56 वर्ष की शिरीन इबादी ने 2003 के नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त कर सारी दुनिया को हैरत में डाल दिया था। वकील, लेखिका, प्राध्यापिका के पद की मर्यादा निभाती तथा मानवीय अधिकारों की रक्षा के लिए सतत संघर्ष करती आ रही इस महिला ने नोबल शांति की दौड़ में चेक के पूर्व राष्ट्रपति हैवल तथा पोप जान पाल द्वितीय जैसे 164 दावेदारों को पीछे छोड़कर यह पुरस्कार प्राप्त किया था।
पुरस्कार मिलने पर देश की जनता ने तो उनका खुलकर स्वागत किया लेकिन सरकार ने इस घटना को एक राजनीति ही माना। इस्लामिक क्रांति के पूर्व डॉ. शिरीन जज के पद पर कार्यरत थी और उन्होंने क्रांति में बढ़ चढ़कर हिस्सा था लेकिन सत्ता में आए धर्मगुरुओं ने उन्हें जज के पद से हटाकर कानूनी सहायक का पद यह कहकर दे दिया कि महिलाएँ भावुक होती हैं तथा ऐसा महत्वपूर्ण पद नहीं संभाल सकती। शिरीन ने इस पद का स्वेच्छा से त्याग कर दिया। वे तेहरान विश्वविद्यालय में कानून भी पढ़ाती हैं।
शिरीन ने कई अन्यायपूर्ण कानूनों के विरोध में अपनी आवाज उठाई। दो ऐसे विद्रोहियों के कत्ल का मुकदमा लड़ा जिन्हें इस्लामिक सरकार का विरोध करने के कारण कत्ल कर दिया गया था। इसके पूर्व उन्होंने ऐसी बच्ची के लिए मुकदमा लड़ा जिसका कत्ल उसके पिता तथा सौतेले भाई ने कर दिया था। ईरान के कानून के अनुसार माता-पिता पर अपने बच्चों की हत्या का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता यानी माता पिता द्वारा बच्चे की हत्या जायज है। लेकिन फिर भी शिरीन उसके सौतेले भाई को सजा दिलवाने में कामयाब रहीं।
इस कानून के खिलाफ जनता का मत जानने के लिए उन्होंने अनोखा तरीका अपनाया। उन्होंने लोगों से अनुरोध किया कि अगर वे इस कानून के विरोध में हो तो सड़क पर सफेद फूल बिखेरें। इस घोषणा के कुछ देर बाद ही तेहरान की सड़कें सफेद फूलों से पट गईं।
शिरीन एक अत्यंत दृढ़ स्वभाव की महिला हैं, पूर्व में उनका साथ मेहरंगीज (वकील) तथा शाहील (प्रकाशक) जैसी दो महिलाओं ने दिया लेकिन बाद में दबाव में आकर शाहील ने तो आवाज उठानी ही बंद कर दी और मेहरंगीज अमेरिका में बस गईं। अब कमान अकेली शिरीन को संभालनी थी और उन्होंने बखूबी संभाली भी।
शिरीन ने 11 पुस्तकें लिखीं हैं जिनका अँग्रेजी में अनुवाद हो चुका है। अब भी ईरान में कई अन्यायपूर्ण कानून हैं लेकिन शिरीन आशावादी हैं कि स्थितियाँ बदल जाएँगी।