब ने कहा। तब हँसकर इंदिराजी ने बताया, 'भई मैं तो गाँधीजी की तरह मरना चाहती हूँ।
अपना काम करती रहूँ, चलती-फिरती रहूँ और कोई गोली मार दे। मैं बीमार होकर बिस्तर पर पड़ी बेबस हो सब देखती रहूँ और कुछ कर न सकूँ ऐसी मौत मैं नहीं चाहती। मैंने बाबा (नेहरूजी) को देखा है, कि कितनी तकलीफ से उनके प्राण निकले थे।'
उस समय किसी ने नहीं सोचा था कि श्रीमती इंदिरा गाँधी की यह बात सच हो जाएगी, पर ऐसा हो गया। क्या इसी को इच्छा-मृत्यु का वरदान कहते हैं।