यह कटु सत्य है कि पुरुष प्रधान दुनिया में महिलाओं को आज भी वह सम्मान व हक प्राप्त नहीं है जो उन्हें होना चाहिए। देश की ही बात करें, तब सामाजिक स्तर पर आज भी महिलाओं को न जाने कितने प्रतिबंधों के परदों में रहना पड़ता है। अब बात राजनीति में महिलाओं के आरक्षण की चल पड़ी है। महिला आरक्षण बिल कई वर्षों से तैयार है, परंतु राजनीति में पुरुषों का दंभ और दादागिरी इतनी है कि वे महिलाओं के राजनीति में आने का न केवल विरोध कर रहे हैं, बल्कि वे यह बिलकुल भी नहीं चाहते कि महिलाएँ देश के लिए निर्णय कर सकें।
तमाम विरोध और समर्थनों के बाद महिला आरक्षण बिल फिर संसद की देहरी चढ़ रहा है। इस बार उसके समर्थन में कांग्रेस-भाजपा का अनूठा गठजोड़ भी शामिल है। इस आशाभरे गठजोड़ के भरोसे वह संसद में अपने भाग्य की प्रत्यंचा चढ़ा रहा है कि शायद इस बार महिलाओं को राजनीति में अपना हक प्राप्त हो सके! अगर इस बार यह हक प्राप्त हो गया तब अगले कुछ वर्षों में न केवल राजनीति बल्कि सामाजिक स्तर पर भी समानता की न केवल बातें होंगी बल्कि हम इसे यर्थाथ में होते हुए देखेंगे।
राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने 15 वीं लोकसभा के पहले सत्र में 4 जून 2009 को दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में घोषणा की थी कि सरकार द्वारा विधानसभाओं और संसद में महिला आरक्षण विधेयक को शीघ्र पारित कराने की दिशा कदम उठाए जाएँगे। राष्ट्रपति ने कहा था कि महिलाओं को वर्ग, जाति और महिला होने के कारण कई अवसरों से वंचित होना पड़ता है।
पहली बार 50 महिला प्रतिनिधि 15 वीं लोकसभा ने कई मायनों मे इतिहास रचा है। यह पहला मौका है जब संसद में प्रवेश करने वाली महिलाओं की संख्या 50 से अधिक है। सबसे बड़ी बात यह है कि भारत के इतिहास में पहली बार एक महिला को लोकसभा अध्यक्ष बनने का मौका मिला है। संसद में महिला आरक्षण का सवाल आज चर्चा का विषय है। संसद और विधानमंडलों में महिलाओं को भी 33 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने के उद्देश्य से 14 वीं लोकसभा में 108 वें संविधान संशोधन विधेयक ने देश के जनमत को फिर जाग्रत कर दिया था।
पहले भी हुए प्रयास लैंगिक असमानता दूर करने के मकसद से महिला आरक्षण विधेयक पहला प्रयास नहीं है। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने भी प्रधानमंत्रित्व काल में इस मुद्दे पर चिंतन किया था। पंचायती राज संस्थाओं और स्थानीय निकायों को संविधान में स्थान देने की योजना बनाते समय संसद और विधानमंडलों के लिए भी ऐसे कदमों की रूपरेखा बनी थी, लेकिन बाद में प्रयास फलीभूत नहीं हुआ।
महिला आरक्षण की त्रासदी देश की महिलाएँ पिछले एक दशक से अपना प्रतिनिधित्व बढाने की माँग कर रही हैं, लेकिन पुरुष प्रधान राजनीति संसद में महिला आरक्षण विधेयक पारित नहीं होने दे रही। यह अप्रत्याशित और सुखद है कि 15वीं लोकसभा में महिला वर्ग का प्रतिनिधित्व बढ़ा है। यह पहला मौका है जब 58 महिलाएँ लोकसभा में पहुँचीं। यह अब तक का सर्वाधिक आँकड़ा है।
इस बार कुल 556 महिलाएँ चुनाव के मैदान में उतरीं थी। उत्तरप्रदेश से सबसे ज्यादा 12, पश्चिम बंगाल से 7 और राजस्थान से 3 महिला सांसद चुनी गईं। 14 वीं लोकसभा में 355 महिलाएँ उम्मीदवार बनी थीं। इनमें से 45 ही लोकसभा की सीढ़ियाँ चढ़ पाई थीं। 543 सदस्यीय सदन का यह 10 फीसद भी नहीं था। नई लोकसभा में पिछले बार की तुलना में 13 महिलाएँ ज्यादा हैं, जो एक सुखद संकेत है।
मुद्दा एक दशक पुराना दस साल पहले महिलाओं को विधानसभा और संसद में 33 फीसद आरक्षण देने का मुद्दा उठा था, लेकिन महिला आरक्षण का यह ज्वलंत मुद्दा करीब एक दशक से किसी न किसी तरीके से लटकता रहा है। लगभग सभी राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणा-पत्र में महिला आरक्षण पर अमल का वादा किया जाता रहा है। प्रधानमंत्री रहते एचडी देवेगौड़ा और अटलबिहारी वाजपेयी ने भी महिला आरक्षण बिल पेश किया। इसे पारित कराने की कोशिश भी की गई, किंतु सफलता नहीं मिली। यह विधेयक 1996 से अब तक कई बार लोकसभा में पेश हो चुका है, लेकिन आम सहमति के अभाव में यह पारित नहीं हो सका। 12 वीं और 13वीं लोकसभा में दो बार बिल को पेश किया गया। इसके बावजूद आम सहमति न बन पाने के कारण महिला विधेयक को हमेशा ठंडे बस्ते में डाला जाता रहा।
विधेयक के रास्ते की बाधाएँ वर्तमान राजनीतिक समीकरण में रोचक तथ्य यह है कि संप्रग के समर्थन में राजग प्रमुख भाजपा अपना समर्थन लिए खड़ी है। वामदल भी आरक्षण विधेयक के समर्थक हैं। राजद, द्रमुक, पीएमके दलित, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए भी आरक्षण चाहता है। सपा भी कोटे में कोटे की पक्षधर है। इस विधेयक के रास्ते में कई तकनीकी परेशानियाँ हैं, क्योंकि यह संविधान में संशोधन करने वाला विधेयक है। 11वीं लोकसभा में पहली बार विधेयक पेश हुआ, तो उस समय उसकी प्रतियाँ फाड़ी गई थीं।
इसके बाद 13वीं लोकसभा में भी तीन बार विधेयक पेश करने का प्रयास हुआ, लेकिन हर बार हंगामे और विरोध के कारण इसे पेश नहीं किया जा सका। महिला आरक्षण विधेयक एक संविधान संशोधन विधेयक है। यही कारण है कि इसे दो तिहाई बहुमत से पारित किया जाना जरूरी है।
राजनीतिक दल और महिलाएँ राजनीतिक दल अपने घोषणा-पत्र के जरिए महिलाओं के जीवन में खुशहाली लाने का वादा तो करते हैं, लेकिन कभी भी गंभीरता से इस दिशा में प्रयास नहीं किए जाते। यह भी सच है कि महिलाएँ घोषणाएँ पढ़कर मतदान नहीं करतीं। बहुत कम महिला मतदाताओं को चुनाव घोषणा-पत्र का अर्थ पता है। दरअसल, अधिकांश राजनीतिक दल स्वयं अपने घोषणा-पत्रों के बारे में विशेष चिंतित नहीं रहते। उन्हें भी मालूम है कि घोषणा-पत्र के आधार पर उन्हें वोट नहीं मिलने वाले हैं।
जहाँ तक इन चुनावी घोषणा-पत्रों में महिलाओं के लिए की गई घोषणाओं का सवाल है तो सत्ताधारी कांग्रेस के घोषणा-पत्र (2009) में सारे के सारे बिंदु वही रहे जो वर्ष 2004 के घोषणा-पत्र में थे। जैसे लोकसभा और विधानसभाओं में आरक्षण पहली घोषणा थी। साफ लिखा था कि अगला लोकसभा चुनाव महिलाओं के 33 प्रतिशत आरक्षण मिलने के आधार पर ही कराया जाएगा।
2009 के घोषणा-पत्र में लिखा था- 'लोकसभा और विधानसभा में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करने के लिए संविधान में संशोधन की कोशिश की जाएगी।' दोनों घोषणा-पत्रों में विषय एक है, बस आस्था बदली हुई है। 2004 के लोकसभा चुनाव में जो संकल्प था, पाँच वर्षों में उसे पूरा करने के लिए कोई प्रयास नहीं हुए। 2009 के घोषणा-पत्र में 'कोशिश करने' की बात लिखी है। अन्य 4 बिंदु भी मिलते-जुलते हैं।
कांग्रेस के घोषणा-पत्रों में महिलाओं के खाते में पाँच बिंदु निश्चित हैं। क्या इतने भर से महिलाओं की समस्याएँ समाप्त हो जाएँगी? सच तो यह है कि महिलाओं की समस्याओं की ओर विशेष ध्यान ही नहीं दिया गया, वरना समस्याएँ स्थायी कैसे होतीं। पाँच साल शासन करने के बाद भी लगभग उन्हीं पुराने बिंदुओं को घोषणा-पत्र में डालने की विवशता क्यों, पिछली घोषणाओं में से कितनी पूरी हुई इस बारे में कोई जानकारी नहीं है।
दूसरी प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी है भाजपा। इस दल ने भी संसद में महिला आरक्षण को ही प्रथम घोषणा बनाया, परंतु भाजपा ने महिलाओं की झोली में 14 बिंदु दिए हैं। पिछले दिनों राजस्थान, मप्र, और छत्तीसगढ़ सरकारों द्वारा संचालित महिला लाभकारी योजनाओं को भी केंद्रीय स्तर पर लेने का वादा किया गया, वहीं लैंगिक समानता के लिए समान नागरिक संहिता बनाने का वादा दोहराया गया। अन्य 12 बिंदु भी विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के जीवन को सशक्त बनाने का संकल्प दोहराते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी ने भी अपने घोषणा पत्र में संसद में महिला आरक्षण को ही प्राथमिकता दी थी। इनके 6 बिंदुओं में आर्थिक विकास के लिए अनुदान, बलात्कार के विरूद्ध कानून, दहेज और कन्या भ्रूण हत्या का खात्मा, महिला बजट को बढ़ाना, विधवाओं और महिला द्वारा संचालित परिवारों को विशेष सुविधा देने के वादे दोहराए गए।
महिला आरक्षण बिल : एक नजर में 1. 12 सितंबर 1996 प्रधानमंत्री श्री देवेगौड़ा (संयुक्त मोर्चा सरकार) पहली बार संसद में पेश किया
2 . 11वीं लोकसभा भंग होने के कारण बिल अटका
3. 1 7 मई 1997 प्रधानमंत्री इन्द्रकुमार गुजराल (संयुक्त मोर्चा सरकार) सदन में फिर बिल पेश किया, परंतु जनता दल के कार्यकारी अध्यक्ष शरद यादव ने प्रधानमंत्री को बोलने नहीं दिया
4. दिसंबर1998 अटलबिहारी वाजपेयी (एनडीए) 84वें संविधान संशोधन बिल के साथ संसद में पेश
5. 12वीं लोकसभा भंग होने के कारण दोबारा बिल अटका
6. 23दिसंबर 1999 अटलबिहारी वाजपेयी (एनडीए) तीसरी बार पेश किया, आम राय न होने से पास नहीं
7. 7मई 2003 अटलबिहारी वाजपेयी (एनडीए) विधेयक लाने की कोशिश फिर नाकाम
8. 6 मई 2008 राज्यसभा में यह बिल पहली बार पेश झड़प के कारण पास नहीं
9. 7 जून 2009 प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह (संप्रग सरकार) शरद यादव ने महिला आरक्षण विधेयक पर विरोध जताया
10.17 दिसंबर 2009 प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह (संप्रग सरकार) महिला आरक्षण बिल जल्द पारित कराने की सिफारिश।
भारत दुनिया में 134 वें स्थान पर महिलाओं को संसद और विधानसभा में उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है। अंतर संसदीय संघ (इंटर पार्लियामेंटरी यूनियन) के अनुसार दुनियाभर की संसदों में सिर्फ 17.5 फीसद महिला प्रतिनिधि हैं। ग्यारह देशों की संसद तो ऐसी है जहाँ एक भी महिला सांसद नहीं हैं। 60 देशों में 10 फीसद से भी कम प्रतिनिधित्व है। अमेरिका और योरप में बीस फीसद प्रतिनिधित्व है, जबकि अफ्रीका एवं एशियाई देशों में प्रतिनिधित्व 16 से 10 फीसद है।
अरब देशों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व महज 9.6 फीसद है। महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के मामले में 183 देशों में रवांडा पहले नंबर पर है। वहाँ संसद में 48.8 फीसद महिलाएँ हैं। संसद में महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के मामले में भारत दुनिया में 134 वें स्थान पर है।
आरक्षण : जरूरत क्यों महिलाओं को सम्मान और समानता की विचारधारा भारत में हमेशा से ही सशक्त रही है। अहिल्याबाई, महारानी लक्ष्मीबाई, रानी दुर्गावती, बछेंद्री पाल, किरण बेदी और कल्पना चावला जैसे नाम बरसों से भारतीय महिलाओं के रोल मॉडल रहे हैं।
ऐसी कौन-सी चुनौती है जो 'प्रस्तावित 33 फीसद वर्ग' ने पूरी नहीं की? पंचायत राज और स्थानीय निकाय संबंधी 73वें और 74 वें संविधान संशोधन विधेयक के पारित होने के बाद तो महिलाओं की आवाज इस मसले पर और सशक्त हुई है। धरातली संस्थानों में तो महिलाओं के लिए आरक्षण है, किंतु इनके लिए कानून बनाने वाले संस्थानों में नहीं। महिला आरक्षण के पक्ष में तर्क कम वजनदार नहीं हैं। महिलाओं के खाते में त्याग और समर्पण के बेजोड़ उदाहरण हैं।
संसाधनों का इस्तेमाल भी महिलाएँ पुरुषों की तुलना में अधिक बेहतर ढंग से करती हैं। पंचायत राज संस्थानों में 'महिला सरपंच' के लिए स्थान बनाते समय इन्हीं मुद्दों पर गंभीरता से विचार हुआ था। अब संवैधानिक संस्थानों के लिए भी ऐसी व्यवस्था की जरूरत महसूस हो रही है।